राज्य स्थापना दिवस के बहाने
सोमवारी लाल सकलानी ‘निशांत’
उत्तराखंड राज्य बने हुए 21 वर्ष हो चुके हैं। आज ही के दिन जब उत्तराखंड राज्य का निर्माण हुआ तो एक लंबी हसरत के बाद जनमानस ने कई सपने संजोए थे कि अपना उत्तराखंड राज्य मिलेगा, रोजगार सृजन होगा, आर्थिकी सुधरेगी, व्यापार में बढ़ोतरी होगी, जीवन स्तर सुधरेगा, प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपना स्वर्ग सदृश्य उत्तरांचल होगा। अप संस्कृति की जगह अपनी सनातन संस्कृति का विकास होगा । पर्यटन- तीर्थाटन और रोजगार में समन्वय स्थापित होगा।
एक सामान्य व्यक्ति की तरह सपने प्रत्येक ने देखे थे। इन 20 वर्षों में हमने क्या खोया और क्या पाया ? इस पर दृष्टिपात करें, तो जीवनस्तर और सुविधाओं के सुधार के साथ-साथ राजनीतिक और सांस्कृतिक शून्यता भी बढ़ती गई। नैराश्य भावना मन में उत्पन्न होने का मुख्य कारण युवा वर्ग के अंदर जीवन यापन के संसाधनों की कमी, नौकरियों का अभाव रहा है। बौद्धिक वर्ग के अंदर कुंठा बढ़ी है। भाई- भतीजावाद में वृद्धि और राजनीति में ठेकेदारी प्रथा का प्रचलन हुआ है। धन उपार्जन और मैदानी संस्कृति का मोह अधिक पाया गया है ।
उत्तराखंड आंदोलन जब अपने चरम पर था तो स्वर्गीय इंद्रमणि बडोनी जी के नेतृत्व में आंदोलन हो रहा था। शांतिप्रिय और प्रजातांत्रिक आंदोलन को कुचलने के लिए तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई कमी नहीं छोड़ी। मसूरी कांड, खटीमा कांड, श्रीयंत्र टापू कांड, अनेक प्रकार के उत्पीड़नात्मक कार्यवाहियां, तत्कालीन सरकार ने की। उस दौर में भी हमारे उत्तराखंड के कई राजनेताओं ने तो यहां तक कह दिया था कि उत्तराखंड उनकी लाश पर बनेगा लेकिन जब उत्तराखंड बन गया तो सत्ता के सर्वोच्च पद पर बैठने में भी कोई संकोच नहीं किया। उत्तराखंड के आंदोलन में जो उत्तर प्रदेश सरकार के माथे पर सबसे बड़ा कलंक लगा, वह गांधी जयंती के दिन 02 अक्टूबर को मुजफ्फरनगर कांड के नाम से हमेशा पीड़ा पहुंचाता रहेगा। उस काले अध्याय को भूल जाना ही बेहतर है क्योंकि उसको याद करने से दर्द के अलावा इतने वर्षों में भी कुछ और नहीं मिला।
09 नवंबर 2000 की रात बहुत ही खुशी देने वाली थी जब उत्तरांचल का जन्म हुआ। उसके बाद सरकार की ओर से विद्यालयों, अस्पतालों आदि की व्यवस्था की गई। रोजगार के लिए पुलिस विभाग में भर्तियां की गई । शिक्षामित्र, शिक्षा बंधु जैसे कार्यक्रम सुनिश्चित किए गए। इनको केवल हम सरकार की आंशिक उपलब्धि मान सकते. एक बार मैंने एक पत्रिका में प्रख्यात लेखिका श्रीमती गौरा पंत जी (शिवानी) का एक लेख पढ़ा था जिसमें उन्होंने आगाह किया था, “सत्ता के लिए राज्य प्राप्त की सोच नहीं होनी चाहिए बल्कि विकास कार्य और उन्नत राज्य निर्माण हेतु सत्ता प्राप्त की जानी चाहिए ” उस महान लेखिका की बात आज भी मेरे मन में बार-बार आती रहती है ।
प्रख्यात शिक्षाविद डॉक्टर गोविंद चातक जी ने एक बार आगाह किया था कि कहीं ऐसा ना हो कि नए राज्य के जन्म के साथ ही राजनीतिक और सांस्कृतिक शून्यता बढ़ जाए ! उन्हीं के शब्दों में,” जो निरीह उपेक्षित जन हैं, उनका कोई सुनने वाला नहीं है। वोटों पर आधारित राजनीति जनसाधारण को खरीदकर माल समझते हैं। उम्मीदवार उच्च वर्ग के होते हैं और ज्यादातर मतदाता निचले वर्गों के। नेता उनको बड़े-बड़े नारे और आश्वासन मात्र देते हैं। वह अपने भाषणों में लोगों को गांव में जाने को कहते हैं, लेकिन खुद शहरों में रहते हैं। कहते हैं, उत्तम खेती पर खुद गांव के गांव साफ कर जमीन बेचने का धंधा करते हैं। बात देश की अखंडता के करते हैं पर जब रेवड़िया बांटनी होती हैं तो खंडों में बांटते हैं”। इस प्रकार से एक महान शिक्षाविद ने यह बात उत्तरांचल निर्माण से पूर्व भी कही थी जिसको आज भी हम प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अब भी देख रहे हैं।
