November 21, 2024



चिपको आन्दोलन और जंगलात प्रतिरोधों की परम्परा

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अरुण कुकसाल


यह किताब उस समाज को समर्पित है जो जंगलों के मायने समझता है। ‘‘यह समाज जानता है कि अस्तित्व है तो अर्थव्यवस्था है। अस्तित्व है तो पर्यावरण है। उत्तराखण्ड के गांवों में अपने जल, जंगल और ज़मीन को कायम रखना इस समाज के लिए सिर्फ़ अपने को नहीं, एक सभ्यता को कायम रखने और संवारने की लड़ाई है। इन्हीं प्राकृतिक आधारों पर यहां की जैविक ही नहीं सांस्कृतिक विविधता की रचना हुई, जो अभी तक टिकी है। इसलिए चिपको या अन्य जंगलात आन्दोलनों का इस समाज में प्रकट होना आश्चर्य नहीं, इसके स्वभाव की तरह लिया जाना चाहिए (पृष्ठ-32)।‘‘

शेखर पाठक बात को आगे बढ़ाते हैं ‘‘सामान्य किसान तथा पशुचारक अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में जिन संसाधनों पर निर्भर थे या हैं, उनकी सुरक्षा तथा स्वामित्व का सवाल उनके अस्तित्व से जुड़ा था और है। इसलिए जंगल के अधिकारों की लड़ाई स्थानीय समाज की अपने को अपनी जगह कायम रखने की लड़ाई थी। दार्शनिक रूप से यह अपनी मिट्टी को बचाने का जतन था। प्रत्यक्ष रूप से यह अपनी खेती, पशुपालन, कुटीर उद्योग, जड़ी-बूटी, कन्दमूल और सांस्कृतिक स्थलों-उत्सवों तथा गीतों को बचाने की लड़ाई भी थी। दूरस्थ दुर्गम इलाकों में रहने वाले चुप समाज अन्याय के प्रतिकार का नया मुहावरा कैसे गढ़ते हैं, यह उत्तराखण्ड में हुए जंगलात सम्बन्धी प्रतिरोधों से बखूबी समझा जा सकता है (पृष्ठ-76)।’’


शेखर पाठक ने 20वीं सदी तक के गढ़वाल-कुमाऊं के पहाड़ी इलाकों को चुप समाज (कमोवेश आज भी ये चुप समाज ही हैं) कहा है। अपने आप में ही प्रकृति प्रदत सौन्दर्य और संसाधनों की आत्ममुग्धता में मस्त तरीके से जीने वाला आत्मनिर्भर समाज। बाहरी सत्ता के दख़ल ने इस चुप समाज की संप्रभुता, संपूर्णता, सामाजिकता, आत्मसम्मान, आत्मनिर्भता और आत्ममुग्धता को निरंतर कमजोर करने का प्रयास किया। और, यह क्रम आज भी जारी है।


निसंदेह, लेखक ने तरह-तरह के स्रोतों, किताबों, रिपोर्टों और शोध पत्रों ओर स्थानीय समाज से बाहर निकलकर चिपको आन्दोलन की गहनता, गम्भीरता, गौरव और गल्तियों की तीखी पड़ताल की है। जंगल और वनवासियों के नैसर्गिक अतंःसंबधों को व्यापक और बहुआयामी फलक देकर आम जन की सशक्त अभिव्यक्ति किताब में हुई है। घटनाओं और प्रसंगों के संदर्भ बहुत लुभाते हैं, उनसे ठोस, व्यवस्थित और प्रामाणिक जानकारियां मिलती है। चिपको के बहाने 20वीं सदी के प्रारम्भ से आखिर तक के पलते-बढ़ते उत्तराखण्ड के मन-मस्तिष्क का मिज़ाज़ इसमें है। इस नाते उस दौर के व्यक्तित्वों, संस्थाओं और शासन-प्रशासन की नीति-नियत से हम परिचित होते हैं। यह किताब विगत काल में उत्तराखण्ड की तमाम सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक घटनाओं तथा जन-आन्दोलनों का प्रामाणिक दस्तावेजों़ और संदर्भों को साथ लिए उनकी गहन समीक्षात्मक कमेंट्री करती हुई लगती है।

उत्तराखण्ड हिमालय के जंगलों पर (गोविन्द बल्लभ पंत, अनुपम मिश्र, अनिल अग्रवाल, रधुवीर सहाय, जयन्ता बद्योपाध्याय, वंदना शिवा, सुनीता नारायण, जी.डी. बैरीमन, माधव आशीष, भारत डोगरा, सुंदरलाल बहुगुणा, चंडीप्रसाद भट्ट, थॉमस वेबर, रामचन्द्र गुहा, बलदेव सिंह आर्य कमेटी कुमाऊं जंगलात जांच समिति, जर्मन वन विषेषज्ञ फ्रेंज हेस्के की रिपोर्ट आदि तमाम) अध्येयताओं की नज़र और लोक की समझ को समझते-समझाते हुए शेखर पाठक ने प्रचलित मिथक और मान्यताओं से हटकर इस किताब को लोक की नजर से लिखा है।


किताब 601 पृष्ठों के फैलाव में 14 अघ्यायों में समाई है। चिपको का मातृ क्षेत्र, औपनिवेशिक शासन का आगमन, जंगलात की पहली लड़ाई, उत्तर-औपनिवेशिक जंगलात परिदृश्य, चिपको के प्रस्फुटन से पहले, चिपको की पहली लहर, दूसरी लहरः उत्तरकाशी से अल्मोड़ा, आपातकाल के बाद तीसरी लहर, चौथी लहरः दमन और प्रतिकार, वन अधिनियम 1980 के बाद, चिपकोः एक पड़ताल, चिपकोः आर्थिक और पारिस्थितिक, चिपकोः महिलाओं और युवाओं का योगदान, चिपको के 40 सालः धुंधलाती चमक और सतत कौंध।

जंगलात आन्दोलनों का विकास-क्रम




चिपको के मातृ क्षेत्र उत्तराखण्ड की भौगोलिक संरचना, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, जैविक परिदृश्य और सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता के परिचय के बाद औपनिवेषिक शासन काल में जंगलों के बदलते स्वरूप को किताब में समझा जा सकता है। किताब बताती है कि शासकों ने हमेशा आम आदमी को जंगलों का दुश्मन माना। उनके लिए आम ग्रामीण जंगलों के ‘अवांछित याचक’ ही रहे हैं, जबकि सत्ता के लिए जंगल आय और आनंद के केन्द्र रहे हैं। बिडम्बना यह है कि देश में सन् 1864 में जंगलात विभाग के गठन से आज तक यह कुविचार हमेशा हावी रहा है।

यह किताब उत्तराखण्ड में 19वीं और 20वीं शताब्दी के ऐतिहासिक जंगलात आन्दोलनों के अनाम नायकों को सामने लाई है, जिन पर पूर्व अध्येयताओं की नज़र नहीं पड़ी है। टिहरी रियासत की अठूर पट्टी में बदरीसिंह असवाल (सन् 1851), लक्षमसिंह कठैत (सन् 1882) और सकलाना पट्टी के भजनसिंह संकरवाण (सन् 1901) ऐसे ही जांबाज वन आन्दोलनकारी थे।

औपनिवेशिक शासनकाल में उत्तराखण्ड में जंगलों के दोहन के दृष्टिगत सरकारी अधिकारियों का जंगली इलाकों की ओर होने वाले निरंतर भ्रमणों ने आम जनता को बेगारी के दलदल में फंसाया। बाद में बेगार और जंगलात के खिलाफ़ जनता की यही साझी पीड़ा स्वाधीनता आन्दोलन में मुखरित हुई थी। पहाड़ों में जंगल और बेगार आन्दोलनों ने स्थानीय निवासियों को स्वाधीनता आन्दोलन से जोडा। ‘‘राष्ट्रीय संग्राम ने जंगलों को ‘जीवन मरण का प्रश्न’ माना। बेगार तथा जंगलात के प्रश्नों ने उत्तराखण्ड को शेष देश से जोड़ा था। पहला इज़्ज़त का सवाल था और दूसरा अस्तित्व का। इसलिए जंगल सदा आन्दोलन का विषय रहे (पृष्ठ-32)।’’

