November 23, 2024



पहाड़ की संवेदनाओं के कवि

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चारू तिवारी


हमारे कुछ साथी उन दिनों एक अखबार निकाल रहे थे। दिनेश जोशी के संपादन में लक्ष्मीनगर से ‘शैल-स्वर’ नाम से पाक्षिक अखबार निकल रहा था। मैं भी उसमें सहयोग करता था। बल्कि, संपादक के रूप में मेरा ही नाम जाता था। यह 2004 की बात है। हमारे मित्र शिवचरण मुंडेपी कर्इ लोगों से परिचय कराते थे। उन्होंने मेरा परिचय एक ऐसे व्यक्ति से कराया जो गढ़वाली भाषा का चलता-फिरता ज्ञानकोश थे। उनका नाम था- नत्थी प्रसाद सुयाल। सुयाल जी का गढ़वाली भाषा के प्रति समर्पण और श्रद्धा देखने लायक थी। उन्होंने गढ़वाली भाषा के प्रचार-प्रसार के लिये बहुत काम किया।

उन दिनों उन्होंने डंडरियाल जी के कविता संग्रह ‘अंज्वाल’ को बड़े मनोयोग से नये कलेवर में प्रकाशित किया था। यह संग्रह भी उन्होंने मुझे दिया। उनका असमय निधन हो गया था। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि देते हुये कृतज्ञता प्रकट करता हूं कि उन्होंने एक कालजयी रचनाकार के साहित्य से परिचय कराया। गढ़वाली भाषा और साहित्य को जानने-समझने का रास्ता भी सुझाया। सबसे पहले शिवचरण मुंडेपी जी ने कन्हैयालाल डंडरियाल जी के साहित्य से गहरार्इ से परिचय कराया। उनकी कविताओं का हिन्दी में अनुवाद कर बताया। डंडरियाल जी की उपलब्ध पुस्तकें ‘चांठो का घ्वीड़’, ‘नागरजा’, ‘कुयेड़ी और ‘मंगतू’ भी मुझे दी।


कन्हैयालाल डंडरियाल जी मिलने का सौभाग्य नहीं मिला। हां, उनका उपलब्ध साहित्य जरूर पढ़ा। मैं गढ़वाली बोल नहीं पाता, लेकिन पढ़ता लगातार हूं। कोर्इ शब्द या भाव समझ में नहीं आया तो साथी बता देते हैं। कन्हैयालाल डंडरियाल जी का जन्म पौड़ी जनपद के मवालस्यूं पट्टी के नैली गांव में 11 नवंबर, 1933 में हुआ था। वे बीस वर्ष की अवस्था में रोजगार की तलाश में दिल्ली आ गये थे। बताते हैं कि उन्होंने 16 वर्ष की अवस्था से ही चूते-चप्पल पहनना छोड़ दिया था। दिल्ली आकर वे बिड़ला मिल में नौकरी करने लगे। बाद में कंपनी बंद होने से बेरोजगार हो गये। उन्होंने अपने परिवार के भरण-पोषण के लिये चाय बेचने का काम किया। जिन भी लोगों से कन्हैयालाल डंडरियाल जी के बारे में बात होती है वह यही बताते हैं कि कंधें में चाय की पैकेटों का थैला लटकाये घर-घर नंगे पैर जाते थे। गर्मी, बरसात या सर्दी हर मौसम में वे अपने काम को बड़ी शिद्दत के साथ करते मिलते। उनके अंदर समाज को जानने-समझने और गहरी संवेदनाओं के साथ आमजन की पीड़ा को रखने की चेतना भी इन्हीं संघर्षो से आर्इ।


गढ़वाली भाषा और साहित्य को एक उच्च मुकाम तक पहुंचाने में कन्हैयालाल डंडरियाल जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। गढ़वाल के प्रति उनकी अगाथ श्रद्धा और प्रतिबद्धता को उनके पूरे साहित्य में देखा जा सकता है। यह समर्पण उनके लिखने में ही नहीं, बल्कि व्यवहार में भी था। उन्होंने व्यक्तिगत स्वार्थ, राग-द्वेष और बिना किसी पूर्वाग्रह के जीवन मूल्यों, जीवन दृष्टि, व्यथा-वेदना, जनसरोकार, हर्ष, पीड़ा, संघर्षों को केन्द्र में रखकर उत्कृष्ट, उदात्त और जीवंत साहित्य की रचना की। कर्इ बार वह व्यंग्य के रूप में भी उभरकर सामने आती है। उनके लेखन में सामयिक चेतना साफ दिखार्इ देती है। दूरदृष्टि भी। उनके लेखन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह पाठकों को बहुत गहरे तक प्रभावित करता है। बहुत संवेदनाओं के साथ। वह उन रचनाओं को अपने आसपास में ढूंढता है। उसे वह मिलती भी है। अपने इर्द-गिर्द या खुद अपने में। उनके लेखन में जीवन के सच को पहचानने और स्वीकारने की चेष्टा दिखार्इ देती है। वे आमजन की बहुत बारीक कथ्य और भाव को खूबसूरती के साथ व्यक्त करते थे।