डॉक्टर गोविंद चातक एक दृष्टा लेखक थे । वह अपनी बातें बेबाकी से कहते थे। एक बार मैंने उनको पढ़ा था कि राजनीति की सांस्कृतिक शून्यता हमारे सामाजिक और व्यक्ति जीवन को बुरी तरह प्रभावित करने लगी है। आज जीवन या तो नव धनाढ्यों के इशारे पर चल रहा है या असंस्कृत राजनीतिज्ञों के। वे उसके उचित संवर्धन के लिए परिस्थितियां पैदा करने की अपेक्षा ऊपर से अपसंस्कृति पर बरदहस्त किए रहते हैं। गांधी जी ने अपने युग में नई राजनीतिक संस्कृति निर्मित की थी या यूं कहना चाहिए कि उन्होंने संस्कृति में जनशक्ति के स्रोत ढूंढे थे। कमोबेश इस प्रकार के अनेक दृष्टांत हमें पढ़ने को मिल जाते हैं या हम अनुभव करते हैं।
डॉक्टर गोविंद चातक ने एक अन्य स्थल पर लिखा था,” आज राजनीति और संस्कृति दोनों भ्रष्ट हो गई हैं। दोनों को भ्रष्ट करने वाले कारक एक जैसे हैं। किंतु राजनीति चूंकि सत्ता पर आधारित है, इसलिए वह सब क्षेत्रों और आयामों में समाज पर राज कर रही है। रामलीला से लेकर काव्य समारोहों, यात्राओं तथा उद्घाटनों तक में उनका बोलबाला है। इन हरकतों से संस्कृति की जड़ों पर उसका आधिपत्य हो रहा है। भौतिक साधनों के स्वामी बन जाने के कारण सत्ता का पिछलग्गू बनने के उद्देश्य से नव धनाढ्य वर्ग ने संस्कृति का दामन पकड़ लिया है”।
गोविंद चातक के समान ही अनेक ऐसे बुद्धिजीवी वर्ग का नेतृत्व करने वाले लोग हैं। लेकिन हम उनकी नसीहतों को मात्र शब्द समझ बैठते हैं। उन पर अमल नहीं करते हैं। यदि अमल किया जाए, तो यह हमारा छोटा सा राज्य राजनीतिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और आर्थिक रूप से वास्तव में प्रेरणा स्रोत बन सकता है। उत्तराखंड राज्य के विकास के बारे में एक बार में मैं प्रख्यात पर्यावरणविद श्री कामेश्वर प्रसाद बहुगुणा जी का लेख पढ़ रहा था। उस लेख में उन्होंने एक परिभाषा दी थी “The process of enhancement or evolution of daku alternative contras of the inner qualities of belief, incident or state is called development.”
अगर हिंदी में कहें तो,” किसी वस्तु घटना अथवा किसी की आंतरिक गुणात्मकता के समन्वयात्मक संदर्भों में वृद्धिगत प्रक्रिया विकास कही जाती है”। उसी दौर में एक अन्य विद्वान प्रभात उप्रेती जी ने उत्तराखंड राज्य के बारे में लिखा था, ” राजनीतिक व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था पर आधारित है और सामाजिक व्यवस्था को समाज में रहने वालों के दृष्टिकोण मूल्यों में नहीं मिलते हैं। जीवन मूल्य बाजार में नहीं जो खरीदे या बेचे जा सकते। जीवन को सहज रूप में जी लेने का अर्थ ही मूल्य है। मूल्य मत नहीं यह तो जीने की पद्धति है। सहज रूप में जीने का अर्थ ही मूल्य है “। श्री उप्रेती जी आगे कहते हैं ,”आज यदि उत्तराखंड पूंजीपतियों और अय्याश घर बन जाता है, गांव शहरों में बीड़ी पीते, दारू पीते लोगों की तादाद बढ़ती रहती है, ग्लेशियर हर साल के सिकुड़ते हैं, जंगल घटते हैं, उत्तराखंड बेचने वालों के प्रति सब तटस्थ हो जाते हैं, तो क्या आने वाला उत्तराखंड राज्य उत्तर प्रदेश राज्य की कार्बन कॉपी नहीं होगा ?
