द्वाली से दारलांग

सुभाष तरान
किश्तवाड़ जिले के पाडर परगने का गाँव चिशोती भी मचैल यात्रा के रास्ते में होने के चलते गिनती के होटलों और खाने पीने के सामान की दुकानों से गुलजार मिला। हम लोग चिशोती गाँव में ताशी के एक पुराने परिचित के चारों तरफ से खुले ढाबे पर चाय के लिए बैठ गये। सड़क मार्ग से लगभग पांच मील की पैदल दूरी पर बसा चिशोती खासा आबाद गाँव है। यह जन सुविधाओं के अभाव से जूझ रहे हिंदुस्तान के सुदूर पहाडों पर बसे दूसरे गावों के जैसा ही है। भोट नदी से खासी दूरी पर, हरे भरे जंगल और खेतों के बीच बसे इस गाँव के रंग बिरंगी टिन की ढलवां छतों वाले घर देखने में बहुत सुंदर लगते हैं। हालाकि पुराने मकानों पर यहाँ भी मिट्टी की सपाट छतें ही नजर आती है लेकिन हिमालय की प्रसिद्ध काठ कुणी शैली, जिसकी दीवारें देवदार के शहतीरों और पत्थर की जुगलबंदी से बनी होती है, यहाँ भी दिखाई देती है।
गाँव से हटकर यहाँ पर देवदार के जंगल से घिरी एक बडी सी चट्टान के साथ लगता हुआ सिंहासन माता का मंदिर है। पारंपरिक खेती बाड़ी और पालतू पशुओं पर बसर करने वाले इस गाँव के लोग मचैल यात्रा के दौरान थोडा बहुत श्रम और वस्तु का व्यापार भी कर लेते हैं। बेमौसमी फलों और सब्जियों के लिए अनुकूल जमीन और मौसम होने के बावजूद बाजार के अभाव में यहाँ के लोग पारंपरिक खेती पर ही बसर करते है। चाय पीने और कुछ देर चिशोती में सुस्ताने के बाद हम लोग अपने अगले गंतव्य के लिए निकल पड़े। राहुल और कैप्टन सांगवान यहीं ठहर गये थे। हालांकि पहले तय यह हुआ था कि वे दोनो भी हमारे उस दिन के अगले पड़ाव डंगैल तक चलकर अगले दिन लौट आएंगे लेकिन कैप्टन सांगवान के पैर में छाले पड़ जाने के कारण उन्होंने अपने इरादे बदल दिए। अब यहाँ से आगे की यात्रा में हम तीन ही लोग थे। निर्मल, मौंटी और मैं। स्वामी राज घोड़े लेकर आगे निकल चुका था जबकि हमारा गाइड ताशी हमारे ही साथ चल रहा था।

चिशोती से निकलते निकलते हल्की बूंदाबांदी शुरू होने लगी थी। अपने अपने रक्सेक को कवर से ढकने के बाद हम लोगो ने फ्लीस पहन लिए। चिशोती से आगे रास्ते में घने जंगल के बीचों बीच सड़क के लिए चिन्हित भूभाग की जद में आने वाले देवदार के सैकड़ो कटे पेड़ यहाँ वहाँ बिखरे नज़र आ रहे थे। देवदार के कटे युवा पेड़ो को देखकर एक बार तो दिल बैठ सा गया था लेकिन सड़क इस सुदूर घाटी में रहने वाले मनुष्यों की सबसे बड़ी जरूरत है। आज के आधुनिक युग में पैदल रास्तों में मानवीय श्रम और उनके समय के बेजा खर्च के ख्याल से मैने अपने दिल को बहलाया और कटे पेड़ों से अपना ध्यान हटाकर रास्ते पर केंद्रित कर दिया। लगभग घंटा भर की हल्की बूंदाबांदी के बाद धीरे धीरे बारीश और तेज होने लगी। रास्ते में पड़ने वाली अगली बसासत हमोरी पहुंचने से थोड़ा पहले हम लोगों ने एक सीधे से मैदान में पत्थरों के नीचे शरण ली और बारीश थमने का इंतजार करने लगे।
थोड़ी देर बाद बारीश हल्की हुई तो हम लोग फिर से अपने रास्ते लग गये और हमोरी में चाय के लिए रुक गये। हमोरी की भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति भी लगभग चिशोती के जैसी ही है। पहाड़ की खड़ी चोटी के नीचे उपजाऊ लेकिन पथरीले ढलान पर बसा हमोरी गाँव सडक मार्ग से तकरीबन आठ मील की दूरी पर होगा। हमोरी के बाद खड़ी चढ़ाई हमारे सामने थी। अगले एक घंटे की मशक्कत के बाद हमारे सामने वरनाज और भुजास घाटियों के मध्य में बसा मचैल गाँव था। यहाँ से भोट नदी का अस्तित्व खत्म हो जाता है। चौतरफा घाटियों के मुहाने पर बसे मचैल को वरनाज, भुजास, दारलांग और भोट घाटियों में प्रवेश का द्वार भी कहा जा सकता है। धार्मिक मान्यता के लिए मशहूर इस गाँव को अगर कस्बा कहा जाए तो ज्यादा उचित होगा। कस्बा इसलिए कि यहाँ श्रद्धालुओं की आवाजाही के चलते होटलों का अच्छा-खासा कारोबार है। इसके अलावा यहाँ तहसील, पुलिस चौकी, दवा खाना, बैंक, दसवें दर्जे तक का स्कूल और जंगलात जैसे कुछ अन्य महकमों के दफ्तर भी मौजूद है। मचैल से लगता हुआ वरनाज, चिरिंग और भुजास घाटियों के तीनो तरफ से उठती ढलानों के उपर का पहाडी भूभाग नीलम की खानों के लिए मशहूर है।
शानदार खेतों के बीचों बीच बसी इस बसासत से भुजास घाटी के ठीक उपर लगभग छ: हजार मीटर की ऊँचाई लिए किश्तवाड़ शिवलिंग की सीधी खडी चोटी पूरी भव्यता के साथ दिखाई दे रही थी। हमे बताया गया कि किश्तवाड़ शिवलिंग की यह चोटी ज्यादातर बादलों से ढकी पायी जाती है। मचैल की धार्मिक यात्रा के दौरान जिसको भी किश्तवाड़ शिवलिंग अपने ऐसे दर्शन दे दें, उसकी यात्रा सफल समझी जाती है। ढलती शाम के वक्त किश्तवाड़ शिवलिंग के उपर भले ही काले बादल मंडरा रहे थे लेकिन ढलता सूरज उसके शिखर को सोने की तरह चमका रहा था। एक शानदार पहाड़ और उसकी गर्वीली चोटी की ऐसी भव्य छटा देखकर आँखें तृप्त हो गयी। पर्वतारोहण के दौरान दिखने वाले ऐसे दृश्य मन को हर लेते है। किश्तवाड़ शिवलिंग यह रूप देखकर हमारी दिन भर की थकान छू मंतर हो गयी थी।