खिड़कियों से रोशनी
सुनीता मोहन
खिड़कियों से रोशनी और हवा ही नहीं, कहानियां भी झांकती हैं। यकीनन, खिड़कियों का अपना जलवा होता है! जब दो घरों की खिड़कियां आमने सामने हों, उधर खिड़की से कोई चांद का टुकड़ा दिखलाई देता हो और इधर कोई ख़स्ताहाल लेखक हो, तब, कहानियां तो बनेगी ही! ऐसी ही एक कहानी लिखी है श्री विकास बहरी ने, ‘खिड़की’। गये इतवार, इस कहानी को मंच पर उतारा श्री अखिलेश नारायण और उनकी मण्डली ने, उस पर चटकारों की संगत सजाई आलोक उलफत जी ने और दर्शक रहे हम!
अविकल स्टूडियो, देहरादून के हॉल में शाम लगभग साढ़े छः बजे से नाटक की शुरूआत हुई, नाटक की बनावट कुछ ऐसी थी मानो हम भी इस नाटक के कोई पात्र हों। नाटक का मुख्य पात्र दर्शकों से लगातार संवाद में हो तो ये भ्रम हो ही जाता है। नाटक का वह पात्र भी तो भ्रम को ही जी रहा था। नाटक का मुख्य पात्र एक ऐसा लेखक है, जो खुद को प्रोफेशनल कहते हिचकता भी है और दंभ भी रखता है, जो इतनी तंगहाली में है कि, घर में खाने के ही फाके़ हैं, जो बोतल का इंतज़ाम तो कर पाता है लेकिन ग़ुरबत मकान का किराया नहीं देने देती, जिसे कहानी लिखने का काम तो मिला है, लेकिन एक तरफ समय सीमा का बंधन है, दूसरी तरफ कहानी का सिरा उसकी पकड़ से बाहर है!
बस यहीं पर ‘खिड़की’ एक किरदार के रूप में सामने आती है। इस खिड़की के उस पार, सामने वाले खिड़की से अमूमन फोन पर बातें करती दिखने वाली वो लड़की जिसे लेकर लेखक कोरी कल्पनाएं करता है, वो कल्पनाएं एकाएक सच होने लगती हैं और मज़े की बात ये है कि, वो सच होती दिख रही कल्पनाएं भी वास्तव में सच हो रही हैं, या वो भी भ्रम हैं, जान नहीं पड़ता! हां, इतना ज़रूर होता है कि, लेखक को अपनी कहानी का सिरा मिल जाता है और वो निर्धारित समय सीमा में अपनी कहानी पूरी कर लेता है, ऐसा उसकी मुस्कान बताती है। कहना न होगा कि, लेखक के घर की दीवार पर टंगे चित्र, लेखक के वैचारिक स्वाद को भी बयां करते हैं।
पूरे नाटक में अखिलेश नारायण के साथ ही जागृति कोठारी की भूमिका भी लाजवाब रही। नाटक शुरू से लेकर आखि़री तक समान गति से चलते हुए दर्शकों को बांधे रखता है। अखिलेश जी की डॉयलॉग डिलीवरी अद्भुत है, उनके संवादों की लोच, निरन्तरता और चुहलपन, उनकी भाव-भंगिमाएं और एक चरित्र से दूसरे चरित्र में स्मूदली उतर जाने की कला, दर्शकों को मुग्ध कर देती है। तो उस आनन्दमयी शाम के लिए श्री अखिलेश नारायण, जागृति कोठारी, श्री आलोक उलफत जी और एकलव्य थियेटर की पूरी टीम को हार्दिक बधाई। इस उदास मौसम में नाटकों की बहार लाने के लिए आप लोगों को दिल से धन्यवाद। आपके जज़्बे को सलाम! आपके समर्पण को सलाम!