November 22, 2024



पहाड़ की नदियाँ

Spread the love

चंद्रशेखर तिवारी


उत्तराखण्ड प्रदेश के जलप्रवाह में यहां की नदियां, हिमनद और सरोवरों का स्थान प्रमुख है। किसी भी क्षेत्र विशेष में प्रवाहित होने वाली मुख्य नदी और उसकी अन्य सहायक नदियां मिलकर एक प्रवाह तंत्र का विकास करती हैं। प्रत्येक स्थानिक क्षेत्र की मुख्य नदी के नाम आधार पर प्रवाह तंत्र की जिस ईकाई का निर्धारण होता है उससे वहां के धरातलीय रुपों के निर्माण व विकास सम्बन्धी बिदुओं का अध्ययन करने में सुविधा होती है। धरातलीय संरचना, चट्टानों की प्रकृति, ढाल प्रवणता, जलवायुगत दशाएं व वनस्पति की विद्यमानता जैसे कारकों का प्रभाव जल प्रवाह तंत्र पर स्पष्ट रुप से पड़ता है। प्रत्येक जल प्रवाह तंत्र की अपनी अलग विशेषताएं होती है। इन विशेषताओं के आधार पर भूगोलवेत्ताओं द्वारा जल प्रवाह तंत्र का वर्गीकरण किया गया है।

उत्तराखण्ड के उच्च व हिमाच्छादित क्षेत्रों से अनेक सदानीरा नदियां निकलती हैं। इन नदियों से केवल प्रदेश को ही जल नहीं मिलता अपितु उत्तर भारत के मैदानी भागों को भी प्रचुरता से जल उपलब्ध होता है। न्यून तापमान की वजह से सामान्यतः 3600 मी. से अधिक उच्च भागों में जल की उपलब्धता हिम के रुप में पायी जाती है। बन्दरपुंछ, गंगोत्री, केदारनाथ, खतलिंग, सतोपंथ, पिण्डर,मिलम व नामिक तथा अन्य छोटे-बड़े हिमनद जल के विशाल भण्डार हैं जिनसे अनेक नदियां उद्गमित होती हैं। ग्रीष्म काल के दौरान जब हिमनदों की बर्फ पिघलने लगती है तो यहां से निकलने वाली नदियों में जल की मात्रा बढ़ जाती है इससे मैदानी भागों को सिचाईं के लिए पर्याप्त जल मिल जाता है।


उच्च हिमालय की सभी नदियों का उद्भव हिमनदों से होता है। बन्दरपुंछ हिमश्रेणी के पश्चिम-दक्षिण दिशा में स्थित हिमनद से यमुना नदी का जन्म होता है सुपिन तथा रुपिन नेटवाड़ में में मिलने के बाद टौंस नदी के नाम से जानी जाती है। हरिपुर-कालसी के निकट टौंस नदी यमुना से मिलती है। गंगोत्री हिमनद के गोमुख से भागीरथी नदी निकलती है। देवप्रयाग पहुंच कर भागीरथी का संगम अलकनंदा से हो जाता है। अलकनंदा नदी सतोपंथ हिमनद से जन्म लेकर सरस्वती, धौली, नंदाकिनी, पिंडर, मन्दाकिनी का जल समेटते हुए देवप्रयाग पहुंचती है। देवप्रयाग में भागीरथी व अलकनंदा मिलकर इससे आगे गंगा नदी के नाम से जानी जाती है।


ऋषिकेश व हरिद्वार पहुंचने के बाद गंगा नदी मैदानी भाग में प्रवेश कर जाती है। कालापानी के समीप उच्च हिमनदों से जन्म लेकर काली नदी अपने साथ कुटियांगती, गोरी, धौली व पूर्वी रामगंगा नदियों का जल अपने साथ लाकर बरमदेव के समीप मैदानी क्षेत्र में प्रवेश कर जाती है। यहां से काली नदी का नाम शारदा हो जाता है। काली नदी अपने प्रवाह पथ के माध्यम से भारत-नेपाल की अन्र्तराष्ट्रीय सीमा का निर्धारण करती है। उच्च हिमालय से उत्पन्न होने वाली यह नदियां बहुत ही वेगगामी हैं। अपने उद्गम क्षेत्रों के आसपास इन्होंने गहरी घाटियां बनायीं हैं। गहरी घाटी में बहने के कारण इस जल का स्थानीय उपयोग नहीं हो पाया है। इन नदियों में जल की मात्रा साल भर सतत रहती है।

पूर्वी व पश्चिमी नयार, खोह, पश्चिमी रामगंगा, सरयू, गोमती, पुंगर, कोसी, पनार,गौला व लधिया नदियां मध्यवर्ती हिमालय यानि लघु हिमालयी भाग के वनाच्छादित शिखरों से उद्गमित होती हैं। इन नदियों ने अपने प्रवाह पथ में कई जगहों पर उपजाऊ घाटियों का निर्माण किया है। उत्तराखण्ड के इस मध्य भाग में इन नदियों का जल सर्वाधिक हुआ है। आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टि से यह नदियां इस भू-भाग की जीवन रेखा मानी जाती हैं। अधिवास व कृषि के प्रमुख क्षेत्र भी इन्ही भागों में मिलते हैं। नदी घाटियों में खेती-पाती की समृद्ध परम्परा विद्यमान है। किसी समय इन नदियों के किनारे पर्याप्त संख्या में घराट (पनचक्कियां) दिखायी देती थीं परन्तु अब गांवो में बिजली आ जाने से इनका अस्तित्व समाप्त सा हो गया है। अनेक प्राचीन तीर्थ, मठ व मन्दिर भी इन नदियों के तट व संगम स्थलों पर स्थित हैं जहां पर्व विशेष पर मेले आदि लगते हैं।


हिमालय की सबसे निचली पर्वत श्रेणी यानि शिवालिक पर्वत मालाओं से भी कुछ नदियों जन्म लेती हैं। अधिकतर यह नदियां मौसमी होती हैं परन्तु बरसात में अपने आसपास की पहाड़ियों का भी जल समेट लाने से यह रौद्र रुप धारण कर लेती हैं और अपने साथ लायी मिट्टी, पत्थर व रेता-बजरी को भाबर में जमा कर देती हैं।इन नदियों में पानी की मात्रा सीमित रहती है क्योंकि इनके जलागम क्षेत्र भी छोटे होते हैं। भाबर की आन्तरिक संरचना बोल्डर, कंकड़-पत्थर व बजरी के जमाव से हुई है फलतः यहां बहने वाली नदियों का पानी भूमिगत होकर आगे तराई में प्रकट होता है। शिवालिक माला से निकलने वाली सौंग, आसन व रिस्पना, पौड़ी की शिवालिक पट्टी की मालिन, सोना तथा नैनीताल शिवालिक की पर्वत माला से जन्म लेने वाली दाबका, ढैला, भाखड़ा, बौर व नन्दौर इस भाग की प्रमुख नदियां हैं। स्थानीय स्तर पर इन नदियों के जल का उपयोग पेयजल, सिंचाई, पर्यटन, मत्स्य पालन में किया जाता है। भाबर की नदियों से भारी मात्रा में खनन कार्य भी होता है अवसाद के रुप में जमा पत्थर व रेता-बजरी का उपयोग भवन व अन्य निर्माण कार्यों में किया जाता है।