डंडयाली में आपका स्वागत
डॉ. एम.पी.एस. बिष्ट
आज इस बात से आपको भी बड़ी ख़ुशी होगी यह जानकर कि अपने उत्तराखण्डी पकवानों को राजधानी के आसपास लगभग सभी रिजार्ट्स, होटल यहाँ तक कि तारांकित होटलों में अच्छी ख़ासी पहचान मिल चुकी है। मुझे याद है पहले कभी जब भी मैं देहरादून आता था तो ले दे कर एक ही होटल राजपुर रोड पर होता “गढभोज“ या सहस्त्रधारा रोड पर “तेरा गाँव” या फिर कभी कभार गढ़वाल मण्डल के “ द्रोण” होटल में कुछ चुनिंदा पहाड़ी खाना मिल ज़ाया करता था। परन्तु जबसे कोरोना के चलते बहुत से बच्चे देश-विदेश से अपने घर वापस लौट कर आये तो उनके अन्दर अपने पहाड़ी भोजन को अलग-अलग तरीक़ों से परोसने की होड़ सी लग गई है। ये बड़ी अच्छी बात है। और हो भी क्यों नहीं? आख़िर जब हम हैदराबाद जाते हैं तो मजबूरन इडली-डोसा, सांबर, वडा आदि पर ही निर्भर रहते हैं, गुजरात में गुजराती १५-२० छोटी छोटी कटोरियों वाली थाली कि लिये लालायित रहते हैं तथा गोवा में सी फ़ूड खा कर गुज़ारा करना पड़ता है।
तो हमारे इन नौनिहालों ने सोचा कि क्यों न हम भी अपने विभिन्न पौष्टिकता से भरपूर सुन्दर व स्वादिष्ट पकवानों से बाकी देश-विदेश के लोगों को परोस कर आकर्षित करें और आपको आनन्द तब और भी अधिक आता है जब इन रेस्टोरेंटों के नाम भी अपने गाँव की याद ताज़ा कर देती हैं, जैसे ~ डन्डयाली, काफल, बुरांस, रिंगाल, ग्वीर्याल, घुघुती, मोनाल इत्यादि। परन्तु जो भी है हर जगह अच्छा ख़ासा विजनिस चल पड़ा है दोस्तों। और लोगों की आर्थिक स्थिति भी मज़बूत हो रही है। अब तो धीरे-धीरे इस खाने को सभी क्षेत्रों के लोग पसन्द भी करने लगे हैं। यहाँ तक कि बहुत सारे बेकरी या मिठाई की दुकानों में विभिन्न प्रकार के बिस्कुट, केक, मफ़िन और चॉकलेट्स भी मिलने लगे हैं। ज़्यादातर परचून वाले पहाड़ी नाज़ रखने लगे हैं और तो और पहाड़ी ऑर्गनिक प्रोडक्ट के एक्सक्लूसिव आउटलेट भी मार्केट में बहुत सारे खुल चुके हैं।
वैसे तो पुराने पीढ़ी के लोग अपने इन पकवानों का आनंद कभी कभार गाँवों से दूर अपने शहरी घरों में शायद लेते रहे होंगे। परन्तु अब देखने में आ रहा है कि जिन बच्चों को गाँव की कम जानकारी है वे भी परिवार के साथ सामूहिक रूप से इसका स्वाद लेने लगे हैं। परन्तु इस बात में भी कोई शक नहीं कि राजनीतिक स्तर पर भूतपूर्व मुख्यमंत्री माननीय श्री हरीश रावत जी ने अपने इन पहाड़ी नाज़ों को विशेष महत्व दिया है उनके काफल, भुट्टा अर्सा, आम व कखडी पार्टी को मीडिया जगत में काफ़ी स्थान मिला और बाद में माननीय श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत जी पूर्व मुख्यमंत्री ने भी विभिन्न कोऑपरेटिव सोसाइटी के माध्यम से इसे आगे बढ़ाने का पूरा प्रयास किया है।
जिस झंगोरे को कभी कोई पूछता तक नहीं था वह आज २३५ रुपये प्रति किलो मिल रहा है। कौंणी तो मैंने कई वर्षों से देखा ही नहीं। गहथ, भट, ओगल, राजमा, फाफर, तोर, रयांस, छेमी अन्य दालों के मुक़ाबले बहुत महँगे दामों पर मिल रहे हैं। लगता है कि अब जल्दी फिर से वो समय आने वाला है कि लोग अपने बंजर पड़े खेतों की ओर लौटेंगे और विलुप्त होती हमारी “बारह नाजा ” संस्कृति को पुनर्जीवित करेंगे।
मेरा मानना है कि आज इसको बढ़ावा देने की अति आवश्यकता है। हमारी सरकारों को चाहिए कि बजाय हर गाँव में जिम खोलने जैसे बेकार की चीज़ें न करके हर गाँव को जनसंख्या के अनुपात में बंजर भूमि को आवाद करने के लिये कुछ “पॉवर ट्रिलर “ जैसे महत्वपूर्ण कृषि उपकरण फ़्री में देने चाहिए ताकि गैर आवाद भूमि को उपजाऊ बनाया जा सके तथा बच्चों की शारीरिक स्वस्थता भी बढ़ाई जा सके।
मैं बहुत समय से घर पर ही अलग अलग पकवानों को पत्नी के साथ मिल कर बना रहा था, आज सोचा दोस्तों के साथ शहर से बाहर देखा जाये कि कहाँ विशेष है। पता चला डोईवाला-थानों क्षेत्र के सेरियों गाँव में श्री अरविंद नैथानी जी ने अमेरिका की किसी बड़ी कम्पनी की नौकरी को छोड़ कर एक सुन्दर सा होटल Home Stay cum Restaurant “Dandiyaali ~ The Organic Restaurant“ के नाम से खोला है । बस फिर क्या था छुट्टी का आनंद लेने पहुँच गये हम तीनों (छोटे भाई शैलेंद्र नेगी व दिनेश सिन्धवाल)। गाँव के बीच में खुले खेतों के मध्य जैसे रेस्टोरेंट के गेट पर पहुँचे तो लकड़ी के एक पुराने से तिबारी के खम्बों के सामने गढ़वाली में खूब सारे आकर्षक स्लोगन लिखे हैं।
बस वहीं पर मुझे भी एक पुराना प्रचलित पहाड़ी वाक्यांश याद आया~ “गौं कु सगोर दिखेन्दु बल गल्या भिटे”
वास्तव में ला जवाब!
सुन्दर व स्वादिष्ट पकवान!
गाँव के पुराने भांडे वर्तनों का संकलन!
घर्या कूडि, खटुला व पीढा!
और वो सब जो आपको अपने गाँव की यादों में खो दे। नायाब उदाहरण पेश किया है नैथानी जी ने और अतिथि सत्कार का तो क्या कहने! बस एक ही शब्द है मेरे पास उनके लिये ~“तहे दिल से शुक्रिया”