उत्तराखण्ड में प्रारंभ से ही अंग्रेजी सत्ता का विरोध मुख्यतया जंगलात और कुली बेगार के आन्दोलन ही थे। तत्कालीन समाचार-पत्र, पत्रिकायें और सरकारी रिर्पोट इसकी पुष्टि करते हैं। सन् 1868 में उत्तराखण्ड में हिमालय क्षेत्र से प्रकाशित प्रथम हिन्दी समाचार पत्र ‘समय विनोद’ ने जंगलों के बारे में सरकारी नीति का विरोध किया था। उसके बाद के समाचार पत्रों यथा- अलमोड़ा अखबार, गढ़वाली, शक्ति, स्वाधीन प्रजा, आदि ने पहाड़ और जंगलों के अन्तर्सम्बन्धों को समय-समय पर उजागर करके जनता और जन-प्रतिनिधियों के रोष को प्रकट किया था। बेगार और जंगलात की समस्याओं से परेशान होकर बीसवीं सदी आते-आते ग्रामीणों का जंगलों के प्रति मोहभंग होने लगा। पहले जंगल में लगी आग को बुझाने जहां ग्रामीण दौड़े चले जाते थे, अब आग बुझाने के प्रति वे तटस्थ होने लगे। कहीं-कहीं तो नाराज ग्रामीणों द्वारा जंगलों में आग लगाने की घटना भी होने लगी थी। सन् 1903 में लार्ड कर्जन के कुमाऊं दौरे पर बेगार और जंगलात की समस्याओं को प्रमुखता से उठाया था। ये अलग बात है कि कर्जन ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। अंग्रेज शासकों का यह उपेक्षित व्यवहार ही बाद में जंगलात नीति के प्रति जन आक्रोश का कारण बना। टिहरी रियासत के विरुद्ध 30 मई, 1930 के ‘तिलाड़ी विद्रोह’ के मूल में स्थानीय जनता द्वारा जंगलों पर अपने परंपरागत अधिकारों को बचाना ही था।

उस काल में ग्रामीण जनता का सबसे बड़ा और नजदीकी शत्रु जगंलात महकमा था। ग्रामीणों को जब भी मौका मिलता वे अपना विरोध प्रकट करते थे। परन्तु उनकी आवाज़ अनसुनी ही रह जाती थी। सन् 1916 में कुमाऊं परिषद के गठन के बाद जंगलात नीतियों के प्रति संगठित तरीके से विरोध होने लगा था। कुमाऊं परिषद की बैठकों और अधिवेशनों का प्रमुख मुद्दा जंगल और बेगार आन्दोलन ही हुआ करते थे। समस्या की गम्भीरता को अभिव्यक्त करते हुए दो प्रसंग विचारणीय हैं। 13 अगस्त, 1918 को प्रान्तीय काउन्सिल में तारादत्त गैरोला ने एक सैनिक द्वारा उनको भेजे गए मार्मिक पत्र का उल्लेख किया कि ‘‘हम तो यहां लड़ रहे हैं और साम्राज्य की रक्षा कर रहे हैं, पर हमारे भाई बेगार और जंगलात के कष्ट सह रहे हैैं (पृष्ठ-90)।’’ एक दूसरे प्रसंग में ‘‘यूरोप के युद्ध मोर्चे पर कुमाऊं के एक घायल सिपाही के पास जब ब्रिटिश बादशाह आये और तकलीफ़ों के बारे में पूछा तो उसने तत्काल हज़ारों मील दूर स्थित अपने गांव और परिवार को परेशान करने वाले पटवारी तथा पतरौल के विरुद्ध शिकायत की थी (पृष्ठ-96)।’’

स्वतंत्रता के बाद के सामाजिक आन्दोलन

‘‘यदि 1864, जब औपनिवेशिक जंगलात नीति का बीजारोपण हुआ, में भारत की धरती के 40 प्रतिशत भाग पर जंगल थे, तो लगभग एक सदी बाद 1952 में स्वतन्त्र भारत की पहली वन नीति बनते समय यह प्रतिशत 22 पर आ गया था। जितना व्यापारिक दोहन बढ़ा उतना ही वनवासियों और गिरिजनों का जीवनाधार सिमटता-सूखता गया (पृष्ठ-123)।’’

यह अफसोस जनक है कि स्वाधीनता से पहले वन समस्याओं पर मुखर और वैचारिक दृष्टि देने वाले गोविंद बल्लभ पंत अपने शासन काल में जंगलों की कोई जनपक्षीय नीति नहीं बना पाये। उनके उदासीन और अड़ियल रुख के कारण उत्तराखण्ड में वन समस्यायें जटिल होती गई। यह भी विडम्बना है कि चिपको आंदोलन के प्रारम्भिक दौर में उप्र. के तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवतीनंदन बहुगुणा ‘चिपको विचार’ को संकीर्ण क्षेत्रीयता से प्रेरित मान रहे थे। यद्यपि, चिपको आन्दोलनकारियों से प्रत्यक्ष विचार-विमर्श के उपरान्त उन्होने इस आन्दोलन की रचनात्मकता और उपादेयता को समझा। नतीज़न, उनके द्वारा जनमुखी वन नीति का प्रारूप बनाने की पहल हुई थी। लेकिन, औपनिवेशिक जकड़ता में जकड़ा जंगलात प्रशासन उन्हे भरमाने में प्रभावी रहा। जिसके कारण पहाड़ के वनों पर वनवासियों के परम्परागत हक-हकूकों की उपेक्षा कर व्यापारिक कम्पनियों के हितों का ही पोषण होता रहा।

आजादी के बाद उत्तराखण्ड में वन और वनवासियों की स्थिति और सुधार के दृष्टिगत जन दबाव के बाद बलदेव सिंह आर्य की अध्यक्षता में कुमाऊं जंगलात जांच समिति-1959 (कुजजास) का गठन किया गया था। समिति ने जंगलों पर स्थानीय निवासियों के परम्परागत हक-हकूकों को स्वीकारते हुए महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे। लेखक का मानना है कि ‘‘समिति की मांगें यदि गम्भीरतापूर्वक मानी जातीं तो अगले दशकों में प्रकट व्यापक जन असन्तोष तथा जंगलात आन्दोलनों के उदय को रोका जा सकता था और प्राकृतिक संसाधनों की हिफ़ाज़त के ज़्यादा कारगर तरीके जन सहयोग से निकाले जा सकते थे। कौशिक समिति से पहले कदाचित यही रपट थी, जिसमें जनता की इतनी व्यापक हिस्सेदारी हुई थी (पृष्ठ-134)।‘‘ परन्तु, पहले अग्रेजों और फिर काले अग्रेजों की सरकारों ने वनों और वनवासियों के आपसी परम्परागत रिश्तों के प्रति हमेशा बेरुखी रखी, उन्हें केवल तात्कालिक हित ही सूझता था। आज भी वही हाल है।