समय-समय पर बौद्धिक वर्ग ने पहाड़ के दर्द को समझा, सोचा और लोगों के अंदर एक चेतना जागृत की। पहाड़ के दर्द को उन लोगों ने मानवता का दर्द बताया और कहा कि उत्तराखंडी अपनी भौगोलिक सीमा की तरह बिखरे विभाजित हैं। उनकी आत्मा पीड़ा गहराई हुई है। वह सड़कों से नहीं, चोटों से व्यथित हैं।उनके सहज, सरल जीवन जीने की इच्छा पर भी डाका पड़ा है। उत्तराखंड राज्य बिना तैयारी अपने सामाजिक व्यवस्था, सांस्कृतिक धरोहर को लिए बिना बना, तो वह और क्रूर होगा। शक्ति का केंद्रीय करण सीमित स्तर पर उच्च रक्तचाप की अवस्था को जन्म देगा”।
उत्तराखंड राज्य के जन्म से पूर्व वीरेंद्र पैन्यूली जी ने अपने एक लेख “पहाड़ में पहाड़ सी जिंदगी” मे लिखा था, “उत्तराखंड की महिलाओं की, अपने अनुभव व निष्पक्ष विशिष्टताओं पर कही गई बातें, जमीन से जुड़ी होती हैं और वह उत्तराखंड के लिए महत्वपूर्ण होती हैं। पहाड़ की विकास परियोजनाओं के संदर्भ में वे कहते हैं, ” जिस योजना में घास, लकड़ी ,पानी का ख्याल नहीं रखा गया, वह योजना अंधी है। इसलिए महिलाओं की सहभागिता हो। विकास कार्यों में महिलाओं की भूमिका तथा उत्तराखंड में वैकल्पिक विकास की अवधारणा को जमीन पर लाना सुसंगत हो।
श्री अवध बिहारी पंत जी ने 90 के दशक में अपने एक लेख ‘हमारे सपनों का उत्तराखंड, कैसे लागू करवा पाएगी जनता अपनी नीतियां’? के संदर्भ में लिखा था,” उत्तराखंड की जनक्रांति ने उत्तराखंड के बुद्धिजीवियों को सोचने के लिए बाध्य कर दिया है कि वह यह भी स्पष्ट करें कि उत्तराखंड के लोग कैसा उत्तराखंड चाहते हैं? यह देश भर में बनने वाले अन्य राज्यों की भांति यहां भी एक और राज्य बनाकर भारत संघ के प्रांतों की संख्या में एक और अंक की वृद्धि मात्र करने की लड़ाई नहीं है? वास्तव में घायल हिमालय के दर्द ही इस आंदोलन का दर्द है। इससे पहले से ही घायल हिमालय पर हो रहे या संभावित आक्रमक विकास की निर्मम प्रहार उत्तराखंड के आक्रोशों के कारण का मूल है। इसलिए हिमालय के रक्षा करना मानव जाति के रक्षा का पर्याय है। देर से ही सही नियोजन की व्यवस्था होनी चाहिए। सभी संवेदनशील लोगों को, स्थाई संगठनों की ऐसी संरचना करनी आरंभ कर देनी चाहिए जो उत्तराखंड में ऐसी राजनीतिक शक्ति को पनपने न दें जो हमारे सपनों का उत्तराखंड के परिकल्पना को सार्थक होने में किसी भी प्रकार बाधक हो सकती है। ऐसे राजनीतिक शक्तियों का सतत प्रतिरोध करने के लिए जनता को सदैव आंदोलित के रहना उतना ही आवश्यक है। जितना उत्तराखंड के विकास की नीति तय करना”।
इसी कड़ी में आगे बढ़ते हुए हैं हम धर्मानंद उनियाल ‘पथिक’ जी के विचारों को भी याद करते हैं जो कि उन्होंने उत्तराखंड के आर्थिक सवालों के समाधान हेतु पर्यटन के महत्व पर बल देते हुए प्रस्तुत किए थे। उनके अनुसार, “पर्यटन का सीधा अर्थ है भ्रमण करना, घूमना है या सैर सपाटा करना किंतु पर्यटन का अर्थ निरर्थक घूमना नहीं है। पर्यटन उद्देश्य पूर्ण होता है। अंग्रेजी भाषा में इसे टूरिज्म से अभिहित किया जाता है। उत्तराखंड में पढ़े लिखे युवाओं को इस में पहल करनी चाहिए। होटल परिवहन पथ, पर्वतारोहण के क्षेत्र एवं फोटोग्राफी में पदार्पण कर उन्हें उद्योग के रूप में स्वीकार करके स्वयं अपनी रोजी-रोटी का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। सरकार को चाहिए कि वह युवाओं का आर्थिक सहयोग करें जिससे वह अपने ही घर में रोजी रोटी का समाधान ढूंढ सके। इससे पलायन भी रुकेगा “। कमोबेश श्री धर्मानंद उनियाल जी की यह बात आज भी प्रसांगिक है और धरातल पर दिख भी रही है। कोरोना महामारी के कारण तो यह बात सार्थक भी सिद्ध होती नजर आ रही है ।
