जलवायु परिवर्तन के मायने
शिवानी पांडेय
बारबाडोस एक छोटा सा कैरिबियाई द्वीप है जिसकी जनसंख्या अभी 3 लाख भी नहीं पहुंची है। जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक और जल्दी पड़ने वाला प्रभाव समुद्र के पानी का जलस्तर बढ़ने से समुद्र के नजदीक रहने वाले देशों पर पड़ेगा बल्कि कई देशों में इसका असर दिखा भी शुरू हो गया है। ये वो देश है जिनका जलवायु परिवर्तन या पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने में रत्ती भर भी योगदान नहीं है लेकिन कोई गलती न होने के बावजूद सबसे ज्यादा खतरे की घंटी इन्हीं के ऊपर लटक रही है।
ग्लास्गो में चल रहे जलवायु परिवर्तन पर हो रहे सम्मेलन “सी. ओ. पी. 26” में बारबाडोस की प्रधानमंत्री मिया मोटले ने दुनिया के बड़े नेताओं को लताड़ा और कहा कि “यदि ग्लास्गो को पेरिस समझौते के वादे को पूरा करना है, तो उसे विरोध के बिंदुओं को बंद या खत्म करना होगा। मैं आपसे पूछती हूं कि कैरिबियन में, अफ्रीका में, लैटिन अमेरिका में, प्रशांत क्षेत्र की अग्रिम पंक्ति में रहने वाले अपने लोगों से हमें क्या कहना चाहिए? यह दुख और अफसोस की बात है कि ग्लासगो में कुछ आवश्यक चेहरे मौजूद नहीं हैं? इसकी असफलता के लिए हमें क्या बहाना देना चाहिए? सीधे शब्दों में कहूं तो (वैश्विक) नेता कब नेतृत्व करेंगे? हमारे लोग देख रहे हैं, और हमारे लोग नोट कर रहे हैं।
सभी छोटे विकासशील द्वीप राष्ट्रों के लिए बोलते हुए, मोटले ने कहा कि कैसे तापमान वृद्धि मालदीव, एंटीगुआ, बारबाडोस, फिजी, केन्या, मोज़ाम्बिक, समोआ के लोगों के लिए मौत की सजा बन रहा है। “हम वह मौत की सजा नहीं चाहते हैं और हम यहां ‘कठिन प्रयास’ कहने आए हैं क्योंकि हमारे लोगों और जलवायु को अब हमारे कार्यों की आवश्यकता है।”
बारबाडोस की मिया मोटले के भाषण और केदारनाथ का क्या रिश्ता है? वही रिश्ता है जो हिमालय और तबाही का रिश्ता है। केदारनाथ लोगों की आस्था का आध्यात्मिक केंद्र है आज से नहीं कई सालों से। लेकिन क्या वो अब केवल आध्यात्मिक केंद्र रह गया है? जब तक आध्यात्मिक था तब तक सुरक्षित भी था क्योंकि आध्यात्मिक केंद्र में इतनी तादाद में भीड़ नहीं थी और न ही पहुंचने के लिए चार लेन रोड़ की जरूरत थी और न ही हेलोकॉफ्टर की सुविधा की।
2013 की आपदा के बाद लगा था कि सरकार और लोग समझेंगे कि प्रकृति के साथ ज्यादा छेड़छाड़ ठीक नहीं है लेकिन 2013 की तबाही से सीखने के बजाय एक और आपदा को रास्ता देने के लिए दिन रात केदारनाथ में मेहनत की जा रही है। केदारनाथ को आध्यात्मिक नहीं बल्कि पर्यटक स्थल के रूप में विकसित किया जा रहा है। और जब सरकार केदारनाथ को पर्यटक स्थल बनाने में तूली है तो लोग भी वहां उसी तरह की 5-7 स्टार सुविधाएं तलाश रहे है जैसे पर्यटक स्थलों में होती ही है। तो तय कीजिए कि केदारनाथ आध्यात्मिक स्थल है या पर्यटक स्थल? अच्छी सड़क और हवाई जहाज की यात्रा से आप लोगों को केदार नाथ तो पहुंचा देंगे लेकिन क्या केदारनाथ की जमीन इतने लोगों को सहन कर पा रही है? क्या एक दिन में 10 से 20 और 20 से 50 हजार लोग केदारनाथ सहन कर पाएगा? क्या उसकी इतनी कैपिसिटी है?
पर्यावरणविदों की बार बार की चेतावनी के बावजूद 2013 की आपदा के बाद आए मलबे के ढेर में पक्का निर्माण लगातार किया जा रहा है। जहां पक्का निर्माण की मनाही थी वहां स्टोन क्रेशर चल रहा है। बूढ़े लोग कहते थे कि नदी किनारे से दूर रहें और केदारनाथ की आपदा के बाद तो लोग इस बात को समझ भी गए थे लेकिन सरकार केदारनाथ की आपदा से शायद कोई सबक नहीं सिख पाई। पर्यटन को उद्योग बनाना ही लक्ष्य है तो उत्तराखंड के पर्यटक स्थलों को सुविधाएं दीजिए, उन्हे विकसित कीजिए। रोजगार के ज्यादा अवसर खुलेंगे। कुछ लोगों के आरामगाह और सनक की भेट चढ़ने से पहले चेत जाइए वर्ना बारबाडोस बनने से कोई रोक तो सकता नहीं है!
लेखिका वरिष्ठ शोधार्थी हैं