पहाड़ देगा समरसता की दिशा
जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
जब कभी भी उत्तराखण्ड के इतिहास पर चर्चा होती है तो यही कहा जाता है कि बाकी सभी जातियां देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों से उत्तराखण्ड में पहुंची थी लेकिन यहां के मूल निवासी अनुसूचित जातियां, अनुसूचित जनजातियां, कोल, भील, किरात आदि जातियां थी।
मैने जब ओम प्रकाश वाल्मिकी और रूप नारायण सोनकर जैसे प्रसिद्ध दलित लेखकों की जीवनी पढ़ी तो मुझे लगा कि तुलनात्मक रूप से हमारा पहाड़ी प्रदेश दलितों के साथ भेदभाव व निरंकुसता में उतना कठोर नहीं लगता जितना कि देश के अन्य प्रदेशों में, लेकिन इन सब परिस्थितियों के बावजूद में यह भी नहीं मानता कि उत्तराखण्ड में दलितों व निम्न जातियों के प्रति कोई भेदभाव नहीं होता। चाहे पहाड़ी क्षेन्न हो या मैदानी, भेदभाव आज भी जारी है।
थोड़ा सा इतिहास में झांकने की कोशिश करते है। हमारे पहाड़ के विद्धान चिन्तक, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता एवं भूतपूर्व आई पी0 एस0 अधिकारी श्री चमनलाल प्रद्योत अपनी जीवनी में लिखते है कि जब उनके घर वालों ने उनको स्कूल में भर्ती किया तो घर वालों के उचित नाम सुझाये जाने के बावजूद उनके स्कूल के अध्यापक जो उच्च जाति के थे ने उनका विपरीत नाम दंगणु शिल्पकार लिखा। जब छान्न दंगणु ने पांचवी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया तो जिला परिषद के एक उच्चाधिकारी ने तब उनका उचित नाम चमन लाल परिवर्तित करवाया। जो आगे चलकर देश की सर्वोच्च सेवा के लिए चुने गये। उन्नीसवी सदी के प्रारम्भ तक पहाड़ों में भी छुआछूत व्याप्त मान्ना में था। हरिजनों के साथ रिस्तेदारी तो रही दूर पानी के स्रोतों को छूना, धूमधाम से शादी-विवाह करना व दुल्हन को डोली में बिठाना, घर के अन्दर प्रवेश, मन्दिरों में प्रवेश जैसे प्रतिवन्ध लगाये गये थे। अनेक सामाजिक सुधारों व आन्दोलनों के पश्चात पहाड़ में निम्न जातियों को काफी राहत मिली लेकिन उनके जीवन यापन के सवालों पर फिर भी कोई विशेष उल्लेखनीय कार्य नही हुआ। परम्परागत रूप से पहाड़ों के अमूमन गांवों में आवश्यकता अनुरूम निम्न जातियों को उच्च जाति के लोगों ने अपने कार्यो व स्वंय के लिए वसाया या यूॅ कहें कि उन्हे अघोषित रूप से वंधुआ या दास बनाया। इन निम्न जातियों में लोहार जो कृषि उपकरण, औजार, हथियारों का निमार्ण करते थे। औजी दास जो ढोलवादन व सिलाई का काम करते थे। बाड़ई यानि मोची जो जूता बनाने में सहयोग करते थे। बेड़ा जो नृत्य व मनोंरंजन का कार्य करते थे। टमोटा या टम्टा जो वर्तन बनाने का कार्य सम्भालते थे व मिस्न्नी जो भवन निमार्ण में उच्च जातियों को सेवा देते थे। धुनार जाति के लोग नदियों में लोगों को आर-पार पहुंचाने व सोना चांदी व धातु को छानने का कार्य करते थे। मूलतः उपरोक्त जातियां एक तरह से गांवों के सामुहिक दासों के रूप में अपनी विशेषज्ञ सेवाओं के साथ-साथ कृषि पशुपालन व अन्य घरेलू कार्यो में उच्च जातियों के सेवक थे। इन निम्न जातियों को गांव में ही गांव से दूर हटकर घर बनाने के लिए सीमित भूमि व खेती के लिए लगभग अनुपयोगी भूमि प्रदान की गई थी। जिस पर अन्न उगाना असंभव ही नही मुश्किल था। परिणामत्तः इन निम्न जातियों का गुजारा करना बहुत कठिन था। लेकिन इसके लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था थी कि प्रत्येक परिवार इन्हें हर फसल पर कुछ अनाज, दालें, शब्जी, मसाले प्रदान करते थे वहीं शादी-विवाह, देवी कार्य आदि के समय भी इन्हें कुछ प्राप्ति हो जाती थी। जिसका पेट भरना ही मुश्किल हो वह समाज शिक्षा, स्वास्थय