स्वतंत्रता के बाद उत्तराखण्ड में अधिकांश सामाजिक कार्यकर्ताओं की सक्रियता सर्वोदयी आवरण में रही। सर्वोदयी अपने राष्ट्रीय अभियान भूदान और नशाबंदी से अभिप्रेरित थे। उन्हें उत्तराखण्ड की जमीनी समस्याओं को समझने में वक्त लगा। इसीलिए प्रारंभ में सत्ताधारी कांग्रेस की पहाड़ विरोधी ज़मीन, जंगल और जल नीतियों का वे सीधा विरोध नहीं कर पाये। ऐसे मे साम्यवादी और समाजवादी कार्यकर्ताओं ने पहाड़ी जमीन और जंगल के प्रश्नों को उठाया। परन्तु उनकी सीमायें थी। साथ ही, जनसामान्य में नव-सम्भ्रान्तों के प्रभावशाली वर्ग ने सरकार के माध्यम से अपने हित साधने में कामयाबी हासिल कर ली थी। अपनी राजनैतिक और व्यापारिक घुसपैठ एवं ताकत के बदौलत यह नव-सम्भ्रान्त वर्ग ही पहाड़ी समाज का असली नियामक बन गया था। शेखर पाठक इनके बारे में लिखते हैं कि ‘‘पहाड़ी आदमी के कठिन भूगोल में सरल होने और संसाधनों के बीच क्षतिग्रस्त होने का देश या प्रदेश की सरकारों और ‘स्थानीय सम्भ्रान्तों’ पर कोई असर न था।

यह ‘सम्भ्रान्त’ उत्तराखण्ड के समाज का वह हिस्सा था जो उत्तराखण्ड के कस्बों-नगरों या देश में अन्यत्र स्थापित हो गया था और एक प्रकार से उत्तराखण्ड की लूट में या तो शामिल था या सहयोगी अथवा तटस्थ दर्शक। कभी-कभी यह वर्ग विवश होकर जन सक्रियता में शामिल हो जाता था। यह औपनिवेशिक काल के भद्रलोक की तरह ईमानदार भी न था। यह समूह उत्तराखण्ड के सामाजिक और प्राकृतिक शोषण में अधिकांश बार सरकारों या ठेकेदार पूंजीपतियों को ही सहयोग देता रहा था। उत्तराखण्ड के विभिन्न समुदायों की जो सम्पदा-जंगल, ज़मीन, चरागाह, नदी तथा ताल आदि- औपनिवेशिक सत्ता ने विभिन्न बन्दोबस्तों द्वारा ले ली थी, उसे वह जाते समय नयी देशी सरकार को दे गयी। जिसे अब इस नयी सरकार ने अपने पास स्थायी रूप से रख लिया था। यह ऐसा औपनिवेशिक कानून था जिसका पालन करना जैसे नयी जनतान्त्रिक सरकार के लिए अनिवार्य हो। पर अब उत्तराखण्ड के बहुत चुप हिस्से के बोलने की बारी थी। राष्ट्रीय संग्राम और टिहरी रियासत के संघर्षों में भी यह चुप हिस्सा बहुत बार बोला था पर इस बार यह किन्हीं और नेताओं को अपनी ताकत पर खड़ा नहीं कर रहा था। ख़ुद खड़ा हो रहा था (पृष्ठः176)।’’

उत्तराखण्ड में 60 के दशक में जमीन और जंगलात के मुद्दे प्रमुखता से सार्वजनिक बहसों में मुखरित होने लगे थे। परिणाम स्वरूप, पहाड़ की मूलभूत समस्याओं के निराकरण के लिए सन् 1967 में पर्वतीय विकास परिषद का गठन किया गया। 30 मई, 1968 से तिलाड़ी जन-विद्रोह की याद में ‘वन दिवस’ मनाने की शुरूआत की गई। वन समस्या अब आम बहस का मुद्दा बन गयी थी। सन् 1969 के मध्यावधि विधान सभा चुनाओं में पहली बार पहाड़ी जमीन और जंगल की समस्यायें राजनैतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्रों में आई। यह गौरतलब है कि संपूर्ण हिमालय के समग्र विकास के दृष्टिगत मार्च, 1972 में पिथौरागढ़ के तत्कालीन विधायक हीरा सिंह बोरा ने केन्द्र सरकार को ‘हिमालय सैल’ का अभिनव विचार दिया था (पृष्ठ-163)।

चिपको की शुरुआत

1970 के दशक में यह बात आम थी कि उत्तराखण्ड के पहाड़ों की वन उपज स्थानीय सहकारी समितियों को न देकर बाहरी निजी ठेकेदारों को दे दी जाती थी। वे कम धनराशि में वन उपज का ठेका प्राप्त करके तुरंत ऊंचे दामों में पुनः बेच देते थे। इस सांठ-गांठ में सरकारी अधिकारी, नेता और अन्य प्रभावशाली लोग शामिल रहते थे। प्रदेश सरकार की ऐसे ही कई पक्षपातपूर्ण और गलत वन नीतियों के खिलाफ जनता में जगह-जगह विरोध होते थे। परन्तु इन छिटके विरोधों में एकजुटता और सामुहिकता आनी अभी बाकी थी। और, उसकी शुरुआत 22 अक्टूबर, 1971 को गोपेश्वर में हजारों लोगों के निर्णायक प्रदर्शन से हो गई थी। जिसमें जनता द्वारा चेतावनी के स्वर में ऐलान किया गया कि ‘‘जंगलों से प्राप्त कच्चे माल पर अपनी रोजी के लिए पहला हक हमारा है (पृष्ठ-179)।’’ यह निकट भविष्य में आक्रमक वन आन्दोलन के पनपने की पहली स्पष्ट आहट थी।

सन् 1967 से 1973 तक पर्वतीय विकास परिषद की अक्षमता, शराब विरोधी आन्दोलन, पृथक राज्य आन्दोलन की सुगबुगाहट, विश्वविद्यालय के आन्दोलनों और अलकनंदा नदी में जुलाई, 1970 की बाढ़ के दबाव ने उत्तराखण्ड में वन आन्दोलनों को और तीव्र किया। ‘‘1970 के आसपास उत्तराखण्ड का समाज अनेक मामलों के लिए लड़ने को तत्पर हो रहा था। सरकार तथा नौकरशाही की संवेदनहीनता ने जनता के आक्रोश को धीरे-धीरे बढ़ाया। अनेक विषय एक बड़े एजेण्डे के नीचे आने की स्थिति में आ रहे थे। पहली बार यहां के छात्र तथा युवा शैक्षिक, सामाजिक तथा आर्थिक मामलों पर साथ-साथ सोचने लगे थे। उत्तराखण्ड की सबसे निर्णायक महिला शक्ति, जो शराबबन्दी आन्दोलन के दौर में सड़कों में आ चुकी थी, अब फिर मैदान में उतरने की तैयारी में थी। यह दशक आक्रामकता तथा रचनात्मकता दोनों से ही भरपूर होने वाला था (पृष्ठ-166)।’’

अपने परम्परागत जंगलों से बेदखल किए जा रहे ग्रामीणों के आक्रोश से बेखबर सरकार की मनमानी दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी। कृषि यंत्रों के लिए सर्वाधिक उपयोगी अंगू और चमखड़ीक की लकड़ी तक बाहरी कम्पनियों (प्रमुखतया विमको, साइमंड कम्पनी, स्टार पेपर मिल्स) को बेधड़क दी जा रही थी। परन्तु, स्थानीय सहकारी समितियों और कृषकों को हल, लाट और जुवा बनाने के लिए उपलब्ध नहीं हो पा रही थी। सरकार द्वारा यह प्रचारित किया गया कि अंगू और चमखड़ीक के बज़ाय पहाड़ में कृषि यंत्र चीड़ की लकड़ी से अधिक सुविधापूर्ण तरीके से बनाये जा सकते हैं।

