सरोला कार्य की सदा रही है प्रासंगिकता
सोमवारी लाल सकलानी ‘निशांत’
इक्यावन वर्षों से कर रहे हैं सरोला (रसोया) का कार्य। गर्मी हो या बरसात, सीत या शरद, हर मौसम में अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद हैं हमारे रसोया जी श्री घनश्याम मैठाणी। सन 1970 में जब मैं 11 वर्ष का था तो सबसे पहले मेरे चाचा जी (श्री जयदेव सकलानी) के शुभ विवाहोत्सव में श्री घनश्याम मैठानी जी ने रसोया के रूप में पहली बार भोजन (दाल- भात) सार्वजनिक रूप से पकाया था। उससे पूर्व उनके बड़े भाई श्री कृतराम मैठानी जी यह सरोला का काम करते थे और वह सहायक थे।
हमारे संपूर्ण गांव (हवेली) में उनकी वृत्ति होने के कारण इस परिवार का पारिवारिक नाता है और उन्हें हम अपने घर का अभिन्न सदस्य समझते हैं। आज भी मेरे गांव में रसोया को डडवार दिया जाता है। भले ही वह अन्न के रूप में ना हो या दक्षिणा के रूप में हो, लेकिन उनका आज भी आदर किया जाता है। रियासत कालीन व्यवस्था के अंतर्गत राजा- महाराजाओं के द्वारा रसोया का कार्य सरोला लोग करते थे। जैसा कि इतिहास में भी वर्णित है। सरोला ब्राह्मण राज मान्यता प्राप्त होते हैं और उनका पकाया हुआ भोजन संपूर्ण समुदाय/समाज करता है।
छुआछूत के युग में या संक्रमण के कारण जहां भात से परहेज किया जाता था, केवल सरोला का बनाया हुआ भोजन ही सभी लोग ग्रहण करते थे, चाहे वह किसी भी वर्ण का क्यों न हो। यह राज मान्यता कुछ भी हो लेकिन सामाजिक अनुशासन बनाए रखने के लिए या कार्य विभाजन के रूप में सरोला लोगों को यह मान्यता प्राप्त थी। अकेला सरोला हजार लोगों को आसानी से भोजन बनाकर जिंमा देते हैं। उनकी यह जन्मजात ट्रेनिंग होती है। भोजन अच्छा बन गया तो खाने वाले उसकी तारीफ भी करते हैं और यदि नमक- मिर्च अंदाजा से ज्यादा पड़ गया, या भात जल गया, या दाल जल गई तो रसोया को टोकाई भी खानी पड़ती है।
हमारे गढ़वाल की संस्कृति अनूठी संस्कृति है। यूं तो सामूहिक भोज की प्रथा पूरे हिंदुस्तान में विद्यमान है। आज के जमाने सामूहिक भोज के अवसर पर जितनी अनुशासनहीनता दिखाई देती है, उसको शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। “स्टैंडिंग पोजिशन में भोजन ग्रहण करना” न तो सुसंगत है, न धर्म युक्त है। न स्वास्थ्य युक्त है और न संस्कृति युक्त है बल्कि मैं तो समझता हूं कि यह पशुओं को खिलाए जाने वाला पिंडा के समान है। पहले यह “स्टैंडिंग पोजिशन का भोजन” एक नकल स्वरूप किया गया। कुछ लोगों ने बड़प्पन के कारण यह कार्य किया लेकिन मुख्य रूप से इसका कारण है सहयोग का अभाव होना। जब परिस्थितियों को लोक वाकई समझ गए तो फिर लौट चुके हैं “पंगत के रंगत में”। “पंगत की रंगत” सामूहिक भोज की वह व्यवस्था है, जिसमें स्वच्छता- अनुशासन और लोक संस्कृति की झलक मिलती है। बड़ा- छोटा, बच्चा- बूढ़ा, महिलाएं सब सामूहिक रूप से एक साथ बैठकर के रसोया के द्वारा परोसा गया भोजन चाव से खाते हैं। यह सुपाच्य होने के साथ-साथ स्वच्छ व्यवस्था भी है।