प्रकाशित रचनायें  


‘मंगतू’ खंडकाव्य, ‘अज्वाल’ कविता संग्रह, ‘कुयेड़ी’ (गीत संग्रह), ‘नागरजा’ (महाकाव्य भाग -1) ‘चौठो की घ्वीड़’ (यात्रा वृत्रांत), ‘नागरजा’ (महाकाव्य भाग-2)

‘अंज्वाल’ (कविता संग्रह), ‘नागरजा’ (महाकाव्य भाग-3 व 4)




अप्रकाशित रचनायें

‘बागी उप्पने लड़े’ खंडकाव्य, ‘उडणी गण’ खंडकाव्य, ‘कंसानुक्रम’ नाटक (मंचित), ‘स्वयंवर’ नाटक (मंचित), ‘भ्वीचल’ नाटक (मंचित), ‘अबेर च अंधेर नी’ नाटक, ‘रुद्री’ उपन्यास।

उनकी कुछ रचनाओं पर नजर-

उल्यरि जिकुड़ी

दादु म्यरि उल्यरि जिकुड़ी।

दादु मैं परबतू को वासी।।

दादु म्यरु सौंजड्या च कप्फू।

दादु म्यरि गैल्या चा हिलांसी।। झम।

दादु छौं नागिण्यूं संग्यत्या।

अटुगु मि घ्वीड़ का दगड़ा।।

दादु रौं रौंत्यला बगू मां।

खेलु मि गंगा का बगड़ा।। झम।

छायो मैं बा जि को पियारो।

छायो मैं मां जि को लाडुलो।।

छौ म्यरा गौलि को हंसूलो।

दादु रै बौ जि को भिटूलो।। झम।

भोरि मिन अदमिरी अंज्वली।

पेइ चा छुबडुल्यूं को पाणी।।

दादु ल्है अधितु समोटी।

रै ग्यऊं तुड़तुड़ी मंगारी।। झम।

रिटारिट

पैलि त मि सिरफ़ सुणदो छयो

पर अब दयख़णु छौं

कि दुन्या रिटणि च

दुन्यअ चौछडि जून रिटणि च

जिकुड़ी चौछ्ड़ी गाणि रिटणि च

नेतौं चौछ्ड़ी नीति रिटणि च

भर्ती दफ्तरम फालतू रिटणा छिन

फूलूं फर म्वारी रिटणि च

पुंगड्यू ब्वारी रिटणि च

कीली फर बाछी रिटणि च

बजारुम पैसा रिटणु च

आंख्युं अगनै जैंगण रिटणि च

मि द्यख़णु छौं

रिटदी असहाय जिन्दगी तैं

रिटदा आस्था विश्वास तैं

हर प्राणी क चौछडि रिटदि मौत तैं।

ठ्यकर्या

घार भटिं अयाँ क हम, गढ़वाली भुल्यां क हैं।

जरा जरा विदेश की अदकची फुक्यां क हैं।।

जनम के उछ्यादी थे, विद्या की कदर ना की।

कण्डाळी की झपाग खै, ब्व़े की अर बुबाकि भी।।

जा रहे थे बुळख्या ल्हें, एक दिन स्कूल को।

मूड कुछ बिगड़ गया, अदबाटम भज्यां क हैं।।

घार भटी अयाँ क हम गढवाळी भुल्याँ क हैं।

जर जरा विदेश की अदकची फुक्यां क हैं।।

कै गुजरु इनै उनै, पोड़ी सड़कि का किनर।

गाँव वालौं य मित्रु का, घौर कै कभी डिन्नर।।

कुछ रकम ठी फीस की, कुछ चुराई ड्वारुदै ।

खर्च कै पुकै पंजै, मैना धंगल्ययाँ क हैं।।

घार भटिं अयाँ क हम, गढवाली भुल्यान क हैं।

जर जरा विदेश की अद्कची फुक्यां क हैं।।

टैकनिकल जौब में, हाथ काले क्यों करें।

करें किलै कूली गिरी, ब्यर्थ बोझ से मरें।।

डिगचि डिपार्टमेंट का, डिपुटी हम बण्या क हैं।

तीस रुप्या रोटी ल्हें, जुल्फा झटग्यां क हैं।।

घार भटिं अयां क हम, गढवाली भुल्यान क हैं।

जर जरा विदेश की अदकची फुक्यां क हैं।।

क्या कहें पहाड़ से, तंग हम थे आ गये।

च्यूडा, भट बुकै बुकै, दांत खचपचा गए।।

कौणयाळी गल्वाड़ से क्वलणि तक पटा गयी।

अब तो ठाठ से यहां, पान लबल्यां क हैं।।

घौर भटिं अयां क हम, गढवाली भुल्यान क हैं।

जरा जरा विदेश की अदकची फुक्यां क हैं।।

बुढापा

मिल जनम ल्हें

ये संसार क अंत मा

अर सब्बुं चै पैलि

यान मि

सब्ज्यठ्यु बि छौं

अर निकाणसो

झणि कब बटे

येई ढुंगम बैठ्युं छौं

यई ढुंग मुड़ी

एक संहिता च

एक नक्शा च

सैन्वार, उकाळ अर

उंदार को तिराहा च

यखम बटे सब कुछ देखी सकदा तुम

वो द्याखो ..