दशौली ग्राम स्वराज्य संघ, पर्वतीय नवजीवन मण्डल, सिल्यारा, कुमाऊं वन पंचायत समिति, हेंवलघाटी वन सुरक्षा समिति, पर्वतीय वन बचाओ संघर्ष समिति, युवा एवं छात्र संगठन, ग्रामोत्थान छात्र संगठन, पर्वतीय युवा मोर्चा, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आदि के द्वारा सरकार की वन नीतियों के खिलाफ जगह-जगह पर संचालित आन्दोलन एक नई दिशा की ओर गतिशील हो रहे थे। इसी क्रम में 11 दिसम्बर, 1972 पुरौला प्रदर्शन, 12 दिसम्बर, 1972 उत्तरकाशी प्रदर्शन, 15 दिसम्बर, 1972 गोपेश्वर प्रदर्शन, 4-8 नवम्बर, 1973 जोशीमठ-रेणी की ओर वन बचाओ पैदल यात्रा, 25 दिसम्बर, 1973 रामपुर-फाटा प्रदर्शन, 15 मार्च, 1974 जोशीमठ प्रर्दशन ने ऐलान कर दिया था कि पहाड़ी जनता द्वारा अपने जंगलों की हिफाज़त के लिए आर-पार की लड़ाई लड़ी जायेगी। इसमें ठेकेदारी प्रथा की समाप्ति, कच्चे माल-वन उपज को बाहर न भेज कर उसका स्थानीय उपयोग, वन प्रबंधन में स्थानीय लोगों की सहभागिता, पहाड़ों में वनों के प्रस्तावित कटानों को निरस्त किया जाना आदि की प्रबल मांग की जाने लगी थी।

पांगरवासा-मंडल और मैखंडा-फाटा के वन कटानों को निरस्त कराने में सफलता के बाद रेणी के जंगल में होने वाले वन कटान को रोकने के लिए वन आन्दोलनकारी सक्रिय थे। पेड़ काटने के लिए ठेकेदार के मजदूर जैसे ही जंगल की ओर जाते दिखे ग्रामीण ढ़ोल, नगाड़ा, भंकारे और शंख बजा कर सारे इलाके को इतला कर देते थे। तब, वन कटान को गए सरकारी कर्मचारियों और ठेकेदार की गैंग को भागने के सिवा और कोई चारा नहीं रह पाता था।

‘‘23 मार्च, 1974 को राजकीय महाविद्यालय, गोपेश्वर के छात्रों ने एक ज्ञापन चमोली के जिलाधिकारी को दिया और रेणी का कटान रोकने की मांग की। ज्ञापन देने वालों में अधिकांश छात्र जोशीमठ क्षेत्र के थे। 24 मार्च को ये लगभग 60 छात्र गोपेश्वर से बस द्वारा जोशीमठ आये और उन्होने वहां प्रदर्शन किया। जुलूस में गोविन्द सिंह रावत आगे-आगे चल रहे थे और नारे लगा रहे थे (पृष्ठ-205)।’’

एक तरफ रेणी के जंगल को बचाने के लिए स्थानीय जनता लामबंद हो रही थी तो दूसरी ओर जिला प्रशासन, चमोली ने गुपचुप तरीके से रेणी के जंगल के लगभग 2500 पेड़ों के कटान की तारीख़ 26 मार्च निर्धारित कर दी थी। दूसरे तरफ़ बड़ी चालकी से सन् 1962 के चीन युद्ध के बाद सीमान्त क्षेत्र में ग्रामीणों की भूमि अधिग्रहण के मुआवज़े के वितरण के लिए जिला प्रशासन ने इसी दिन 26 मार्च, 1974 को मलारी, रेणी, लाता के अलावा और भी गांवों के लोगों को चमोली में बुला दिया। अतः इन गांवों में इस दिन केवल महिलायें, बूढ़े और बच्चे ही रह गये थे।

26 मार्च, 1974 की सुबह रेणी के सितेल जंगल की ओर जाते हुए अज़नबी लोगों की सूचना एक बालिका ने गांव के महिला मंगल दल की अध्यक्षा गौरा देवी को दी। तुरंत गौरा देवी के साथ 21 महिलायें और 7 बच्चे सितेल जंगल पहुंच कर पेड़ों को काटने आये मजदूरों के सामने निडर होकर उन्हें चेतावनी देने लगे।

महिलाओं ने ‘इस जंगल को अपना मायका बताते हुए कहा कि यही उनके जीवन और जीवकोपार्जन का मुख्य आधार है। उन्होने मजदूरों को यह भी समझाया कि आज के दिन गांव के पुरुष चमोली गए हैं। अतः उनके आने तक का आप लोग इंतजार करिये।’ परन्तु सरकारी ताकत की धौंस दिखाते हुए बंदूकधारी फारेस्ट गार्ड ने महिलाओं को धमकाना शुरू कर दिया।

‘‘औरतों के मन में इस बन्दूकधारी को नियन्त्रित करने हेतु मन्थन चल ही रहा था कि गौरा देवी ने अपनी आंगड़ी के बटन खोलते हुए कहा, ‘लो मारो बन्दूक और काट ले जाओ हमारा मायका!’ सर्वत्र चुप्पी छा गयी। नीचे ऋषिगंगा बह रही थी और ऊपर नन्दादेवी की तरफ़ उठते पहाड़ खड़े थे। बीच में यह प्रतिरोध के पराकाष्ठा पर पहुंचने की चुप्पी थी। इतिहास का एक असाधारण क्षण था यह। ऐसा क्षण 13 जनवरी, 1921 को बागेश्वर में प्रकट हुआ था या 23 अप्रैल, 1930 को पेशावर में। लगता था जैसे गौरा देवी तथा उनके सहयोगियों के मार्फत सिर्फ़ रेणी नहीं, पूरा उत्तराखंड बोल रहा था बल्कि देश के सब वनवासी बोल रहे थे (पृष्ठ-208)।’’ आखिरकार, मातृशक्ति के आगे सरकारी मनमानी को झुकना पड़ा। और, सितेल-रेणी का जंगल और गांव की महिलाओं का मायका लुटने से बचा लिया गया।

पांगरवासा-मंडल और मैखंडा-फाटा के बाद सितेल-रेणी के जंगलों को बचाने से उत्साहित वन आन्दोलनकारियों का ‘‘31 मार्च 1974 को इस घाटी का कदाचित् सबसे बड़ा और भव्यतम प्रदर्शन हुआ। जैसे पूरी धौली घाटी रेणी की सड़क पर इक्कठ्ठा हो गयी हो।….हर ओर से परम्परागत और रंग-बिरंगे कपड़े पहने आदमी, औरतें, बच्चे आ रहे थे। गाजे-बाजों के साथ कुछ समूह नन्दादेवी के गीत गा रहे थे तो कुछ समूह उन नारों को दोहरा रहे थे, जिन्हें कार्यकर्ताओं ने पिछले महीनों में गांवों में बोया था (पृष्ठ-210)।’’

चिपको की लोकप्रियता

रेणी में 26 मार्च, 1974 को महिलाओं द्वारा अपने गांव के जंगल को बचाने की घटना प्रदेश, देश और दुनिया में चर्चा का विषय बनी। महिलाओं के अदम्य साहस और दूरदर्शी सोच की सराहना देश-विदेश के समाचार पत्र-पत्रिकाओं में होने लगी। रेणी की जीत को महिलाओं का जन-आन्दोलन में प्रकट रूप में सामने आने की सफल कोशिश मानी गई। यह भी प्रमाणित हुआ कि सरकार की वनों के प्रति जो दोषपूर्ण नीति थी, उससे महिलायें सीधे और सर्वाधिक प्रभावित थी। यह सभी ने स्वीकारा कि पेड़ों को कटने से बचाने के समय गौरा देवी और उसकी साथियों के मन-मस्तिष्क में पहाड़ी जनजीवन के अस्तित्व एवं अस्मिता दोनों की रक्षा और सम्मान का विचार सर्वोपरि था। यह क्षण प्रकृति और मानव के आत्म-संबधों की खूबसूरत स्वयं-स्फूर्त अभिव्यक्ति थी।

यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि वर्ष 1974 में चिपको के समानान्तर और साथ-साथ उत्तराखण्ड में तीन अन्य आन्दोलनों-अभियानों ने भी जोर पकड़ा। इन तीनों घटनाओं ने चिपको की छत्रछाया में एक-दूसरे को उनके निश्चित मुकाम तक ले जाने में सहयोगी और मार्गदर्शी की भूमिका अदा की थी।

