उत्तराखंड आन्दोलन न्याय नही
महावीर सिंह जगवान
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को नमन करते हुये
एक अक्टूबर 1994 की रात दिल्ली जा रहे राज्य आन्दोलन कारियों पर गोली और लाठी बरसाई गई इस एकतरफा खूनी खेल मे सात उत्तराखण्डियों की मौत हुई, सत्रह लोग गम्भीर रूप से जख्मी हुई, माताऔं बहिनो की अस्मत से खिलवाड़ हुआ। भारतीय लोकतन्त्र मे यह काला धब्बा रामपुर तिराहा काण्ड के नाम से जाना जाता है जबकि तेइस साल बाद भी देवभूमि उत्तराखण्ड इस वीभत्स काण्ड पर न्याय की टकटकी लगाये बैठा है। गाँधी और शास्त्री जी के भारत मे जितने संयम और धैर्य से हिमालयी भू क्षेत्र के लोग अपनी विकट और दुरूह भौगोलिक परिस्थिति के साथ अति पिछड़ेपन और विकास की विषमता के समाधान के लिये ही नये हिमालयी राज्य की माँग थी। हिमालय के वासियों ने जिसमे हिमालय का बच्चा, नौजवान, महिला, वयस्क, बुजुर्ग देश और विदेश के दूर दूर कोनो मे नौकरी करने वाले ब्यक्ति से लेकर राजकीय कर्मचारियों तक ने अभूतपूर्व समर्पण, त्याग, बलिदान, देकर इस महान आन्दोलन की नींव रखी। जिसका एक मात्र उद्देश्य था यहाँ की माटी, पानी, नौजवानी की योग्यता क्षमता की स्थानीय उपयोगिता बढे, हम विषम भौगोलिक परिस्थिति मे रहकर भी अपनी दृढ इच्छा शक्ति और कौशल के साथ अवसरों का ऐसा बड़ा पटल विकसित करते ताकि अपने स्वाभिमान, संस्कृति, परम्परा स्वर्णिम इतिहास और वर्तमान के बलबूते राष्ट्रीय स्तर पर अलग पहिचान कायम करते। भारत के अग्रणी और सम्मपन्न राज्यों की पंक्ति मे खड़े होते।
इतने शान्त और सकारात्मक आन्दोलन को एक अक्टूबर की रात बारह बजे रामपुर तिराहा पर बसो के काफिले को रोककर पुलिस द्वारा बेरहमी से लाठी चार्ज और फायरिंग की गई रात के दो बजे तक हिमालयी राज्य की माँग करने वालों पर दमन का वीभत्स ताँडव चलता रहा जिसमे कई मौत के आगोस मे समा चुके थे तो कई असहनीय पीड़ा से कराह रहे थे तो दूसरी ओर मातायें बहिनो की अस्मत लूटने तक का कुटिल घृणित घटनाक्रम घट चुका था। सुबह चार बजे के बाद से लोगों मे भगदड़ धरपकड़ और जेलों मे ठूँसने की निर्मम कार्यवाही शुरू हुई। पूरा देश महात्मा गाँधी और शास्त्री जी की जयंती धूमधाम से मना रहा था तो वर्तमान उत्तराखण्ड के पहाड़ी जनपदों मे जैसे ही इस वीभत्स और दु:खद घटना का संदेश पहुँचा लोगों के आखों मे आसूँ और मस्तक पर गुस्सा दिलों मे अपनो को ढूँढने और जानने की ब्याकुलता और दिमाग मे सत्ता के मद मे चूर नेताऔं और पुलिस की वर्दी मे छिपे दरिन्दों से लेकर मौत के चक्रब्यूह के निर्माता अधिकारियों तक को उनकी करनी की सजा देने के लिये उधेड़बुन। राज्य तो मिला लेकिन तेइस साल की लड़ाई मे एक भी मुकदमा निर्णायक दौर मे नही पहुँचा जो स्पष्ट करता है इंसाफ की उम्मीद भी अब दम तोड़ती नजर आ रही है।
राज्य बनने सत्रह वर्षों के बाद स्पष्ट हो गया राज्य सरकारों के सीने मे राज्य के रामपुर तिराहा काण्ड मे शहीदों के इंसाफ की कितनी चिन्ता है। जिनकी शहादत के बलबूते सत्ताऔं के शीष नसीब हुये जिन्हे वो अपने नीव के साथ इंसाफ नही कर पाये तो इन पहाड़ों और सुनहरे हिमालय के भविष्य के साथ क्या इंसाफ करेंगे। काला दिवस और रामपुर तिराहा पर शहीदों को नमन की परम्परा विना शहीदों को न्याय मिले बिना कैसी रस्म अदायगी। आखिर इस राज्य मे आदर्शों और इंशाफ के लिये रस्म अदायगी की परम्परा किन मजबूरियों के तहत है, इसकी जमीन पड़ताल करने पर सुदूर गाँवो मे भी चिन्ता है तो पढे लिखे तबके मे भी इंसाफ की तड़प सीधे शब्दों मे कहें पूरे उत्तराखण्डी यदि न्याय चाहते हैं तो इस न्याय से बचना और बचाना कौन चाहता है इसकी पड़ताल तो सभी को करनी होगी और इसके समाधान के लिये भी अपने छोटे बड़े अहम को त्यागकर एक शसक्त संघठन को आगे आने होगा तभी रामपुर तिराहा काण्ड के दोषियों को सजा और शहीदों की आत्मा को शान्ति मिलेगी और हम अधिक जोश और सम्मान से शहीदो को नमन करते हुये राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और पूज्य शास्त्री को अधिक आत्मीयता से सम्मान दे पायेंगे। शत् शत् नमन