उठा जागा उत्तराखण्ड्यूं
मनु पंवार
साल 1995. उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के दिन. तब अवाम सड़कों पर थी. हम इसी तरह छोटे जत्थे में जन चेतना के गीत गाते हुए प्रभातफेरी निकाला करते थे. यह पौड़ी गढ़वाल ज़िले के श्रीनगर के गोला बाज़ार की तस्वीर है. सबसे आगे सफेद स्वेटर में जनता के गायक नरेंद्र सिंह नेगी जी दिख रहे हैं. उनके दाहिनी तरफ़ हाथ में खंजरी लिए नीली विंड चिटर पहने मैं भी हूं। नेगीजी के गीत पर खंजरी से रिदम देने की कोशिश कर रहा हूं. साथ में अनुसूया प्रसाद ‘घायल’ पत्रकार अद्वेत बहुगुणा, दिवंगत चित्रकार बी. मोहन नेगी, पत्रकार गणेश खुगशाल ‘गणी’, दिवंगत पत्रकार एल. मोहन कोठियाल, दिवंगत कवि राजेंद्र रावत ‘राजू’, मनोज रावत, इंद्रमोहन चमोली, ओंकार बहुगुणा ‘मामू’, पत्रकार बिमल नेगी भी हैं.
मुझे याद आ रहा है कि तब शायद हम लोग टिहरी से वापस पौड़ी लौट रहे थे और श्रीनगर में कुछ देर के लिए रुके थे. लेकिन उन दिनों इस कदर भरे हुए थे कि आंदोलन के गीत गाते हुए बाज़ार से गुजरे. तब यह तस्वीर किसने खींची पता नहीं, लेकिन किसी ने मुझे भेजी तो 26 साल पहले का वो दौर आंखों के सामने किसी चलचित्र की तरह घूमने लगा.
यह फोटो हालांकि उजाले की है लेकिन हम लोग अपने गृह नगर पौड़ी में प्रभातफेरी अल्लसुबह निकाला करते थे. प्राय: तड़के 5 बजे. एक ड्यूटी सी बन गई थी. तड़के चार या सवा चार बजे का अलार्म लगाके उठा करते थे. हम सारे साथी अंधेरे में ही अपने घरों से निकलकर रोज़ाना कहीं एक जगह जुटते थे और फिर शहर के अलग-अलग रास्तों से होकर आंदोलन के गीत गाते हुए गुज़रते. उजाले की किरण फूटते ही हम लोग प्रभातफेरी का समापन कर देते थे और अगली सुबह का प्लान फिक्स करके अपने-अपने घरों को निकल जाते. कुछ दोस्तों के नाम याद हैं- मनोज, विनोद, प्रकाश, इंद्रमोहन, योगंबर. अमित. कुछ और लोगों के चेहरे याद हैं, लेकिन नाम भूल गया हूं.
क्या जुनूनी दौर था वो ! सामने हिमालय से आती बेहद कंपकंपा देने वाली बर्फीली हवाओं के बीच भी हमने प्रभातफेरी निर्बाध निकाली. दिसंबर-जनवरी की भयंकर शीतलहरी में भी. जब युवा कण्ठों से ऊंचे सुरों में आंदोलन के गीत फूटते तो कड़ाके की ठंड का अहसास तक नहीं होता था. तब हम सब नौजवान, लोगों की नींद में आंदोलन के जोशीले गीतों के ज़रिए दस्तक देने की कोशिश कर रहे थे. रोज़ाना क़रीब डेढ़ से पौने दो घंटे तक हम लोग प्रभातफेरी निकाला करते थे. इस दौरान चार से पांच गीत तो नियमित तौर पर गाया ही करते थे. उनमें भी लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी का यह एक गीत तो हमारे लिए एंथम की तरह था-
‘उठा जागा उत्तराखण्ड्यूं सौं उठाणो बग्त ऐगे.
उत्तराखण्ड को मान-सम्मान बचाणो बग्त ऐगे।‘
(उठो, जागो उत्तराखण्डियों, सौगंध लेने का वक़्त आ गया है.
उत्तराखण्ड का मान-सम्मान बचाने का वक्त आ गया है।)
उन दिनों माहौल ही ऐसा था कि रगों में जोशीला खून दौड़ता था. नेगीजी के इस गीत से तो रौंगटे खड़े हो जाते थे कसम से. तब खटीमा, मसूरी, मुजफ्फनगर, नैनीताल गोलीकांड हो चुके थे. प्रभातफेरी का एक दिन का किस्सा याद आ रहा है. हम प्रभातफेरी लेकर लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी जी के घर के बिल्कुल पास से होकर गुजरे. उन्हीं का गीत गूंज रहा था- उठा जागा उत्तराखण्ड्यूं… नेगीजी के घर की बत्तियां जल उठीं. हम बहुत साफ तो नहीं देख पाए लेकिन यह सुनकर शायद खुद नेगीजी और कुछ और लोग खिड़की खोलकर देखने की कोशिश कर रहे थे कि ये लोग आखिर हैं कौन? दरअसल 1994 का वो उत्तराखण्ड आन्दोलन एक अनूठे किस्म का और एक विराट जनांदोलन था. वह कई तरह से, कई रूपों में, कई माध्यमों से अभिव्यक्त हो रहा था. ऐसी प्रभातफेरी उस आंदोलन की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति थी, जिसका एक छोटा सा हिस्सा हम भी रहे. लेकिन इन 21 बरसों में इस राज्य की जो दुर्दशा हुई है, उसे देखकर सब ठगे से हैं. ऐसा तो किसी आंदोलनकारी ने सपने में भी नहीं सोचा था.
लेखक वरिष्ठ टेलीविजन पत्रकार है.