पहला- बदरीनाथ आन्दोलन, जिसमें बिड़ला परिवार द्वारा नया बदरीनाथ मंदिर बनाने का जनता ने विरोध किया था। इसे उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक सम्पदा और बदरीनाथ मंदिर की प्राचीनता पर खतरा माना गया। दूसरा- चूना-पत्थरों के विदोहन के विरुद्ध आंदोलन- टिहरी जनपद के सकलाना क्षेत्र और टिहरी-देहरादून जनपद में फैली सोंगघाटी में चूना-पत्थरों के विदोहन के विरुद्ध आंदोलन में विभिन्न सामाजिक कार्यकर्ता एकजुटता के साथ सक्रिय हुए। उक्त दोनों आन्दोलनों की सफलता पर चिपको का स्पष्ट प्रभाव था।

चिपको के शुरुआती दौर में एक अभिनव अभियान ने सबका ध्यान अपनी तरफ खींचा। यह अभियान कुमाऊं-गढ़वाल के युवाओं की साझे भागेदारी में उत्तराखण्ड के पूर्वी हिस्से अस्कोट से पश्चिमी हिस्से आराकोट तक की पैदल यात्रा करने का था। ‘अस्कोट-आराकोट अभियान’ के बैनर तले 25 मई, 1974 को अस्कोट (पिथौरागढ़) से यह यात्रा आरम्भ हुई थी। जंगलों की सुरक्षा, नशाबन्दी, जनजागृति, युवाओं को रचनात्मकता की ओर अभिप्रेरित करना और दुर्गम इलाकों में विकास की पड़ताल करना इस अभियान के प्रमुख उद्देश्य थे।

‘‘चिपको आन्दोलन के संदर्भ में यह यात्रा इस अर्थ में महत्वपूर्ण थी कि अब तक विकसित चिपको सन्देश और शैलानी के गीत इसके मार्फत उत्तराखण्ड के दूरस्थ दुर्गम क्षेत्रों के गांवों में पहुंचे। दूसरी ओर यात्रियों ने स्वयं जंगल का यथार्थ देखा। यात्रियों ने पाया कि जगह-जगह जंगलों का कटान और जड़ी-बूटियों की लूट जारी थी। अनेक नदियां स्लीपरों से भरी थीं क्योंकि स्लीपरों का बहान हो रहा था। लीसे और चीड़ की लकड़ी के सीधे मिलों को जाने का तथ्य पता चला। रोजगार, नफ़ा, मज़दूरी या कच्चा माल स्थानीय समाज को नहीं मिल पा रहा था। उसके हिस्से भूस्खलन, बाढ़, चारे-लकड़ी का अभाव आ रहा था। उत्तराखण्ड की सामाजिक-सांस्कृतिक तथा भौगोलिक-वानस्पतिक विविधता इस यात्रा से समझी जा सकी, जो बाद में चिपको तथा अन्य आन्दोलनों का आधार बनी (पृष्ठ-219)।’’

लेखक ने यह माना है कि ‘‘यात्राओं से जन-आन्दोलन विकसित होते हैं या नहीं यह आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ दिया जाय पर यात्राएं शिरकत करने वाले को समझदार और संवेदनशील अवश्य बनाती हैं (पृष्ठ-219)।’’ अस्कोट-आराकोट अभियान’ में भाग लेने वाले युवा बाद मेें उत्तराखण्ड के समग्र विकास के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय हुए और उन्होने अपनी एक लोकप्रिय सामाजिक पहचान बनाई। (महत्वपूर्ण यह भी है कि, वर्ष 1974 के अस्कोट-आराकोट अभियान के बाद पहाड़ संस्था द्वारा हर दस साल में यह अध्ययन यात्रा की जाती रही है। साथ ही अध्ययन यात्रा के अनुभवों का दस्तावेज़ के रूप में प्रकाशन किया जाता रहा है। सन् 1974 के बाद यह यात्रा 1984, 1994, 2004 और 2014 में आयोजित की गई। इस अभियान में 1974 में कुछ गिनती के नौजवान शामिल थे, यह संख्या वर्ष 2014 में 260 से अधिक रही, जिसमें 60 महिलायें थी।)

पांगरवासा-मंडल, मैखंडा-फाटा और सितेल-रेणी के जंगलों को बचाने की जीत ने चिपको आन्दोलन को आम लोगों से लेकर नीति-नियंताओं की जुबान पर ला दिया था। मज़बूरन ही सही, प्रदेश सरकार का ध्यान उत्तराखण्ड के संदर्भ में कुमाऊं जंगलात जांच समिति, 1959 के सुझावों और चिपको की मांगों पर विचार करने की ओर गया। सरकार द्वारा रेणी जांच कमेटी बनायी गई जिसने पहाड़ में वनों के संबंध में रिपोर्ट तैयार की। अकादमिक जगत में वनों के संरक्षण और संवर्धन पर केन्द्रित लेखन और संगोष्ठियों का एक नया दौर शुरू हुआ।

चिपको की आगे की यात्रा में उत्तरकाशी में वयाली जंगलात आन्दोलन और कुमाऊं क्षेत्र में पर्वतीय वन बचाओ संघर्ष समिति के आन्दोलनों ने जनता में अपनी गहरी पैठ बनाई। युवाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं में जगह-जगह पदयात्राओं का दौर चलने लगा।

चिपको कार्यकर्ताओं ने गांव-इलाके के सांस्कृतिक समारोहों, लोक उत्सवों, भागवत कथाओं, जागरूकता शिविरों और कार्यकर्ताओं के आपसी मेल-जोल के माध्यम से चिपको के उद्धेश्य, संदेश और कार्यक्रमों को लोकप्रिय बनाया। ग्रामीणों विशेषकर महिलाओं ने सार्वजनिक स्थलों में अपनी बात स्वतंत्र और बिना हिचक के प्रस्तुत करना सीखा। वनों के प्रति ग्रामीणों की सामाजिक सक्रियता बढ़ी। नतीज़न, वन कटान के विरुद्ध धरने-प्रदर्शनों के कारण कई जगहों पर वनों की नीलामी स्थगित हुई। साथ ही, जंगलात के मजदूरों की मज़दूरी में वृद्धि और उनकी कार्य पद्धति एवं दशा में सुधार हुआ।

परन्तु, इन सब सकारात्मक परिवर्तनों के बीच सरकारी चालाकियां बदस्तूर जारी थी। सरकार अप्रत्यक्ष तौर पर चिपको आन्दोलन को कमजोर करने के कई हथकंडे अपनाती रही। वन आन्दोलनकारियों को प्रलोभनों की पेशकश की जाने लगी। सरकार एक तरफ वन बचाओ समितियों की बात करती तो दूसरी तरफ जंगल का कटान जारी रखे हुए थी।

जनप्रतिनिधि-सामाजिक कार्यकर्ता जो प्रारम्भ में चिपको आन्दोलन के साथ खड़े थे, सत्ता में आकर विरोध में आचरण करने लगे थे। सत्ता में पहुंचे उन अपने ही साथियों से वन आन्दोलनकारियों को लड़ना अधिक कष्टकारी और कठिन था। परन्तु इसके बावजूद चिपको विचार के निरंतर बढ़ते प्रभाव और दबाव से प्रदेश और देश की सरकार में ज़बरदस्त कसमसाहट व्याप्त हो रही थी।

