एक फिल्म – जय भीम
सुनीता मोहन
एक फिल्म, जिसके कथानक का ज़िक्र होना ही चाहिए- जय भीम, इस फिल्म को देखने के दूसरे ही दिन कासगंज के अलताफ़ की जेल में जिन परिस्थितियों में खुदकशी की ख़बर सुनी, तो यकीन हो गया कि यह फिल्म सिर्फ तमिलनाडू के उपेक्षित ईरूला समाज पर की गयी पुलिस बर्बरता की कहानियां ही नहीं कहती बल्कि यह फिल्म, फिल्म में दर्शायी गयी घटना के लगभग तीन दशक बीत जाने के बाद भी, आज के न जाने कितने ही ईरूला समाजों के कितने ही राजकन्नूओं, सेंघनियों और उनके परिवारों पर की जा रही पुलिस-प्रशासन-सरकार-समाज की न जाने कितने प्रकार की ज्यादतियों को एक साथ प्रतिध्वनित करती है।
विद्यार्थी जीवन में वामपंथी आन्दोलन में सक्रिय, पेशे से वकील और बाद में तमिलनाडू के उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रहे जस्टिस चंद्रू द्वारा लड़े गये एक केस पर आधारित इस फिल्म में जातिगत विषमता के साथ ही गरीबी, शोषण, अशिक्षा, राजनीतिक स्वार्थ, भ्रष्टाचार, अन्याय जैसी सामाजिक विद्रूपताओं की बहुत सारी परतों को उघेड़ा गया है और इनके विरूद्ध लड़ाई में ‘साम्यवादी चेतना, पेरियार और अम्बेडकर का प्रभाव’ मूल अस्त्र हैं। पूरे पार्श्व में मार्क्स, लेनिन, पेरियार, अंबेडकर की तस्वीरें सिम्बॉलिक तरीके से वर्ग संघर्ष के साथ वैचारिक प्रतिबद्धता को भी दर्शाती हैं। अपनी विशिष्टताओं के कारण ये फिल्म, जातिगत भेदभाव जैसे मुद्दों पर बनी दूसरी बेहतरीन फिल्मों से अलग है। इस प्रकार की एक अति साधारण और नॉन ग्लैमरस रिवॉल्यूशनरी फिल्म बनाना कम से कम इस दौर में तो साहस भरा है ही, जिसके लिए इस फिल्म की पूरी टीम की प्रशंसा की जानी चाहिए।
सुना है, इस फिल्म के पूरे निर्माण में जस्टिस चंद्रू की व्यक्तिगत उपस्थिति रही है और इस फ़िल्म में दिखाई गई घटना के साक्ष्य भी इतिहास में दर्ज़ हैं, शायद इसीलिए कुछ काल्पनिक इनपुट और फेरबदल होने के बाद भी यह फिल्म अपनी बात ईमानदारी से कह पाई है। इस फिल्म को देखकर मुझे याद आते हैं, नागार्जुन, जो कहते हैं- रोज़ी, रोटी, हक की बातें, जो भी मुंह पर लाएगा, कोई भी हो, निश्चय ही वो कम्यूनिस्ट कहलाएगा।
बहुत कम फिल्में होती हैं, जो आपके कन्धे पकड़कर आपको झकझोरती हैं, जिसके कुछ दृश्य आपके दिलो दिमाग़ में इस कदर रेंगते हैं कि, आप सो नहीं पाते, यह ऐसी ही एक फिल्म है। एक दृश्य जिसका फिल्मांकन निश्चित रूप से बहुत कठिन रहा होगा, जब पुलिस राजकन्नू की खोज में जबरन उसके एक रिश्तेदार को गाड़ी में डालकर ले जाती है, तो गाड़ी के पीछे उसकी पत्नी दौड़ते हुए जाती है और हारकर रोने लगती है तभी उसके पीछे से दौड़ता हुआ उसका बहुत छोटा बच्चा बिलखते हुए उसके पास आता है और मां के कन्धे पर हाथ रखते हुए रोता है, मां-बेटे की इस इकसार रूलाई देख मुझ जैसे दर्शक के भी आंसू झरने लगते हैं।
ऐसे ही एक दृश्य में, बारिश की तेज बौछार में राजकन्नू और सेंघनी की झोपड़ी की दीवार का ढह जाना, अतिश्योक्ति नहीं लगता, क्यूंकि ऐसी खबरें तो हमारे ही शहर में हर बरसात में घटती रहती हैं, मगर कौन है जो नालों के किनारे बसी उन ज़िन्दगियों, उनके कच्चे घरों की टूटती दीवारों-छतों का हिसाब रखे? ‘अवैध बस्ती’ के टैग लगे उन घरों और उनमें रहने वालों के प्रति संवेदनाशून्य हैं हम! सरकारी बजट में निर्माण कार्य के नाम पर अरबों धूसर हो जाता है, लेकिन उस वंचित गरीब के हिस्से आज भी एक अदद छत नहीं! वो अपने होने की पहचान भर से भी मोहताज़ रह जाता है! और भी न जाने कितने गम्भीर प्रश्नों को उठाती है ये फिल्म, जिन पर चिन्तन किया जाना चाहिए।