सरकारों के काम काज न्यायालय आखिर कितना ठीक करेंगे
वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली
न्यायालयों के हाथ में चाबुक हो या लगाम क्या सरकारें से क्या तभी काम करवाया जा सकेगा। उत्तराखंड में सरकारों की काम करने या न काम करने के तौर तरीके ही कुछ ऐसे रहे कि अनियमित जनता दर्शनों के बीच उनके नियमित कोर्ट दर्शन हो रहें हैं। नैनीताल उच्च न्यायालय को अक्सर उत्तराखंड की सरकारों के लिये तीखी टिप्पणीयों व सख्त निर्देशों को संभवतया न चाहने पर भी करना पड़ता है। 2021 में तो एक दो मामलों में राज्य सरकार को बताये गये एजेण्डा पर राज्य मंत्री मण्डल की बैठक बुलाने तक के निर्देश भी देने पड़े हैं। गाहे बगाहे सरकारी अधिकारियों को न्यायालय में हाजिरी देने व त्रुटीपूर्ण शपथपत्रों को फिर से ठीक कर जमा करने के भी आदेश देने पड़े हैं।
कोर्ट दर्शनों में कुछ कमी कम से कम त्रुटिपूर्ण शपथ पत्रों से लाई जा सकती है। गलत शपथ पत्र देना अनैतिक भी है। यदि मुख्य मंत्री या मंत्रीगणों व्दारा कोर्ट में प्रस्तुत किये जाने से पहले फाइलों को खुद देखने या अपडेट लेने का डर अधिकारियों को हो तो निश्चित ही न्यायालयों से अपर्याप्त अपूर्ण भ्रामक शपथनामाओं के लिये कम से कम फटकार मिलती। किन्तु उसके लिये जनप्रतिनिधियों को बयानबाजी के बजाये मेहनत व होम वर्क कर अपने सुझाव अधिकारियों को देने होंगे।
2017 से नवम्बर 2021 तक के उत्तराखंड में डबल इंजन और जीरो टोलेरेन्स से शुरू हुये भाजपा शासन काल में मीडिया व समाचार पत्रों में सार्वजनिक समाचारों के कतिपई उल्लेख राज्य में सुशासन देने के लिये राज्य सरकार पर दबाव बनाने में नैनीताल उच्च न्यायालय की भूमिका को भी रेखांकित करते हैं। 18 नवम्बर 2021 के समाचार थे कि वनगूर्जरों को वनों में आवाजाही व उनके पशुओं की दिक्कतों को कम करने के लिये पूर्व के दिये आदेशों का समयोचित अनुपालन न करने तथा तत्संबंधी अपूर्ण शपथ पत्र प्रस्तुत करने पर नैनीताल उच्च न्यायालय ने नये शपथ पत्र देने व सात जिलों के जिलाधिकारी पीसीसीएफ वाइल्ड लाइफ प्रमुख सचिव समाज कल्याण को निर्धारित तारीख पर अपने सामने उपस्थित होने के आदेश दिये हैं।
सरकारी शपथ पत्रों को अपूर्ण मानने के इत्तर वह जब वो सरकार व्दारा दी जाने वाली जानकारी पर ही न्यायालय संदेह करने लगें तब सरकारों का आंकलन कैसे किया जाये। राज्य की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था व कोविड से लड़ने के इंतजामों की कमी पर दी गई एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान 24 जून 2021 को नैनीताल हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को यह भी सुनाया था कि वह उसको बेवकूफ बनाना बंद करें । हम यथार्थ जानते हैं। आप मुख्य न्यायाघीश को ये न कहें कि उत्तराखंड में राम राज्य है व हम स्वर्ग में रह रहें हैं। आपकी कोविड सम्बन्धित तैयारियां अपर्याप्त है। आप हमारे बच्चों की सुरक्षा के लिए क्या कर रहें हैं ।आप कहते हैं कि आपके पास पर्याप्त एम्बुलेन्स हैं परन्तु एम्बुलेन्स न मिलने के कारण गर्भवती माताओं को पालकी में ले जाने की खबरें रोज आती रहीं हैं । कोविड तीसरी लहर के लिए आपकी तैयारियां क्या हैं । तभी सरकारी अस्पतालों में खाली पदों पर क्या किय जा रहा है डाक्टरों नर्सों टैकनीशियनों के पोस्ट कब भरी जायेंगी व मौजूदा एम्बुलेन्सों ब्यौरा क्या है यह भी उच्च न्यायालय ने जानना चाहा था।