जैकी सिर्गितिम छिन

उफरदी कूम्प

हैंसदा फूल

नाचदा नौन्याल

य सैन्वार च

अर द्यखणा छ्याँ

यीं तड़तड़ी उकाळ तैं

उचयीं गौळी

अधिती तीस तैं

बस्ता बोकी जांद नौन्याळ तैं

एक हांक तैं पिछान्दा तरुणु तैं

गृहष्टि क ….

बोझ मुड़ी रड़दा अद्कुडू तैं

यो यीं तरफ जख

लम्डदा ढांगा गौड़ी भैंसी

कथगै अभाग मनिख

रड़दा डांग झड़दा पत्ता

फ्ल्दी मारदा छिन्छाड़ा

भ्यटेंदि बौंळी

अर झणि कख जाणे कैबे मा

अटगदा बटवै दिखेंदन

या च उंदार

जु पट रौल पौन्छंद

एक हैंकु

बाटु बि च

अमर पथ

जैक दुछव डि

सत्कर्म का

डाळ छन

पर उपकार से

जनम्यां फल छिन

पुरुषार्थ का

पसीना से धुईं ढुंगी छिन

परिश्रम्युं की

पैतुल्युं से पवित्र हुईं धूळ च

ये रस्ता फर हिटदिन

भाग्य तै संवरदा कर्मबीर

सर्वस्व त्याग करद।

समाधान

पेड़ पौधों खैकी तैं कुछ कीड़ा

हौरुं खुणि सिरदर्द बणि जान्दन

कुछ कीड़ा कीड़ों तैं खैकी

विश्व शांति का गीत लगान्दन

कुछ अफ्फुं तैं सबुको

अर सब्बुं तैं अपणु बथैक

विराणा माल फर

हट साफ़ कै दुनिया तैं

त्याग अर तप को मार्ग बतौंदिन

रुंदा छिं

रुंदा छिं आपणा दुखल, दुनिया मा सब्बी लोग

हैंका दुःख मा रोई जो, इनु छ कैको जोग

इनु छ कैको जोग, जु हैंको दुःख उठावा

डुबदो लै द्यो छाल, पवड़द थैं उबो उठावा

बोद ‘कन्हैया ‘ इनो मनिख क्वी बिल्लो हूंदा

जो उन्द्यो हंसे द्याख जौँ थै रुंदा।

गढवाळी संस्था

ज्ल्मी त भौत छै

पर कैन बि पूरी मन्था नि खै

कुछ कैन पणसैन , कुछ कैन उगटेन

तन्नी कुछ .. अफ़ी हरची गैन

हुणत्यळी छै , गुणत्यळी छै मयळी छै

पर ..उंकी पुछ्ड़ी फ्न्कुड़ी निम्खणि छै

हाँ .. ऊंका नियम बड़ा कठोर छा

धारणा ध्येय बी विशाल छा

जो रजिसटरूंम ल्यख्यां छा

बाँधी बून्धी बस्तौं मा धरयां छा

पैलि पैलि ऊंसे सबकू लगाव छौ

नौन्याळ समजी खुखली खिलाणो चाव छौ

तब गढ़वालै तरक्की सवाल छौ

इस्कोल , अस्पतालौ ख़याल छौ

अपणि भाषा किलै नि ब्वना

यांको मलाल छौ

अब……

नौनि ब्यवाणा हांळ चा

नौने नौकरी समस्या चा

कोठी बणाणे लिप्स्या चा

जिन्दगी भर कं रै ग्याँ पाडि पाड़

यांको मलाल चा

हाँ कै बगत

एकाद सांस्कृतिक प्रोग्राम कै

खुद बिसराणे /ब्यळमाणो ख्याल च

झणि कत्गौंल अपणये छै

फेर झणी किलै छोड़ बि दे छे

ऊन कैसे मोह नि तोड़ी छौ

कैकु दीद बि नि तोड़ी छौ

पण सुदी सुदी अपणे आपस म

द त्वी समाळी ल्हें रै तैंते

न त्वी भटगे ल्हें

बडो ऐ संस्थौ वालु .. ल्हें समाळ

जा जा त्वी घटगे ल़े

जबान समाळी बोल

जीब रूंगड़ दूंगा नथर

अरे चल बे चल

बड़ा आया गवरनल का बच्चा

द…..

स्यूं कि त ह्व़े गे पछिन्डी

बणया भाजी ग्या कठुग कोच्ची ग्या

हे भै ….

क्य ह्वालू यीं को

फुकीण दे मोरी जाण बलें

कैरू त क्या कैरू

इनि इनि कै

कुजणि कब बटें अब तैं

उपजदी गेन

हरचदि गेन

गढ़वळी संस्था।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.