अतः उत्तराखंड राज्य स्थापना दिवस पर हम केवल एक दूसरे को शुभकामनाएं और बधाइयां देते हुए रस्म अदायगी ही न करें बल्कि एक गंभीर चिंतन के द्वारा उत्तराखंड का समग्र विकास किस प्रकार हो? यहां की राजनीतिक सोच किस प्रकार से हो? उत्तराखंड की दशा और दिशा किस प्रकार की हो? देवभूमि के अनुरूप तीर्थाटन और पर्यटन के महत्व को बढ़ावा किस प्रकार दिया जाए? आर्थिकी के क्या स्रोत हो? सर्वहारा वर्ग के विकास की ओर सरकार किस प्रकार ध्यान दें? सांस्कृतिक शून्यता किस प्रकार से समाप्त की जाए? इन अनेक पहलुओं पर भी विचार करना लाजमी है। उत्तराखंड की अधिकांश भूमि वनाच्छादित और पर्यटन के अनुकूल है। उसका किस प्रकार सुनियोजित प्रबंधन किया जाए? किस प्रकार से हम अपने लाखों युवाओं को रोजगार मुहैया करा सके? इन बातों पर भी गौर करना बहुत जरूरी है।
सत्तासीन लोगों को चाहिए कि वे बौद्धिक, सांस्कृतिक तकनीकी और आर्थिकी के विशेषज्ञों का समय-समय पर सहयोग ले। यह कोई जरूरी नहीं है कि वह लोग डिग्री धारक ही हों। क्षेत्रीय स्तर पर भी यह पहल की जानी चाहिए और फिर समग्र रूप से नीति बनाकर के प्रदेश में लागू की जानी चाहिए। उत्तराखंड राज्य बन जाने के बाद यहां हर वर्ग के मनीषियों के दिमाग में यह नहीं कि उत्तराखंड की प्रगति का विचार नहीं आया हो, 25 नवंबर 2000 को देहरादून की एक गोष्ठी में पुलिस सेवा से सेवानिवृत्त उपमहानिरीक्षक डॉ गिरिराज शाह (हमारे उत्तराखंड शोध संस्थान के संस्थापक) ने एक बार कहा था “उत्तरांचल में पर्यटन को विकसित करने के लिए सूचना तंत्र का होना अति आवश्यक है। आध्यात्मिक पर्यटन को बचाना चाहिए। होटल व्यवसायियों को भी जोड़ना चाहिए। स्वच्छता और पुलिस को जनता की कठिनाइयों से जोड़ना होगा। उत्तराखंड में शराब के बढ़ते कदमों को रोकना होगा। जड़ी बूटियों के संरक्षण पर विशेष बल देना होगा। खेलों का विकास करना है। जैसे रिवर राफ्टिंग, ग्लाइडिंग, स्नोबोर्डिं, इस्कीइंग, ट्रैकिंग, नौकायन आदि। आध्यात्मिक पर्यटन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। तुलसी, बट, अशोक, आंवला, पारिजात, बेल, पीपल के पौधों /वृक्षों का संरक्षण किया जाना चाहिए। पॉलिथीन जो कि अभिशाप है, उसकी जगह कागज की थैलियों का उपयोग, नए-नए स्थलों को विकसित करना चाहिए”। इस प्रकार तमाम बातें अनेक मनीषियों ने समय-समय पर सभा और गोष्ठियों के द्वारा भी जन जागरूकता के रूप में कहीं हैं । हमें उन पर भी ध्यान देना चाहिए और अमल करना चाहिए जिससे उत्तराखंड राज्य स्थापना का सपना जो हमारे आंदोलनकारियों, बौद्धिक वर्ग और जनप्रतिनिधियों ने देखा था, वह साकार हो और उत्तराखंड देश का एक अग्रणी राज्य के रूप में हर क्षेत्र में जाना जाए।