कयास है कि लचर स्वास्थ्य व्यवस्था ओं के कारण चार धाम यात्रा की अनुमति देने को बार बार आगे बढ़ाया गया। कोर्ट में नियत संबंधित सुनवाई के पहले ही जब 25 जून को राज्य कैबिनेट ने तीन जिलों के लिए चारधाम यात्रा शुरू होने का प्रस्ताव पारित कर दिया था तो इस निर्णय पर भी कोर्ट के सख्त रूख के बाद राज्य सरकार को इसे निरस्त करना पड़ा था।
21जुलाई 2021 के समाचारों को याद करें। इनके अनुसार नैनीताल उच्च न्यायालय की न्यायाधीश आर एस चौहान व न्यायाधीश आलोक कुमार वर्मा की पीठ ने उत्तराखंड रोडवेज कर्मचारियों को वेतन न मिलने के मामले में उत्तरांचल रोडवेज कर्मचारी यूनियन की जनहित याचिका पर सरकार को लताड़ते हुए यहां तक कहा कि किसी भी सरकार को कर्मचारियों का वेतन रोकने का अधिकार नहीं है। यह संविधान स्थपित मौलिक अधिकारों का खुला उल्लंघन है। न्यायालय ने सरकार के 50 प्रतिशत वेतन देने के प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया था। कर्मचारियों कों बंधुआ मजदूर नहीं बनाया जा सकता है जैसी बेहद कठोर टिप्पणी भी हुई थी। न्यायपीठ ने यह भी स्मरण कराया था कि उत्तराखंड को बने हुए 21 साल हो गया है अभी तक रोडवेज परिसम्पतियों का बंटवारा नहीं हो पाया है जबकि केन्द्र,राज्य व उप्र में एक ही पार्टी की सरकार है। सुनवाई के समय मुख्य सचिव वित्त सचिव परिवहन सचिव ,महानिदेशक परिवहन, एडवोकेट जनरल मुख्य स्थाई अधिवक्ता विडियो कानफ्रेंसिंग के माध्यम से उपस्थित हुए थे। मामले की अगली सुनवाई 4 अगस्त को तय करते न्यायलय ने यह भी साफ किया कि भविष्य में कर्मचारियों को वेतन देने में दिक्कत न आये सम्पूर्ण प्रपोजल बनाकर कैबिनेट मीटिंग में रखा जाये।
रोडवेज कर्मचारियों को महिनों तक वेतन न दिये जाने से भी जुड़ा था। उन्होन मुख्य न्याय चौहान व आलोक वर्मा ने कहा कि 5 माह से वेतन नहीं दिया ऐस मामलों का संज्ञान कोर्ट स्वयं भी ले सकता है। कोरोना महामारी के नुकसान के लिए रोडवेज कर्मचारी जिम्मेदार नहीं है। केरोना प्रबंधन में भी उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा था। कुंभ में बताया था कि कितने कोविड सैम्पलों की जांच होनी चाहिये। 31 मार्च 2021 को ही नैनीताल हाईकोर्ट कह चुका था कि केन्द्र की एस ओ पी का सख्ती से पालन हो। पचास हजार सेम्पल टेस्ट हों। किन्तु उसके बाद भी 21 मई को नैनीताल उच्च न्यायलय ने उत्तराखंड सरकार को कुंभ में कोरोना संक्रमण रोकने के ठीक से प्रबंधन न करने पर फटकार लगाई थी। चार धाम यात्रा को भी आसानी से अनुमति न मिलना भी इसका एक कारण था। क्योंकि उच्च न्यायालय के ही अनुसार वह चार धाम यात्रा में कोरोना परिपेक्ष में कुंभ की पुनरावृति नहीं चाहता है।
