खड़क सिंह खनी – एक अभिमन्यु
डॉ. अरुण कुकसाल
संघर्ष वाहनी प्रारंभ से ही ‘चिपको’ और ‘वन आंदोलन’ का फर्क जनता को बताती आई थी। लोग इस बात को समझ रहे थे कि चिपको (पर्यावरणवादी) नेताओं को सरकारी सेमीनारों में सादर बुलाया जाता है, और वन आंदोलन के नेताओं और कार्यकर्ताओं (वन-खनन पर जनता के अधिकार की मांग करने वालों) पर बेरहमी से सरकारी दमन चक्र चलता है। दरअसल, पर्यावरणवादी (चिपको नेता) सरकारी संरक्षण में इस आंदोलन को भटकाने में सफल रहे। वन विधेयक – 1980 उन्हीं की कारगुज़ारियों का परिणाम था। चिपको नेताओं और वन आंदोलनकारियों की नीति-नियत के मूलभूत अंतर को इंगित करते खड़कदा के उक्त विचार 70 के दशक के उत्तराखंड का सामाजिक – राजनैतिक सच था। ‘चिपको’ शब्द नवजात अवस्था में ही ‘पर्यावरणवादी’ नाम हासिल कर सरकारी पनाह पा गया था। बाद में, सरकारी संरक्षण-संपर्क में वे पर्यावरणवादी पुरस्कारों और अपने सगे-संबंधियों को ऊंचे सामाजिक – प्रशासनिक ओहदों से चिपका कर खुद को ‘चिपको’ की पहचान बनने-बनाने में कामयाब रहे हैं। इसके दूसरी ओर वन आंदोलनों के पक्षकार, आम उत्तराखंडी जनता के जल – जंगल – जमीन के हक के लिए उनके साथ आज भी लड़ाई के अग्रिम मोर्चों पर तैनात हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, साहित्यकार, यायावर और बड़े भाई खड़क सिंह खनी की आत्मकथा ‘सूरज को तो उगना ही था’ को पढ़ने के बाद लगा कि कितना कम जानते थे, हम उनके बारे में? आज जाना कि उनकी आत्मीय मुस्कान के पीछे जीवन की कितनी जटिलताएं उन पर डेरा डाली रहती थी। हम तो बस, हर समय मुस्कराते हुए हौसला देते ‘खड़कदा’ को ही जानते थे। उनसे मुलाकातें कम होती थी। पर हमारा दावा था कि हम उनके अंतरंग मित्र हैं। परन्तु अगर हम उनके अंतरंग मित्र थे, तो उन्हें जीवन की विकटताओं से उभारने के लिए हम कब और कितने समय उनके साथ खड़े – रहे थे? मुझे कहने में कोई हिचक नहीं कि उनसे अंतरंगता का हम मित्रों का दावा, ये किताब सिरे से नकार देती है।
‘खड़कदा’ की जिंदगी के कुछ हिस्सों में सिमटी यह पुस्तक दुनिया की दुनियादारी के कई चेहरे हमारे सामने लाती है। सामाजिक – राजनैतिक बेहतरी के लिए संघर्षशील जनसंगठनों का सच/भ्रम/ह्रश्र इस किताब के पन्नों में जहां – तहां पसरा है। किताब का नायक चक्रव्यूह में फंसा अभिमन्यु सा है। वह जीवन भर सामाजिक अन्यायों का प्रतिकार करता रहा, लेकिन अपनी निजी जिंदगी में आए अभावों को मूक – दर्शक बनकर सहता रहा। वह दृढ़निश्चयी नायक आने वाली पीढ़ी पर विश्वास करते हुए, उनके द्वारा सामाजिक क्रांति के सपने के साकार होने की आशा में दुनिया से विदा लेता है। ‘खड़कदा’ यहीं पर ‘नायक’ से ‘महानायक’ बनकर फिर से हम मित्रों का आज भी हौसला आफजाई करते हुए नजर आते हैं।
