November 23, 2024



हिम प्रदेशों के संगम

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एम. पी. एस. बिष्ट


प्रिय मित्रों आज मैं अपनी देव भूमि के एक और महत्वपूर्ण प्रयाग कि विशेषताओं से आपको रूबरू कराना चाहता हूँ। उम्मीद है पसन्द आयेगा। वैसे तो अपने उत्तराखण्ड में सामान्यतः पाँच प्रमुख प्रयागों (देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, नन्दप्रयाग, कर्णप्रयाग और विष्णुप्रयाग) से जन सामान्य को अवगत कराया जाता है, परन्तु इनके अतिरिक्त हमारे यहाँ दो और भी महत्वपूर्ण प्रयाग हैं। एक है सोनप्रयाग (मन्दाकिनी और वाशुकीगंगा का संगम) दूसरा केशव प्रयाग (अलकनन्दा और सरस्वती नदी का संगम)। जी हाँ मित्रों आज मैं कुछ अपने फ़ील्ड छायाचित्रों और हवाई चित्र के माध्यम से केशव प्रयाग (समुद्र तल से लगभग ३१४८ मीटर ऊँचाई पर), यानी बदरीनाथ से पाँच किलोमीटर पीछे माणा (भारत का अन्तिम गाँव) के पास अलकनंदा और सरस्वती नदियों का संगम स्थल कहलाता है।

मित्रों इस स्थान से लगभग ६.७ किलोमीटर पीछे जहां पर किसी वक्त सतोपन्थ ग्लेशियर (अब १२ किलोमीटर लम्बा), भगतखरक ग्लेशियर (अब १९.६४ किलोमीटर लम्बा) और भागन्यूं बाँक (बाँक ग्लेशियर) (अब ७.२४ किलोमीटर लम्बा) के संगम अल्कापुरी बाँक (३६१८ मी०) के नाम से चर्चित अलकनंदा नदी का उद्गम स्थल कहलाता थ। परन्तु आपको जानकर हैरानी होगी कि वातावरण में हो रहे तीब्र बदलाव के कारण आज ये तीनों हिमनद इस स्थान को छोड़कर लगभग ५ से ६ किलोमीटर पीछे सरक चुके हैं, और जो कभी एक ही मूल ग्लेशियर होता था अब वे तीनों अलग-अलग पहचान बनाकर प्रकृति से अपने अस्तित्व को बचाने की जिद्दोजिहद में लगे हैं!


मित्रों बात केशव प्रयाग की थी। इसके बांयी ओर से सरस्वती नदी लगभग ४५ किलोमीटर पीछे उत्तर पूर्व, रत्ताकोणा (माणा पास) से चलकर देवताल, घस्तोली (चन्द्रा ताल) जैसे ४६ जलाशयों एवं १२ – १३ छोटे-बड़े, पश्चिमी कामेट, खुलार बाँक जैसे हिमनदों के जल को समेटे हुए तीब्र वेग से माणा गाँव के बग़ल से अपने कोलाहल के साथ शान्त बहती अलकनंदा में समाहित होकर विलुप्त हो जाती है। दोस्तों जैसे गहरे सागर में जाकर सारी नदियाँ अपना अस्तित्व खो देतीं हैं ठीक उसी प्रकार सरस्वती ने भी इस स्थान पर अपना अस्तित्व खो डाला। परन्तु माणा गाँव जो कि आज मणिभद्र का अपभ्रंश है वह सन् १९३२ में एक बहुत बड़े एवलॉन्स के नीचे समाहित हो चुका था आज फिर से एक सुन्दर हेरीटेज ग्राम में परिवर्तित हो चुका है। इसी एवलॉन्स का नतीजा है (उपग्रह चित्र में पीले रंग से चिन्हित) कुवेर पर्वत के उत्तरी ढाल से बड़े- बड़े विशालकाय शैल खण्ड हिम चट्टानों के साथ मिलकर सरस्वती के मार्ग को अवरुद्ध तो किया ही साथ में समूचे माणा गाँव को भी निस्ते नाबूद कर दिया । आज भी वे शिला खण्ड माणा गाँव के ऊपर व चारों तरफ़ बिखरे नज़र आते हैं।


आप मेरे छायाचित्रों में इन शिलाखंडों को देख सकते हैं। जो सरस्वती नदी के बीचोंबीच एक पुल का रूप धारण किए हुए है उसे हमने कालांतर में भीम पुल का नाम दिया। उसपर अंकित धारियों को हम भूवैज्ञानिक भाषा में स्ट्राएशन कहते हैं जो कभी ग्लेशियर के चलते घर्षण के उपरान्त चिन्हांकित हुये हैं। वहीं एक विशालकाय शैल खण्ड गाँव के ऊपर तिरछा पड़ा है, चूँकि उसका अग्र भाग ज़मीन से उठा हुआ है तथा एक गुफा का आकार बनाता है तो उसे हमने व्यास गुफा का नामकरण किया।

चूँकि इस शिला खण्ड के अग्र तल पर भी चट्टानों की तिरछी परतें एक सुन्दर मोटी सी ग्रन्थ का रूप धारण करती है जिसे हमने अपने वेद – पोथियों के रूप में देखना सुरू किया। इसी प्रकार ऐसी ही एक शैल खण्ड को हमने श्री गणेश का रूप मान लिया। और कालांतर में हमने इन्हें अपनी आस्था से जोड़ लिया। और अब ये हमारी आर्थिकी का एक महत्वपूर्ण अंग बन चुके हैं जिसे हम जैसे भू विज्ञान के छात्र “जियोटूरिज्म” का नाम देते हैं। जिसमें वशुधारा (५२ मी० ऊंचा) जल प्रपात, नीकण्ठ पर्वत (५६४५ मी०) की सुन्दर छटा, बद्रीनाथ से माता मूर्ति मार्ग में चट्टान पर सुन्दर नाग – नागिन का जोड़ा (ptigmatic folding), एक शिला खण्ड पर चित्रित खूबसूरत शेष नेत्र के दोनों ओर की सुन्दर झील जैसी मनमोहक आकृतियाँ,पाण्डवों का सत्य पथ (सतोपन्थ) मार्ग व सरस्वती नदी का Epigenetic gorge अपने आप में क्षेत्र के विशेष आकर्षण के केंद्र हैं। दोस्तों आज आवश्यकता है हमें अपने उत्तराखण्ड की इन नायाब प्राकृतिक संम्पदाओं को समझकर संजोने की व इनसे अपने आर्थिकी को सुधारने की।