इसी दौर में उत्तराखण्ड के कुछ सर्वोदयी और साम्यवादी विचारों के निकट सामाजिक कार्यकर्ताओं की सक्रियता में एक नया मोड़ आया। पर्वतीय युवा मोर्चा, युवा निर्माण समिति और उत्तराखण्ड सर्वोदय मण्डल ने आपसी सहमति से 25 मई, 1977 को गोपेश्वर में ‘उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी’ का गठन किया। उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी चिपको विचार के विस्तार और विकास की ही उपज थी। चुनावी राजनीति से दूर रह कर उत्तराखण्ड के समग्र विकास को उचित दिशा और गति देना उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी का केन्द्रीय ध्येय विचार माना गया। (परन्तु अपने गठन के एक दशक बाद ही ‘उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी’ को चुनावी राजनीति का हिस्सा बनना पड़ा। आज उत्तराखण्ड के राजनैतिक परिदृष्य में ‘उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी’ और ‘उत्तराखण्ड लोक वाहिनी’ बीती ‘उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी’ के ही दो छोर हैं। निसंदेह, ‘उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी’ के उदय, उभार, अलगाव और अवसान पर गम्भीर और गहन शोध की आवश्यकता है।)

‘उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी’ 70 और 80 के दशक में युवाओं को ‘पढ़ाई के साथ लड़ाई’ नारे को लिए सामाजिक सरोकारों से जोड़ने और उन्हें दक्ष करने की शीर्ष संस्था के रूप में लोकप्रिय हुई। ‘उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी’ के नेतृत्व में सन् 1984 से संचालित ‘नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन’ मूलतः चिपको आन्दोलन का ही विस्तार था। परन्तु, सरकारी मोहजाल की गिरफ्त में आ चुका चिपको का शीर्ष नेतृत्व इस आन्दोलन में सक्रिय नहीं था। वाहिनी और चिपको नेतृत्व में आ रही दूरी की प्रारंभिक झलक यहीं से देखी जा सकती है।

लेखक का विचार है कि ‘किसी खास समय पर उठा सामाजिक आन्दोलन तुरंत राजनैतिक आन्दोलन नहीं बन पाता है। क्योंकि समझ से परिपक्व और प्रभावी सामाजिक कार्यकर्ता अपने को राजनैतिक कार्यकर्ता के रूप में अधिक सहज नहीं महसूस कर पाता है। ‘उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी’ के अनुभव इसी ओर इशारा करते हैं।’ यह किताब उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के गठन से लेकर उसकी सामाजिक सक्रियता से गायब होने की भी पड़ताल है।

उस दौर में प्रमुखतया, गोपेश्वर-जोशीमठ, टिहरी-उत्तरकाशी और अल्मोड़ा-नैनीताल में फैली चिपकों की गतिविधियां अपने स्थानीय आवरणों के अनुकूल संचालित होने लगी थी। जुलाई, 1977 में हेंवलघाटी वन सुरक्षा समिति’ का ‘मरहम पट्टी अभियान’, सितम्बर, 1977 में संघर्ष वाहिनी का ‘भूस्खलन संघर्ष समिति आन्दोलन’,  28 नवम्बर, 1977 को नैनीताल कांड, दिसम्बर, 1977 में चांचरीधार और भ्यूंढार जंगलात आन्दोलन, जनवरी, 1978 में अदवाणी प्रतिरोध, 16 फरवरी, 1978 को हल्द्वानी प्रदर्शन और उस प्रदर्शन में ज्यादती के खिलाफ़ 24 फरवरी, 1978 को संपूर्ण उत्तराखण्ड के अभूतपूर्व बंद ने वन आन्दोलनकारियों को सफलता के नये मुकाम दिए।

‘‘24 फरवरी, 1978 को उत्तराखण्ड का पहला ऐतिहासिक और समग्र बन्द हुआ। इससे पहले कभी भी पूरा उत्तराखण्ड एक साथ बन्द नहीं हुआ था। विश्वविद्यालयों की स्थापना के आन्दोलनों के समय अवश्य पूरे गढ़वाल या कुमाऊं क्षेत्र अलग-अलग बन्द हुए थे। जंगलात आन्दोलन के दमन के मुद्दे ने पूरे उत्तराखण्ड को पहली बार एक कर दिया था। यह अभूतपूर्व बन्द था और कुमाऊं तथा गढ़वाल के गांव-कस्बों-शहरों तक इसका फैलाव था। दून-तराई-भाबर से धारचूला, जोशीमठ और उत्तरकाशी तक सर्वत्र इसमें हिस्सेदारी थी और इसका व्यापक असर हुआ था। इस तरह के विरोध की अभिव्यक्ति 1994 में उत्तराखण्ड आन्दोलन में हो सकी। पर 1994 में बहुत कम लोगों को 24 फरवरी, 1978 के पहले, असाधारण और सफल बन्द की याद थी, जिसकी जड़ पर चिपको आन्दोलन था (पृष्ठ-298)।’’

सितम्बर, 1978 में नरेन्द्रनगर प्रदर्शन में चिपको कार्यकर्ताओं की इस इस घोषणा का व्यापक असर हुआ कि ‘उत्तराखण्ड में जहां-जहां वनों की नीलामी और कटान होगा उसका सीधा प्रतिरोध किया जायेगा।’ इसी तर्ज पर दिसम्बर, 1978 में टिहरी के बडियारगढ़ एवं अल्मोड़ा के जनोटी-पालड़ी और रंगोड़ी-ध्याड़ी तथा फरवरी, 1980 में चमोली के चिडंगा-जोला एवं डूंगरी-पैन्तोली क्षेत्रों में सरकारी दमन के बाद भी जबरदस्त आन्दोलन हुए।

चिपको के व्यक्तित्व, अलगाव एवं टूटन

सन् 1974 के बाद धीरे-धीरे चिपको आन्दोलन सर्वोदय और भाकपा की पहचान से बाहर निकलने लगा था। सर्वोदय और भाकपा का राष्ट्रीय नेतृत्व प्रारम्भ से ही चिपको के स्थानीय मिज़ाज, मूल भावना तथा जरूरत को नहीं समझ पा रहा था। सरला बहन और गोविंद सिंह रावत जरूर चिपको आन्दोलन की उपयोगिता को अपने संगठन में समझाते थे, परन्तु उनकी सीमायें थी। वास्तव में, सर्वोदय आन्दोलन कांग्रेसी विचारधारा का आदर्शवादी रूप था। इन अर्थों में सर्वोदयी कार्यकर्ता कांग्रेसी नेताओं के बड़े भाई ही तो थे। अतः उनका अन्तःभाव अच्छे कांग्रेसी आचरण में निहित था। साम्यवादी और जनसंघी विचारों के फलीभूत होने का भय उन्हें हर समय सताता रहता था। ये वे बखूबी जानते थे कि सर्वोदय की प्रतिभा और प्रतिष्ठा कांग्रेस शासन में ही फलीभूत हो सकती है।

राष्ट्रीय स्तर पर वन और पर्यावरण के प्रति बनी नई समझ के दृष्टिगत वन संरक्षण अधिनियम, 1980 अस्तित्व में आया। नये वन अधिनियम, 1980 के अनुसार ‘‘किसी भी वन क्षेत्र को गैर वन उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था। कहीं यदि ऐसा किया जाना है तो केन्द्र सरकार की अनुमति अनिवार्य थी। पर इस एक्ट द्वारा विकसित केन्द्रीयता स्थानीय समुदायों के लिए कुछ सन्दर्भों में संकट पैदा करेगी, तब यह नहीं सोचा गया था। दूसरा निर्णय उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लिया गया था पर उत्तराखण्ड के आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिक इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण था। इसके अनुसार 20 साल से अत्यन्त कम दामों में कच्चा माल प्राप्त कर रहे कारखाने को अब यह मिलना बन्द कर दिया गया। यह लम्बे समय से चली आ रही मांग तथा जन-आन्दोलन का आंशिक सम्मान था। तीसरा निर्णय 1,000 मीटर से ऊपर हरे पेड़ों के कटान पर रोक लगाना चिपको आन्दोलन की महत्वपूर्ण जीत थी (पृष्ठ-366)।’’