18 नवम्बर 2020 को प्रकाशित समाचारों के अनुसार गंगोत्री ग्लेशियर्स में फैलते कूड़े पर व इससे बनी झील के मामले पर न्यायलय के पूर्व के आदेशों को न मानने पर तत्कालिन आपदा सचिव को कोर्ट का अवमानना का दोषी पाते हुए तीन सप्ताह में जबाब मांगा था व यहां तक टिपपणी कर दी थी कि पद के योग्य नहीं हैं आपदा प्रबंधन सचिव। 5 अगस्त 2021 को वन विभाग को खाली पदों को न भरने पर अप्रसन्नता व्यक्त करते हुये 65 प्रतिशत पदों को छ माह में भरने के भी निर्देश दिये थे।
हाईकोर्ट ने 21 अगस्त 2018 के फैसले के तहत राज्य में बुग्यालों में कैम्पिंग पर रोक लगा दी थी। परन्तु समीपस्थ क्षेत्र में विवादस्पद शादियों के बाद मंगलवार 25 जून 2019 को विधान सभा सत्र के दूसरे दिन केदारनाथ के विधायक मनोज रावत व एक अन्य विधायक ने विधान सभा में सीधा आरोप लगाया कि जहां हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का हवाला देकर स्थानीय लोगों को भी रात में बुगयालों में रूकने नहीं दिया जाता है वहीं उद्योगपति गुप्ता बंधुओं को कई कई दिन के शादी आयोजन के लिए औली बुग्याल में अनुमति दे दी जाती है। वहीं उत्तराखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड व्दारा नैनीताल हाई कोर्ट को बताया गया कि 18 से 22 जून 2019 तक हुई व्यवसायी गुप्ता बंघुओं के दो बेटों के विवाहोपरान्त औली स्कीइंग आयेजन स्थल से 370 टन कूड़ा कचरा हटवाया गया है। बताया गया कि वहा व्यवस्था न होने से इस दौरानं 200 मजदूरों ने खुले में शैच किया। स्मरण रहे इन शादियों में हेलीकोप्टरों से राज्य की जमीन पर आश्रम बनाये वो बाबा लोग भी गये थे जो अपने को प्रकृति संरक्षण के ध्वज वाहक कहते हैं। इन्ही शादियों से उत्तराखंड सरकार औली को वेडिंग डिस्टीनेशन बनाने का सपना बेच रही थी।
शहरी अतिक्रमणों को कई शहरों में हटाने के बार बार हाई कोर्ट से निर्देशों के सरकारी कार्यवाहियां ढीलम ढील वाली ही रहती हैं। 2019 में भी रिस्पना के किनारे बने घरों सरकारी भवनों पर भी हाईकोर्ट के आदेश पर ही जिलाधीश देहरादून ने उनको खाली किये जाने की कार्यवाहियां शुरू की थीं। परन्तु आज भी हालात जस के तस लगते हैं। 2018 मे रू्रदपुर में हजारों अतिक्रमणकारियों को न हटाने पर भी उच्च न्यायालय ने सवाल किया था।
2018 में फैलती वनाग्नियों का नियंत्रण न हो पाने पर एक बार नैनीताल उच्च न्यायालय ने इसका स्वतः संज्ञान भी लिया था। उसे ये भी निर्देश देने पड़े थे कि ग्राम पंचायतों को मजबूत किया जाये और साल भर जंगलों की आग की मौनिटरिंग हों। 2016 में कोर्ट ने जंगलों को आग से बचाने के लिए गाइड लाइन भी जारी की थी। गांव स्तर पर आग बुझाने के लिए समिति बनाने के निर्देश भी दिये थे चौड़ीकरण के लिए पेड़ों को काटना। नैनीताल उच्च न्यायालय ने 2019 में हरिव्दार के तत्कालिन डी एम से पूछा था क्यों अवैधानिक स्लौटर हाउस चल रहें हैं। नैनीताल उच्च न्यायालय ने रैणी आपदा पर भी केन्द्र राज्य सरकारों से जबाब मांगा था। मसूरी राजपुर रोड पर पहाड़ियों को काटने पर भी हाई कोर्ट सख्त हो रहा है।