बात सन् 1975 के आस-पास की है। अल्मोड़ा के नैलपड़ गांव का युवा ‘खड़कदा’ नैनीताल के तल्लीताल में एक किराये के खोमचे में अखबार, चाय, पान, बीड़ी, सिगरेट, टाफी आदि बेचा करते थे। गरीबी और सामाजिक उपेक्षा – अपमान से ‘खड़कदा’ की बचपन में ही मुलाकात होने के कारण इनके साथ रहने की उन्हें आदत हो गई थी। अतः बे-परवाह और बे-खबर ‘खड़कदा’ के लिए उस दौर के वे दिन-रात बिंदास थे। परन्तु, मौज-मस्ती के इस आलम में ‘खड़कदा’ देश – दुनिया की हलचलों पर भी पैनी नज़र रखते थे। घर – घर अखबार बांटते – बेचते हुए, खबरों से बढ़ते लगाव ने उनकी सामाजिक संवेदनशीलता – चेतना को समझ और दिशा देने की शुरुआत कर दी थी। एक दिन उनके मित्र चन्द्र सिंह कार्की ने उस दौर के लोकप्रिय युवा डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट से उनकी मुलाकात करा दी। ‘शमशेरदा’ और ‘खड़कदा’ में विचार – विमर्श और मुलाकातों का जो सिलसिला उस दिन शुरू हुआ था, वो फिर दोनों महानुभावों में ता-उम्र चलता रहा।
नैनीताल में डॉ. शमशेर बिष्ट से मुलाकात के बाद ‘खड़कदा’ की जीवन शैली और दिशा बदलने लगी। ‘सामाजिक अन्याय और भेदभाव को जनक्रांति से खत्म किया जा सकता है।’ ये मूल मंत्र ‘खड़कदा’ को ‘शमशेरदा’ ने जो दिया फिर तो जीवन – भर इसी जनक्रांति के वे वाहक बने रहे। नैनीताल की फुटपाथी दुकानदारी को तिलांजलि देने के बाद ‘खड़कदा’ आजीवन समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता बने रहे। साथ ही, उन्होंने ‘पत्रकारिता’ को जीविका चलाने और ‘साहित्य सृजन’ को जीवनीय अनुभवों को अभिव्यक्त करने का माध्यम बनाया था।
आइए – चलिए, खड़कदा को जानने – समझने के लिए उनके बचपन से बात शुरू करते हैं। अल्मोड़ा जिले के धौलादेवी विकासखंड के नैलपड़ गांव में जन्मे खड़क सिंह खनी जी ने जागनाथ विद्या निकेतन, शौकियाथल (जागेश्वर) से सन् 1970 में 10वीं पास किया। यह नैलपड़ गांव के लिए ऐतिहासिक और गौरव की बात थी। क्योंकि वे गांव – इलाके से पहले हाईस्कूल पास युवा थे। पारिवारिक गरीबी से जूझते हुए पिता ने हिम्मत करके उन्हें रामजे इंटर कालेज, अल्मोड़ा में 11वीं में प्रवेश दिलाया। परन्तु शहरी चमक – दमक के कुप्रभाव में ‘खड़कदा’ आ गये और 11वीं में फेल हो गये। कमजोर आर्थिक हालातों के कारण पढ़ाई यहीं छूट गई। वे अब अपने गांव में रह कर पारिवारिक कार्यों में सहयोग देने लगे। कम उम्र में ही शादी हो गई थी। आगे पढ़ने की इच्छा बलवती हुई तो वे अपने ससुर जी के भरोसे नैनीताल आ गये। ‘खड़कदा’ नैनीताल आकर स्कूली पढ़ाई से नहीं जुड़ सके, पर जीवन के कडुवे अनुभवों से मिली सीख ने उन्हें जीवन भर मन – तन से मजबूत बना दिया था।
बर्तन धोते-धोते सड़कर सफेद हो चुकी हाथों की अंगुलियों में पानी पड़ते ही ऐसा महसूस होता था, जैसे किसी ने मेरी अंगुलियां छील कर उनमें लाल मिर्च के पाउडर का लेप लगा दिया हो। असहनीय जलन से मैं कहार उठता था। ऐसे में अक्सर मुझे मां की याद आती। मां मुझे घर में एक गिलास पानी तक नहीं उठाने देती थी। यदि मैं कभी किसी बात पर नाराज़ होता और थोड़ी देर खाना खाने से मुकरता तो घर में कुहराम मच जाता। मेरी नाराज़गी के लिए छोटी बहन और दीदी को जिम्मेदार मानते हुए मां कभी-कभी उनकी पिटाई तक कर डालती, यहां मेरी कराह और सिसकियां सुनने वाला कोई न था। मैंने काम छोड़कर घर वापस जाने का निर्णय लिया, यहां न तो पढ़ाई कर पाया और न कमा कर घर को कुछ रुपया भेज पाया। पर अब किस मुंह से घर जाऊं? न लत्ते, न कपड़े और न घर जाने का खर्च।