वन अधिनियम 1980 के लागू होते ही चिपको विचार को देश-दुनिया में वैचारिक समर्थन मिला। परन्तु अपनी जमीन पर उसे सामाजिक शंका और विरोध का भी सामना करना पड़ा। अधिकांश स्थानीय लोगों ने माना कि यह अधिनियम उनके जंगलों के परम्परागत अधिकारों की रक्षा के बजाय सत्ता के हित में जंगलों के संरक्षण और विकास के लिए बना है। पर जन प्रतिनिधियों ने इसे संसद और विधान सभा में पारित किया।

स्थानीय लोगों के मनोभावों को समझते हुए सरकार ने होशियारी से चिपको के शीर्ष नेतृत्वों को अलग-अलग तरीके से सार्वजनिक अभिनन्दनों, पुरस्कारों और सम्मानों के मोह-जाल में फंसाने के प्रयास आरम्भ कर दिए थे। और, बड़ी आसानी से सरकार ने इसमें कामयाबी भी हासिल कर ली थी। सरकार ने सीधी लड़ाई को तैयार चिपको के शीर्ष नेतृत्व को अपने पक्ष में करने की रणनीति बनाई। इसके तहत, सरकार द्वारा सुनियोजित तरीके से चुनिन्दा व्यक्तियों का व्यक्तिगत सम्मान किया जाने लगा। चिपको के आम कार्यकर्ताओं ने इसका कुछ सीमा तक विरोध भी किया। उनका मत था कि चिपको आन्दोलन का सम्मान होना चाहिए, व्यक्तित्वों का नहीं। कुवंर प्रसून और प्रताप शिखर जैसे कार्यकर्ता तो राजसत्ता से किसी भी प्रकार के सम्मान को लेने के विरोधी थे। परन्तु उनकी आवाज़ को अनुसुना कर दिया गया।

नतीज़न, सम्मानों ने चिपको के कुछ चेहरों को देश-दुनिया में ख्याति दी, इससे वे आदमी तो बड़े हो गए पर स्थानीय समाज और उनकी संस्थायें उनसे बहुत पीछे छूट गयीं। यह आन्दोलन दो वैचारिक पक्षों के जगह दो चेहरों को लिए आगे बढ़ने लगा। बाद में इन चमकते दो चेहरों ने सत्ता के चेहरे पर जन-उत्तरदायित्वों के सही निर्वहन न करने से जनता की नारज़गी से उपजी धूल को ही साफ करने में अपना योगदान दिया और दे रहे है। जिससे तबसे लेकर आज तक की सरकारें अपने को सहज और सुरक्षित महसूस कर सकी और कर रही हैं। (आज भी सरकार पर्यावरण के नाम पर बेखौफ है। जनता और कथित पर्यावरणविदों की आवाज परम्परागत गूंगे विरोध से आगे नहीं बड़ पाती है।) इनको मिले पुरस्कार कभी इनसे जुड़ी संस्थाओं के काम आये हों ऐसा कोई सार्वजनिक उदाहरण नज़र में तो नहीं है।

सुंदरलाल बहुगुणा का कद इतना बड़ा प्रचारित कर दिया गया कि उनके ही साथी उनको समझ पाने में असमर्थ रहते और अपने को उनके सामने बहुत छोटा समझने लगे। सरला बहन ने चंडी प्रसाद भट्ट को लिखे 18 सितम्बर, 1977 के पत्र में यही तो कहा कि ‘‘सुंदरलाल जी भावना के वश में नहीं हैं, वे खालिस बुद्धि से अपना काम करते हैं और अपने में बंद सा हो जाते हैं। जिससे अक्सर हम उन्हें अच्छी तरह नहीं समझ पाते हैं (पृष्ठ-553)।’’

चिपको की लोकप्रियता के कलेवर में देश-दुनिया में अलग-अलग तरीके से लेखकीय रंग भरे जाने लगे। परन्तु एक तरफ देश-दुनिया में चिपको आन्दोलन के प्रचार की धूम थी तो दूसरी तरफ उसके शीर्ष नेतृत्व के मध्य अहम और वहम की धूल मंडराने लगी थी। सम्मानों की ललक ने इसको और पनाह दी थी। चंडीप्रसाद भट्ट का गोपेश्वर से सरला बहन को लिखा गया 28 जनवरी 1978 के पत्र की बानगी देखिए ‘‘मेरी आपसे प्रार्थना है कि फिलहाल आप मुझे जो पत्र लिख रही हैं उसकी प्रति औरों को न भेजें (इशारा सुंदरलाल बहुगुणा)। न मेरे पत्र की नकल दूसरों को ही भेजें क्योंकि उनकी चर्चा तत्काल दिल्ली और लखनऊ में सुनने को मिलती है (पृष्ठ-562)।’’

व्यक्तिगत पुरस्कारों ने आम कार्यकर्ताओं में शंकायें और अलगाव भी पनपाया। इस नाते, पुरस्कारों ने चिपको आन्दोलन को ‘जोड़ा’ नहीं बल्कि ‘तोड़ा’ (आज भी सामाजिक आन्दोलनों को तोड़ने और कमजोर करने के लिए सरकार का ये सबसे कारगर अस्त्र-षस्त्र हैं)। चिपको के शीर्ष नेतृत्व में अलगाव के साथ आपसी प्रतिद्वन्द्विता बड़ती गई। सन् 1977 से ही दोनों दिग्गजों में अलगाव होने लगा था। दोनों ने ‘एकला चलो’ की नीति अपनाई। एक दूसरे से संवादहीनता की प्रवृति आम कार्यकर्ताओं तक भी पहुंचने लगी। आपसी कार्यक्रमों की सूचना को देने में कोताही होने लगी। सूचना होने और निमत्रण पर भी दूसरे के कार्यक्रम में न जाने की शुरूआत हो गई थी। इस सबके बावजूद, सामान्य कार्यकर्ताओं का आपसी विश्वास काफी समय तक बना रहा परन्तु संवादहीनता के कारण धीरे-धीरे उनमें भी दूरियां नज़र आने लगी थी।

जब से अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति चिपको से चिपकी उसका असली आवरण ढ़कने लगा। अति प्रचार के शोर-शराबे में उसका मूल आधार का खिसकना और कार्यकर्ताओं की खिसखिसाहट सामने नहीं आ पाती थी। सुन्दरलाल बहुगुणा का फलक ज्यादा व्यापक था। हिन्दी-अंग्रेजी की राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में अपने पर केन्द्रित उनके आलेख अक्सर छपते थे। सर्वोदय के लोकप्रिय आवरण में उनका दूरदर्षी व्यक्तित्व निखरता गया। उन्होने मीडिया मैनेजमैंट के गुरु मंत्रों को अपनी निजी छवि को निखारने में बखूबी उपयोग किया। चण्डीप्रसाद भट्ट इसमें हर पक्ष और स्तर पर कमत्र ही थे। इसलिए प्रारम्भिक दौर में चिपको के पर्याय सुन्दरलाल बहुगुणा ही रहे।

‘‘अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर यह विभाजन तब प्रकट हुआ जब नैरोबी में आयोजित संयुक्त राष्ट्र के यू.एन.डी.पी. द्वारा आयोजित ऊर्जा सम्मेलन में बहुगुणा और भट्ट एक साथ नहीं थे (पृष्ठ-379)।’’

 दोनों अग्रज वहां होने पर भी चिपको आन्दोलन का अलग-अलग प्रतिनिधित्व कर रहे थे। ये तो इंतहा थी। ये दोनों दिग्गजों के दंभ को दिखाता है। और, शीर्ष नेतृत्व का दंभ किस तरह सामाजिक आन्दोलनों को कमजोर करता है, इसकी बानगी है (उत्तराखण्ड के राजनेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, विषय विशेषज्ञों, धार्मिक विचारकों आदि के इसी तरह के आपसी अहम् ने आज भी उत्तराखण्डी समाज और व्यवस्था को कमजोर किया और कर रहे हैं।)