व रोजगार की बात सोच भी नहीं सकता लिहाजा यह कौम पहाड़ की सबसे अशिक्षित समुदाय रहा। उच्च वर्ग के लोगों ने इसका यथा संभव शारिरिक, मानसिक व आध्यात्मिक शोषण किया। निम्न वर्ग के इन पहाड़ी समुदायों के घरो में पंडित पूजा नहीं करते थे न ही इनकी जन्म पन्नियां बनाई जाती थी। पहाड़ी लोग अमूमन मैदानी उच्च वर्ग के लिहाज से निरंकुश शोषक नहीं थे लेकिन शोषण तो शोषण है। चाहे कम करो या ज्यादा फिर भी पहाड़ के उच्च व निम्न वर्ग में काफी समरसता भी थी पहाड़ के गांवों में आज भी उच्च व निम्न वर्ग में चाचा, ताऊ, बुआ, ताई, भाई, भांजी, मामा, बहिन आदि को रिस्ते के तौर पर सम्मान मिलता रहा शायद यही वह कारण है कि पहाड़ में भी भी जातिगत विवेध उतना सर न उठा सका लेकिन निम्न जातियों में उनके कमतर जातियां होने ही टीस आज भी यथावत जारी है। पहाड़ की निम्न जातियों के असली उद्वारक अंग्रेज रहे सन 1815 के पश्चात जब अंग्रेजो का पहाड़ के क्षेन्नो में पर्दापण व शासन हुआ तो अनेक स्कूलों की स्थापनायें हुई व उनमें निम्न जातियों के बच्चों को भी शिक्षा का अवसर प्रदान हुआ। इसके साथ ही नैनीताल, देहरादून, मसूरी, पौड़ी, रानीखेत, अल्मोड़ा जैसे इलाकों में बड़ी संख्या में निम्न जातियों ने भेदभाव से छुटकारा पाने के लिए ईशाई धर्म स्वीकार किया इसके पश्चात उच्च शिक्षा प्राप्त कर बड़े-बड़े पदों तक भी पहुचे आज भी ऐसे धर्म परिवर्तित निम्न जातियों के लोग समाज में अच्छी तरक्की करते दिख जाते है। अंग्रेजो की देखादेखी पुनः कुछ सामाजिक चिन्तकों ने भी हरिजन सुधार के प्रयास किये व निम्न जातियों को मन्दिरों में प्रवेश करने में सफलता प्राप्त की। स्वतन्न्नता के पश्चात देश में अनेक समाज सुधार कानूनों के निम्न वर्गो के लिए हर संभव स्थानों में आरक्षण की व्यवस्था किये जाने के कारण अब निम्न वर्ग के लोग धीरे-धीरे समाज की मुख्य धारा में शामिल होते जा रहे है। जातिगत उंच नीच न सिर्फ निम्न वर्ग बल्कि उच्च वर्गो में भी देखा जाता रहा है जो आज भी देखने को मिलता है। ब्राहमणों में भी उच्च वर्ग, निम्न वर्ग राजपूतों में भी बड़ा राजपूत, छोटा राजपूत जैसे भेदभाव हैं। जो सामाजिक समरसता को तोड़ता है। इसका दुषपरणिम निम्न वर्गो में भी देखा जाता है। निम्न वर्ग की जातियों में भी छोटे व बड़े का भेदभाव व्यापक है। निम्न वर्ग के लोग जिनकी शैक्षिक व आर्थिक स्थिति ठीक हो गई वह अपने ही समाज से कटता चला गया। कई निम्न जाति के लोगों ने अपनी जातियां बदल दी व अपने समाज व रिस्तेदारों की उपेक्षा करने लगे। उत्तराखण्ड में तुलनात्मक रूप से व कानूनों की मजबूती व पारिवारिक सदभावों तथा सहृदय समुदायों से पहाड़ के निम्न समुदायों की सामाजिक परिस्थितियां बेहतरीन है लेकिन अभी भी शैक्षिक व आर्थिक रूप से बहुत कुछ किया जाना बाकी है। लेकिन राज्य के मैदानी हिस्सों में निम्न वर्ग की स्थिति ज्यादा चिन्तनीय है। जैसे-जैसे पहाड़ी प्रदेश के लोग भूमण्डलीय समाज का हिस्सा बनते जा रहे है वैसे-वैसे नई पीड़ी ने जाति की दिवारों को धरासायी करना शुरू कर दिया है। अब पहाड़ की युवा पीड़ी ब्राहमण-राजपूत में भेदभाव न कर शादी-विवाह की ओर बढ़ चले है जिसे समाज भी स्वीकार करने लगा है। छुटपुट उदाहरणों के साथ निम्न वर्गो के साथ भविष्य में यह दीवार भी टूट जायेगी। जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार बढ़ेगा यह सामाजिक समरसता पूरे देश में फैल जायेगी। तभी हमारा प्रदेश व देश विकास की दोंड़ में आगे तेजी से बढ़ेगा। धार्मिक व साम्प्रदायिक शक्तियों को जिस दिन नेस्तानाबत कर दिया जायेगा उस दिन हमारा देश दुनिया का सर्वश्रेष्ठ व आदर्श देश बन जायेगा।