आपदा चुनाव का मुद्दा क्यों नहीं ?
जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
अभी हाल ही में जर्मनी में चुनाव हुए. चुनाव का प्रमुख मुद्दा था जलवायु परिवर्तन. बाकायदा इसके लिये विपक्षी दलों व पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने इसके लिये बड़ा कैंपेन किया. दरअसल जर्मनी में बे मौसम की बरसात ने वहाँ बड़ी तबाही मचाई थी, इसके लिये जर्मनी की चासलर अंजिला मर्केल की पर्यावरणीय नीतियों को दोष दिया गया. पाठको को ज्ञात होगा की सूर्य उर्जा से बिजली पैदा करने वाले देशों में जर्मनी पहले पायदान पर है जो अतिरिक्त बिजली पडोशी देशों को बेचता है. खैर यहाँ जर्मनी का जिक्र इसलिए करना पढ़ रहा है की दुनिया के सबसे विकसित देशों में आज पर्यावरण चुनाव का मुद्दा बन चूका है. दूसरी ओर हमारे देश में आज भी हमारे चुनावी मुद्दे जात, पात, धर्म, सम्पर्दाय, भारत पकिस्तान की क्षदम लड़ाई से ऊपर नहीं उठ पाए है.
17 व 18 अक्टूबर की दो दिन की बारिश ने इतना कहर बरपाया की लगभग 60 से अधिक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. हमेशा की तरह मौसम विभाग को गरियाने वालों को इस बार मौका नहीं मिला क्यूंकि समय रहते विभाग के वैज्ञानिकों ने सटीक पूर्वानुमान लगाकर सरकार को चेता दिया था की राज्य में भरी से भरी बरसात का अंदेशा है. इसी के अनुरूप सरकार ने भे अनुपालन कर बच्चों के स्कूलों की छुट्टी कर दी. जिस तरह के हालात नैनीताल जनपद में देखने को मिला ऐसा कई दसकों बाद देखने को मिला. कल्पना नहीं कर सकते की नैना देवी मंदिर तक पानी पहुँच गया, माल रोड पानी से लबालब हो गयी और नैनी झील अपने किनारों को तोड़कर तूफ़ान मचाने लगी. अक्टुबर माह में इतनी तीव्रता की बारिश की संभावना नहीं देखि गयी थी. इसी तरह केरल में भी बारिश ने बहुत तबाही मचाई.
उत्तराखंड की लगभग हर नदी अपने उफान में बही हरिद्वार के भीमगोड़ा में गंगा नदी का जल अस्तर खतरे से ऊपर था. आल वेदर रोड किलोमीटर में बही, कई लोग पानी के जलजले में बहे तो कई मकान के नीचे दब गए. थराली चमोली से लेकर, नैनीताल, चम्पावत, अल्मोड़ा, टनकपुर के कई इलाकों में केवल दो दिन की बारिश ने आपदा का ऐसा मंजर फैलाया जिसका अनुमान न सरकार को था न आपदा विभाग को. दरअसल आपदायें ऐसे वक्त में ज्यादा नुकशान पहुंचाती है जब सब कुछ सामान्य दीखता है. सितम्बर माह तक बारिश का मौसम लगभग समाप्त हो जाता रहा है. लेकिन पिछले कुछ दसकों से जलवायु परिवर्तन का असर पूरी दुनिया सहित उत्तराखंड में भी दिख रहा है. अमूमन उच्च शिखरों में वर्षा की तीव्रता काफी कम होती है, लेकिन केदारनाथ व ऋषि गंगा के इलाकों में तीव्र वर्षा ने हिमनदों के पिघलने की रफ़्तार ऐसी बडाई की ये बड़ी आपदा के कारण बनने लगे. अब सवाल ये है की पिछले लगभग तीन दसकों से जवायु परिवर्तन के बारे में काफी चर्चा परिचर्चा हो रही है लेकिन सरकारों ने इस दिशा में कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाये? फिलहाल उत्तराखंड की बात हो रही है. उत्तराखंड की सरकारों की कौन से ऐसी नीतिगत पहल है जो यहाँ के लोगों को आपदा से सुरक्षित रखने की कुछ गारंटी देता हो.
उलेखनीय है की देश में पहला आपदा प्रबंध मंत्रालय उत्तराखंड में ही बनाया गया था. राज्य ने राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण केंद्र की पहल पर बनाया, जो सभी राज्यों को बनाना ही था. राज्य आपदा रिलीफ फोर्ष को भी बनाना ही था यूनिट बन भी गयी, आपदा के वक्त ये फोर्ष अपना योगदान भी करती आई है. राज्य में आपदा का एक इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार हो गया. यहाँ तक तो सब ठीक है मान भी लिया जाये, तो आखिर हर साल फिर आपदाओं की घटनाओं में कमी होने के बावजूद और बाद क्यों रही है? यही पर समझने वाली बात है. और यहीं पर सरकारों की नीति और निष्ठा पर प्रश्न चिन्ह लगता है. इसीलिए मैंने ये सवाल भी उठाया है की उत्तराखंड में आपदा या जलवायु परिवर्तन क्यों नहीं चुनाव का मुद्दा बन सकता है.