‘खड़कदा’ नैनीताल पढ़ने आये थे, पर वहां ज़लालत की जिंदगी हाथ आई। उन दिनों किसी समय वापस गांव जाने का विचार आता तो ‘लोग क्या कहेंगे?’ की कसक से मन घिर जाता। वे फिर अपनी नियति मान कर उसी यातनापूर्ण वातावरण में रहने को मजबूर हो जाते। निरंतर गिरते स्वास्थ्य का परीक्षण डाक्टर से कराया तो उनमें ‘क्षय रोग’ की पुष्टि हुई। ‘क्षय रोग आश्रम, गोठिया’ में 3 माह के इलाज के बाद ‘खड़कदा’ अपने काम-काज में फिर से जुट गए। स्थितियां अब कुछ बेहतर थी। नजदीकी लोगों की आपसी मदद से वे अपना व्यवसाय चलाने लगे। जीवन की गाड़ी उसी दिशा में आगे बढ़ती यदि ‘शमशेरदा’ से मुलाकात न होती।
मैं कुछ बोल नहीं रहा था। इतने सारे लोगों, वह भी काफी पढ़े – लिखों को एक जैसी बातें करते देख मुझे लगा कि हमारा पूरा समाज बदल रहा है। ये लोग देश – दुनिया के लिए कुछ करना चाहते हैं। मैं ही एक अकेला व्यक्ति हूं, जो आज तक देश के बारे में कुछ भी नहीं सोच पाया। मैं आत्मग्लानि से भर गया और निर्णय लिया कि मैं इन्हीं की तरह समाज और देश के लिए कुछ करूंगा।
नैनीताल में अपने कारोबार को समेटने के बाद ‘खड़कदा’ पूर्णकालिक सामाजिक कार्यकर्ता बने गये थे। ‘पर्वतीय युवा मोर्चा’ से जुड़ कर ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, पानी, बिजली आदि समस्याओं के निराकरण हेतु वे प्रयासरत रहते। सामाजिक भेदभाव, अन्याय, उत्पीड़न, घूसखोरी के विरुद्ध उनकी अगुवाई में होने वाले आंदोलन दूर -दूर तक चर्चा में आने लगे। ‘खड़कदा’ की हिम्मत का यह आलम था कि उन्होंने एक बार घूसखोर पटवारी को उसी की हथकड़ी पहना कर डीएम, अल्मोड़ा के सम्मुख पेश कर दिया था। ‘खड़कदा’ की सामाजिक जागरूकता की तारीफ करते हुए तत्कालीन डीएम मुकुल सनवाल ने उस पटवारी को तत्काल निलंबित कर दिया था। यह व्यवहारिक तथ्य है कि सार्वजनिक जीवन की तुलना में पारिवारिक मन – भेद व्यक्ति में अधिक टूटन – नैराश्य लाते हैं। दुर्भाग्यवश, ‘खड़कदा’ और उनकी धर्मपत्नी में आपसी तालमेल नहीं हो सका। आखिरकार, आपसी विचार – विमर्श से बनी सहमति से वे दोनों वैवाहिक जीवन से अलग हो गए।
मैंने पूछा, जा रही हो? उसने एक उम्मीद के साथ मेरी ओर देखा और सिसकते हुए बोली, तो क्या करूं? मैंने जेब से तुरंत दो हजार आठ सौ रुपए, जिन्हें मैं दुकान से लाया था निकाले और उसे देने के लिए उसकी कंडी में डाल दिए। उसने कंडी से रुपए निकाल कर मेरी ओर रख दिए। साथ में सोने का दो तोले का ‘ग्लोबंद’ और दो तोले की ‘नथ’ जो उसने अब तक पहने थे, उतार कर मेरी ओर बढ़ा दिए। बोली, तुम ही मेरे लिए नहीं रहे तो रुपए और ज़ेवर मुझे क्या चाहिए? जब वह जाने लगी तो मैं उसे ‘लमधार’ तक पहुंचाने गया। वहीं पर मैंने उसे विदा किया। वह जोर – जोर से रोने लगी। मैं भी रो पड़ा। वह बहुत धीरे – धीरे, थकी हारी सी जा रही थी। बार-बार पीछे मुड़कर वह यहां की हर चीज खेत – खलिहान, पेड़ – पौधे, मकान जो अभी तक उसका अपना था को देख रही थी। अब वह यहां नहीं आ सकेगी। मैं भी उसे आखिरी बार जी भरकर देख लेना चाहता था। इसलिए वह जब तक ऊपर की पहाड़ी पर न चली गई, मैं उसे देखता रहा।