श्री घनश्याम मैठानी पहली बार जब भात पकाने के लिए हमारे गांव में सरोला के रूप में आए और चाचा जी के शादी में उन्होंने भोजन बताया तो उनके सद्गुणों,कार्य कुशलता के कारण लोग दंग रह गए। इतनी छोटी उम्र में ही उन्होंने तीन धाम (बार) पूरे गांव और बारात का खाना बनाया और बांटा। उस उम्र में जब कुछ लोग होश में नहीं संभाले थे। कुछ समय बाद उनकी वृत्ति बंट गई। ग्राम हवेली की भोजन व्यवस्था की जिम्मेदारी श्री घनश्याम मैठानी के हाथों आ गई और तब से अनवरत श्री घनश्याम मैठानी हमारे गांव में रसोईया का कार्य कर रहे हैं। उनकी वृत्ति हमारे गांव तक सीमित नहीं है बल्कि दूर-दराज के इलाकों तक उनके जजमान हैं और वह भात पकाना, लोगों को परोसना/बांटने का आज भी कार्य करते हैं। अब उनके पुत्र भी इस कार्य में उनका हाथ बंटाते हैं। अस्वस्थता के बावजूद भी उन्होंने कभी अपने कार्य में कोताही नहीं बरती बल्कि अन्य सरोला लोगों के सहयोग के द्वारा यह कार्य संपादित किया। अनुश्रवण का काम स्वयं किया।
दो दिन पूर्व कैप्टन स्व कुंवर सिंह पुंडीर जी के मासिक श्राद्ध के अवसर पर उनके पुत्र लेफ्टिनेंट कर्नल श्री रविंद्र पुंडीर के द्वारा विस्तृत भोज का आयोजन किया गया। इस ब्रह्मभोज में बंधु- बांधव और रिश्तेदारों के साथ चंबा और नई टिहरी से लोग सम्मिलित थे। श्री घनश्याम मैठाणी अपने साथ श्री मनोहर लाल मैठानी जी के साथ रसोई कार्य में व्यस्त थे। श्री श्राद्ध श्रद्धा का होता है। श्राद्ध में कम से कम 17 व्यंजन बनते हैं। उस कार्य में बंधु- बांधव सहयोग करते हैं। बनाते हैं, परोसते हैं और बांटते हैं लेकिन उसके बाद सरोला का कार्य शुरू होता है। दाल -भात, मीठा भात,मटर पुलाव,खीर आदि सब रसोईया के द्वारा बांटा जाता है।
रसोया की भट्टी, रसोईया के चलने वाले मार्ग तथा पंगत के अंदर रसोया के अलावा कोई दूसरा व्यक्ति प्रवेश नहीं कर सकता है। जिसको धर्म के अनुसार “छौं” और मोटे शब्दों में “अनुशासन” कहा जाता है। समय और परिस्थितियों के अनुसार इस कार्य में कुछ त्रुटियां भी आयी हैं। जातिवाद इतना भयानक रूप में आगे बढ़ा अनेक शादियों में मैंने देखा, कुछ क्षेत्रों में वर – पक्ष के लोग अपना सरोला भी साथ ले जाते हैं। वह कन्या – पक्ष के ब्राह्मण सरोला के द्वारा बताए गए भोजन को भी ग्रहण नहीं करते। इससे बड़ी खेद जनक बात और क्या हो सकती है।
विज्ञान के युग में, भूमंडलीकरण के इस दौर में, बुरी बातों को तो हम जल्दी सीख जाते हैं। जैसे” स्टैंडिंग पोजिशन का खाना” लेकिन जो अच्छी बातें हैं उनमें हमारी दकियानूसी फिर से लौट कर आ जाती है। भला जिस गांव से, जिस घर से, हम बहू ला रहे हैं वहां के सरोला का बनाया हुआ भोजन ग्रहण करने में क्या आपत्ति हो सकती है? और यही हमारे हिंदू धर्म, हमारी संस्कृति और हमारे लोक व्यवस्था के पतन का कारण बना, जिसका लाभ कुछ असामाजिक तत्वों, राजनीतिग्यों आदि ने आरक्षण के नाम पर भी अपनी सत्ता चलाने के लिए उपयोग किया। धार्मिक व्यक्तियों, समाजसेवियों से अनुरोध है कि वह मानवता के प्रति घृणा न करें। समाज एक समान हैं। छुआछूत, गंदगी, बुराई से नफरत करें न कि मानवता से। खानपान में सामाजिक भेदभाव एक बुराई है और इसे दूर किया जाना चाहिए। तभी हम स्वस्थ समाज की परिकल्पना कर सकते हैं। साथ ही समाज के जितने भी अविभाज्य अंग हैं, चाहे वह ब्राह्मण हों या सरोला। औजी हों या मिस्त्री। नाई हों या मोची या स्वच्छक सब ईश्वर की संतान हैं और सब एक ही परम पिता की संतान हैं। इसलिए छुआछूत से दूर रहकर, सामाजिक समरसता के द्वारा अच्छी प्रथाओं को हमें आगे बढ़ाना है और बुरी प्रथाओं को दूर करना है। यही हमारे देश के लिए कल्याणकारी सिद्ध होगा। जिससे हमारा समाज आगे बढ़ेगा और इसी में हमारा मोक्ष छुपा है।