अब सिलसिलेवार जलवायु परिवर्तन और आपदा की कहानी को जानते हैं. राज्य में रिस्पना, बिंदाल, सोंग, तमसा, गोला, कोसी, रामगंगा जैसी अनेक चोटी बड़ी नदियों के किनारों पर हर साल झुग्गी बस्तियों को कौन बसता रहा है, कौन इन बस्तियों का सरकारीकरण करता रहा है. हर साल इनमें बाढ़ व बारिश से जो नुकशान होता है और राज्य का धन ख़त्म होता रहा है वो किन नीतियों का परिणाम हैं? राज्य में ऐसे इलाकों में जल विद्युत परियोजनाए बनायी जा रही है जो पर्यावरण के अनुकूल नहीं है उदाहरण के लिये मोरेंन के इलाकों में बांध बनाने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिये लेकिन इनको अनुमति कौन देता है इसके तार सीधे केंद्र से जुड़े हुए है. इन बांधों में ऋषिगंगा, मद्महेश्वर नदी पर बनायी जा रही उत्तराखंड पवार कोर्पोरेशन को छोटी परियोजनाएं जिन पर काम चल रहा था या है कुछ उदाहरण है. राज्य में छोटे बड़े बांधों की सुरंगों ने इनके आसपास की धरती को जर – जर बनाया है, लोगों को अपने गावं खेत खलिहान से महरूम होना पड़ा है और पलायन के लिये मजबूर होना पड़ा है. टीहरी बाँध इसका सबसे बड़ा उदाहरण सामने हैं.
उत्तराखंड के जोन 3- 4 -5 के इलाकों में हद से ज्यादा चौड़ी सड़क बनाने की प्रयावरण विज्ञान नीति क्या है? आज तक किसी की समझ में नहीं आया. आल वेदर रोड के नाम से बनायी जाने वाली इन सड़कों से निकले मलबे की भले सूखे गधेरों पर डंपिंग कर दी गयी हो लेकिन जिस तरह 2 दिनों की बारिश ने पोल खोल दी उसी तरह कभी ये सब मलबा नदियों में पहुँच गया तो ऋषिकेश, हरिद्वार से निचले इलाकों में तबाही का कैसा मंजर होगा कल्पनाकर ही रोंगटे खड़े हो जायेंगे. बरसात हो या गर्मी इन सडकों पर मौत कब आसमान से नहीं, खोदी गयी पहाड़ियों से टपक पड़े कुछ कहा नहीं जा सकता, इन सड़कों पर हर दिन कोई न कोई हादसे की घटनायें देखि सुनी जा रही है. क्या सड़क निर्माण नीतिगत मामला नहीं है. पहले तो सड़क चौड़ी करने का फरमान आता है और जब नुक्सान हो चूका होता है तब फैसला आता है की चौडाई कम की जायेगी.
अब तीसरे उदाहरण यानि रेल निर्माण को लेते हैं, इस बीच जो लोग गढ़वाल की यात्रा पर गए होंगे उन्होंने देख ही लिया होगा की मलेथा का जग प्रसिद्ध सिंचित खेत रेल स्टेशन की भेंट चढ़ गयी है ऐसी ही कहानी हर रेलवे स्टेशन की है लोग अपनी जमीनों से हाथ धो बैठे है. परियोजना में उनको मजदूरी का काम भी नहीं मिल रहा, पिछले दिनों रुद्रप्रयाग में लोगों ने आन्दोलन भे किया लेकिन जनता की कौन सुनता है. अधिकांश रेल ट्रैक जमीन के अन्दर बनाया जा रहा है वहाँ कितनी मात्र में विस्फोटक फोड़ा जा रहा है वह क्या बज्जुर पड़ रहा होगा सरकार ही जाने. लोगों के प्राकृतिक पानी के धारे पंदेरे सूख रहे है, मकानों पर दरारे पड़ रही, नए भुश्खलन क्षेत्र विकसित होंगे ये सब परियोजना के अतिरिक्त उत्पाद है. उत्तराखंड में विकाश का बाज़ार उफान पर है, हर योजना के साथ आपदा फ्री में मिलेगी. एक बात बार बार कल्पना में आ रही है कि जिस तरह कई – कई किलोमीटर लम्बी सुरंगों से रेल जायेगी तो क्या यह दिल व सांस के मरीजों के लिये उपयुक्त भी होगी की नहीं? इस पर विशेषज्ञों ने अवश्य विचार जरुर किया होगा.
अंतिम बात उत्तराखंड में देवस्थानम बोर्ड को लेकर लम्बे समय से धामों के पण्डे पुरोहित व हकुक्धारी आन्दोलन करते आये है. त्रिवेन्द्र सरकार के इस फैसले को बदलने के लिये उनके बाद के दो मुख्यमंत्रियों ने आश्वाशन भी दिए. धामी सरकार ने एकल सदस्य मनोहरकांत ध्यानी की समिति बनायी. ध्यानी ने देवस्थानम बोर्ड को भंग करने से मन कर दिया. मुख्यमंत्री धामी भी आश्वाशन देकर चुप बैठे है की पुजारियों की मांग पूरी होगी. दरअसल इस मांग पर निर्णय धामी को लेना है जिन्होंने अभी तक चुप्पी लगाई हुई है. इस बीच दिल्ही से खबर आई की राज्यसभा के सदस्य अनिल बलूनी ने कहा है की, देवस्थानम बोर्ड को समाप्त करने पर पार्टी ने निर्णय ले लिया है. गजब की बात ये है की ये खबर मुख्यमंत्री के दरबार से नहीं आयी. अब इसमें कितनी सच्चाई है भगवान् ही जाने.