‘खड़कदा’ को जीवन को नये ढर्रे में लाने में कुछ समय लगा। वे अब जीविका के लिए अपनाए गए कामों को पूरी मेहनत से करते। परन्तु जनकल्याणकारी कार्यों में ज्यादा सक्रियता होने से कई मुश्किलें भी हर सामने रहती। उन्हें सामाजिक कार्यों के लिए कई दिनों तक घर से बाहर रहना होता था। इससे घर – परिवार के कार्य प्रभावित होते थे। पर्वतीय युवा मोर्चा’ ने वर्ष-1977 में पलायन रोकने और स्थानीय युवाओं को अपने ही परिवेश में रोजगार देने के उद्देश्य से 4 स्थानों पर ‘लेबर को-ऑपरेटिव सोसायटी’ (यथा- सिलंगी, मनान, चमतोला और गुरना) का संचालन आरंभ किया था। सिलंगी सोसायटी का कार्य खड़क सिंह खनी जी के संयोजन में संचालित होने लगा। ‘लेबर को-ऑपरेटिव सोसायटी’ लीसा निकालने, सड़क, रास्ता, गूल, नहर निर्माण, स्थानीय उपजों को बेचने आदि कार्यों को करती थी। को-ऑपरेटिव सोसायटी के माध्यम से पर्वतीय युवा मोर्चा पलायन रोककर पहाड़ों में स्थानीय संसाधनों पर आधारित स्वरोजगार का ‘माडल’ लोकप्रिय और सफल करना चाहता था।
‘पर्वतीय युवा मोर्चा’ को विस्तार देते हुए वर्ष-1977 में गैर चुनावी राजनीति के केन्द्र में ‘उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी’ का गठन किया गया। ‘खड़कदा’ वाहिनी के अग्रणी कार्यकर्त्ता के रूप में वन आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लेने लगे। एकांत मिलता तो वे अपने मन की व्यथा लिखने लगते। चर्चित उपन्यास ‘किस्मत की ठोकर’ इसी दौर में उन्होंने लिखा। घर के अभिभावकों को पता चला कि उनकी पूर्व पत्नी का पुनः विवाह हो गया है। फिर तो मां की हठ और दबाव के कारण उन्हें दूसरी शादी करनी पड़ी।
जीविका के लिए रोजगार और सामाजिक क्रांति के लिए जन आंदोलन दोनों विपरीत शिखरों में संतुलन रखना मुश्किल हो रहा था। परन्तु ‘खड़कदा’ सामाजिक आंदोलन में आक्रामक और पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति धीर-गंभीर रहते। आर्थिक अभावों में रहना उन्होंने बखूबी सीख लिया था। वन आंदोलन के बाद वे सन् 1983 में प्रारंभ हुए ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन में शामिल हुए। वाहिनी से आईपीएफ और फिर भाकपा (माले) तक ‘खड़कदा’ का सार्वजानिक जीवन ऊहापोह और उतार-चढ़ाव में ही बीता। वे समय-समय पर शरीर और मन से शिथिल और कमजोर हुए। परन्तु जीवन को जीवटता से जीने के आदी ‘खड़कदा’ कभी निराश और परास्त नहीं हुए। ‘ब्लड कैंसर’ के बाद भी उनकी स्वाभाविक मुस्कराहट होंठों पर हर किसी के लिए सदैव तरोताजा रहती थी।