1 जुलाई 2021 के छपे समाचा थे कि देहरादून में नदी नालो खालों की भूमि को बंजर भूमि में तब्दील कर भू माफियों व्दारा की गई अवैद्य प्लौटिंग पर जिलाधीश देहरादून से जबाब तलब कर इन पर रोक लगाने को कहा है। एस सी एस टी /छात्रवृति घोटाले के संदर्भ में नैनीताल उच्च न्यायलय प्रगति पर निगरानी रखे हुये है। 2019 में उसने जिला पंचायत चुनावों में खरीद फरोख्त पर भी विवरण मांगा था। पब्लिक स्कूलों में आर टी ई के अंतर्गत राज्य सरकार की देनदारी के मामले में भी वह चुप नहीं रहा।
नैनीताल उच्च न्यायालय राज्य सरकार की मदद के लिये भी आगे आता रहा है। अगस्त 2019 में उन बौण्ड धारी चिकित्सकों को जिन्होने रियायती फीस पर पढ़ाई की थी पर दुर्गम क्षेत्रों में जाने से कन्नी काटने लगे थे उनके संदर्भ में राज्य सरकार की अपील पर ऐसे बौण्ड धारी चिकित्सकों को कड़ी चेतावनी देते हुये ये कहा था कि वे या तो दुर्गम क्षेत्र में जायें या 18 प्रतिशत ब्याज सहित फीस लौटायें।
परन्तु कोई कितना आपको सुधारने का प्रयास करे जब आप सुधरने के लिये ही तैयार न हों तो क्या किया जा सकता है। कितनी बार नैनीताल हाईकोर्ट से सरकार ने राज्य के पूर्व मुख्यमंत्रियों के सरकारी आवासों के किराये व अन्य भत्तों की वसूली की माफी के बारे में कहा व कोर्ट ने ठुकराया। न्यायालय से बारंबार ना सुनने के बावजूद राज्य कैबिनेट पूर्व मुख्यमंत्रियों की संबंधित देनदारियों की छूट के नये प्रस्तावों को पारित करने से बाज न आये । अगस्त 2019 में भी ऐसी ही पुर्निवचार याचिका खारिज हुई थी।
आप के मनीष सिसोदिया ने तो मुख्य मंत्री त्रिवेन्द्र की सरकार को जीरो वर्क सरकार कहा था। परोक्ष रूप से आज भी नैनीताल उच्च न्यायालय से यही प्रतिध्वनि आ रही है। 2013 के बाद केदारनाथ के आपदा के बाद लापता लोगों की तलाश या सालों बाद शवों की तलाश के लिये क्यों नैनीताल हाईकोर्ट के निर्देशों की जरूरत पड़ती है। क्यों नैनीताल हाईकोर्ट को गुप्ता बंधुओं की औली में शादी पर निगरानी करवानी पड़ती है । बुग्यालों को बचाने के लिये क्यों हेलीकौप्टरों की औली उड़ानों पर उसे भृकुटी ताननी पड़ती है। पहले की बात करें तो नवम्बर 2015 में ही हाईकोर्ट ने नैनीसार भूमि को जिन्दल ग्रुप को देने के मामले में भी काग्रेस नेतृत्व की राज्य सरकार को स्थिति साफ करने को कहा था।
सन्निकट चुनावों के कारण वर्तमान मुख्यमंत्री का या उनके दल का यह कहना भी अकारण नहीं है कि वे उत्तराखंड को देश का नंबर वन आदर्श राज्य बनायेंगे। किन्तु आदर्श राज्य वह है जहां सरकार भी नियम कानून का प्रतिबंध स्वीकारे व उत्तरदायी सरकार जनता का हित सोचे न कि पूर्व मुख्यमंत्रियों के हित में या मंत्री विधायकों के अपराधिक मामले ही हटवाने में ही सरकारी वकीलों का समय व खर्चा लगाये। बुनियादी सवाल यह भी है कि सरकारों के काम काज न्यायालय आखिर कितना ठीक करेंगे। न्यायालयों के हाथ में चाबुक या लगाम क्या सरकारें को प्रजातंत्र में जनहित में संचेतन करने के लिए जरूरी है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार व पर्वतीय चिन्तक हैं.