13 सितंबर, 1997 को ‘रक्त कैंसर’ का पता चलने से लेकर अपनी मृत्यु के दिन 28 जुलाई, 2006 तक ‘खड़कदा’ अपने काम-काज से कभी विमुख नहीं रहे। इस दौर में कानपुर, लखनऊ, दिल्ली, गाजियाबाद, नोएडा, हल्द्वानी की बार-बार उन्होंने यात्राएं की। एक अंतहीन दर्द के साथ इन 9 सालों को उन्होंने अपनी फक्कड़ी के अंदाज में ही बिताया। सच के लिए लड़ना – भिड़ना, तपाक से कहना और मित्रों पर अटूट विश्वास रखकर वे अपने को कभी अकेला महसूस नहीं होने देते थे। वे अपनी बीमारी के लिए सरकारी सहायता के सख्त खिलाफ थे। ‘अपने इलाज के लिए मैं शुरू से ही, जब से बीमारी का पता चला, जनता के भरोसे रहना चाहता था। मुझे उम्मीद थी कि जनता मेरे इलाज के लिए पूरा खर्च जुटा देगी और मुझे इलाज के लिए किसी ऐसी संस्था, व्यक्ति या सरकार का मोहताज नहीं होना पड़ेगा जिन्हें मैं जनविरोधी मानता हूं।’
‘उत्तर उजाला’, ‘दि संडे पोस्ट’ और ‘हिंट’ अखबार उनकी पत्रकारिता के विभिन्न समयों के पड़ाव थे। निर्भीकता और निष्पक्षता उनके समाचारों – लेखों की पहचान थी। अखबारों के मालिकों के जो भी हित रहे हों ‘खड़कदा’ सामाजिक हित से कभी विमुख नहीं हुए। ‘किस्मत की ठोकर’ और ‘अंतिम उपहार’ (उपन्यास), ‘आदत जो बन गई’, ‘कमूली’ ‘और मैं बन गया’ (कहानी) उनकी चर्चित रचनाएं हैं। उनकी जीवनी के कुछ अंश ‘आशाऐं अभी शेष हैं’ धारावाहिक रूप में ‘दि संडे पोस्ट’ में प्रकाशित हुई थी।
‘खड़कदा’ बचपन से मृत्यु तक जीवन के सभी विकट मोर्चों पर अकेले ही लड़ाई लड़ते रहे। इस आशा के साथ कि जन आंदोलनों से मानवीय जीवन में सामाजिक समरसता और समानता का भाव कायम होगा। वे बच्चे की तरह हर नये आंदोलन से उम्मीद रखते कि इसके बाद समाज में जरूर सकारात्मक बदलाव आयेगा। आंदोलनों का पटाक्षेप होता पर ‘खड़कदा’ की उम्मीद आने वाले समय के लिए कायम रहती। वे अपने अग्रज नेताओं से फिर पूछते कि ‘जो तुमने लिखा और बोला वैसे सर्वहारा का राज कब आएगा?’ उनके अग्रज नेता बगलें झांकते क्योंकि अपने मन-मस्तिष्क में झांकने का ज्ञान – हुनर उनको भी नहीं था।
सार्वजनिक जीवन में ‘खड़कदा’ जैसे जमीनी कार्यकर्ता की जिज्ञासा और प्रश्नों का उत्तर आज़ भी समाज में अनुत्तरित है। परन्तु ‘खड़कदा’ जैसे सरल हृदय के संघर्षशील सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपने अग्रज नेताओं से आज भी पूछना नहीं छोड़ा है कि ‘जो सपने तुम दिखा रहे हो वैसा सर्वहारा का राज कब आएगा? ‘सूरज को तो उगना ही था’ (एक आत्मकथा) पुस्तक का प्रकाशन ‘इंडिपेंडेंट मीडिया इनीशिएटिव सोसायटी’ की ओर से अपूर्व जोशी जी ने वर्ष – 2007 में किया था। खड़क सिंह खनी जी अपनी इस आत्मकथा को पूर्णता नहीं दे पाए, क्योंकि 28 जुलाई, 2006 को रक्त कैंसर ने हमसे उन्हें छीन लिया था।
यह आत्मकथा खड़क सिंह खनी जी की है। परन्तु इसके हर पन्ने पर हम हमारे पहाड़ी जनजीवन के सच और भ्रम से सामना करते हैं। हमारे नैसर्गिक पहाड़ीपन पर कुरीतियों और कुव्यवस्थाओं का कुठाराघात किस हद हुआ? इसका आंकलन ‘खड़कदा’ ने अपनी आत्मकथा में किया है। किताब में ‘खड़कदा’ के संस्मरणात्मक लेख रोचकता के साथ आज के संदर्भ में प्रेरक हैं। पुनः अपूर्व जोशी जी को आत्मीय आभार। ‘खड़कदा’ को नमन।