व्यक्तिगत सम्मान, निर्णय, अनशन किसी आन्दोलन को चलाने में विघटन और भ्रम ही पैदा करते हैं, इसका चिपको प्रामाणिक उदाहरण है। योगेश चन्द्र बहुगुणा का यह कथन ‘‘इस आन्दोलन में जो दरार पड़ी है उसका कारण शुद्धतावाद और उपयोगितावाद के बीच का सैद्धांतिक टकराव मानकर चलना घटनाओं को सरल करके देखना है। इस आन्दोलन के फूट के बीज दो नेताओं की आकांक्षाओं की टकराहट के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं (पृष्ठ-390)।’’

यह अनोखी बात है कि चिपको के कुछ चेहरे इतना चमके कि उनकी चौंधियाती चकाचौंध में अन्य चेहरे फीके ही नहीं गुमनाम हो गए। अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति और सम्मान से नवाजे गए सुंदरलाल बहुगुणा, चंडीप्रसाद भट्ट और कुछ हद तक गौरा देवी के अलावा और कोई भी चिपको का चर्चित चेहरा न बनाया गया और न बन पाया।

चिपको के वीरानें में गुमनाम रहे घनश्याम शैलानी, बचन लाल, आनंद सिंह बिष्ट, विमला बहुगुणा, गोविंद सिंह रावत, मुरारी लाल, शिशुपाल सिंह कंुवर, कुंवर प्रसून, मोहन सिंह, प्रताप शिखर, आलम सिंह बिष्ट, केदार सिंह, विजय जरधारी, जीवानन्द श्रीयाल, धूम सिंह नेगी, रमेश पहाड़ी, सुदेशा देवी, खड़क सिंह खनी, हयात सिंह, श्यामा देवी और ये क्रम और भी लम्बा है। चिपको आन्दोलन से जुड़े बहुसंख्यक कार्यकर्ताओं के परिवार आज भी कठिन दौर में हैं। चिपको की दिशा और दशा के बारे में इनमें से कुछ के कथन उनके अग्रणी साथियों और सत्ता की मिलीभगत को दर्शाते हैं।

आनंद सिंह बिष्ट की व्यथा इन शब्दों में बयान हुई कि ‘‘चिपको ने अंतरराष्ट्रीय ख्याति तो प्राप्त की, पुरस्कार भी दिलवाये, लेकिन अंगू का पेड़ नहीं दिला पाया, जिसके लिए यह शुरू किया गया था’’ (प्रभात उप्रेती, पर्वतवाणी, अगस्त, 1988)। एक मुलाकात में कभी गोविंद सिंह रावत ने कहा था कि ‘चिपको आन्दोलन को कुछ लोगों ने अपने हितों के लिए जनता से अपहरण कर दिया था।’

घनश्याम शैलानी का यह कहना कि ‘‘जब कोई सामाजिक आन्दोलन हमें बड़ा (समझदार) नहीं बनाता है तो हम (नेता/कार्यकर्ता) उसे (आन्दोलन को) छोटा बनाने लगते हैं। यह चिपको पर ही नहीं उत्तराखण्ड के तमाम आन्दोलनों पर सही और तल्ख टिप्पणी थी (पृष्ठ-425)।’’ एक पत्र में सरला बहन का यह कहना ‘‘मैं सच कहती हूं कि विमला (बहुगुणा) और उसके काम के सामने मैं नतमस्तक हो जाती हूं कि कौन इतनी कठिन परिस्थिति में, इतना कठिन काम करके, इतने कठिन व्यक्ति के साथ एडजस्ट करके अपने जीवन में पूरा सन्तोष मान सकती है। और जहां भी जाये सब पर प्रेम की वर्षा करती रहे (पृष्ठ-553)।’’

कौसानी आश्रम की प्रथम स्नातिका और सरला बहन की प्रिय शिष्या विमला बहुगुणा कहीं आगे होती यदि वे स्वतंत्र रूप में सामाजिक योगदान और सेवा करती। उन्होने अपनी जीवनीय प्रतिभा की समस्त संभावनायें सुंदरलालजी को समर्पित कर दी हैं। आज भी विमला बहुगुणा का कद सुन्दरलालजी से कहीं बडा और प्रेरक दिखता है।

सुंदरलाल बहुगुणा प्रारम्भ से ही स्थानीय लोगों के परम्परागत हक-हकूकों से जंगलों की हिफाज़त की बात ज्यादा करते थे। ख्याति मिलते ही उन्होने केवल इकालाजी की बात करना उचित समझा और आर्थिकी पर उनका स्वर धीमा होने लगा। बाद में चंडी प्रसाद भट्ट भी सुन्दर लाल बहुगुणा का अनुसरण करते हुए आर्थिक पक्ष से ज्यादा पारिस्थितिकी की ज्यादा वकालात करने लगे। बहुगुणा की तरह देश-दुनिया का पर्यावरणविद् का आकर्षण इसका कारण रहा होगा। जैसा कि शेखर पाठक ने लिखा है कि ‘‘अनेक विद्वान यह मानते हैं कि चिपको ने जिस चेतना को जन्म दिया उसमें दर्शन और व्यावहारिकता का समन्वय था। वह ‘आर्थिकी’ और ‘पारिस्थितिकी’ का आन्दोलन एक साथ बन गया। चिपको में सिर्फ़ ‘पारिस्थितिकी’ को ढूंढ़ने से स्वयं यहां का समाज शंकित हुआ और बना हुआ है (पृष्ठ-486)।’’

वन अधिनियम, 1980 के बाद आर्थिक और पारिस्थितिक धडों में बंटा चिपको अपने आधार से ही खिसकने लगा। चिपको आन्दोलन के कारण सबसे पहले प्रहार उसके कार्यकर्ताओं द्वारा संचालित स्थानीय सहकारी समितियों पर पड़ा। कच्चे माल न मिलने के कारण अस्सी का दशक आते-आते वे बंदी के कगार पर पहुंच गई थी। वन अधिनियम, 1980 के खिलाफ सन् 1988 में कुछ जगहों में जन-आक्रोश देखने को मिला। यद्यपि, चिपको के विरुद्ध प्रति चिपको/छीनो झपटों/पेड़ों को पटको आन्दोलनों को स्थान विषेष के किन्हीं राजनैतिक हितों को बनाये रखने उद्धेष्य से प्रचारित-प्रसारित किया गया था। गोविन्द सिंह रावत और विपिन त्रिपाठी जैसे चिपको विचारकों का ऐसे आन्दोलनों को गति देना उनकी राजनैतिक मज़बूरी थी। तथापि, ‘पेडों से चिपको’ से लेकर ‘पेड़ों को पटको’ तक की समय यात्रा के दौरान आम लोगों का मानना था कि एक तरफ चिपको आन्दोलन ने हमारे पैतृक हक-हकूकों को प्रतिबन्धित किया तो दूसरी ओर अब उनके गांव/इलाके के विकास में रोड़ा भी बन रहा है।

चिपको और वाहिनी के प्रमुख कार्यकर्ता खड़क सिंह खनी के अनुसार ‘‘संघर्ष वाहनी प्रारंभ से ही ‘चिपको’ और ‘वन आन्दोलन’ का फ़र्क जनता को बताती आई थी। लोग इस बात को समझ रहे थे कि चिपको (पर्यावरणवादी) नेताओं को सरकारी सेमीनारों में सादर बुलाया जाता है, और वन आंदोलन के नेताओं और कार्यकर्ताओं (वन-खनन पर जनता के अधिकार की मांग करने वालों) पर बेरहमी से सरकारी दमन चक्र चलता है। दरअसल, पर्यावरणवादी (चिपको नेता) सरकारी संरक्षण में इस आंदोलन को भटकाने में सफल रहे। वन विधेयक 1980 उन्हीं की कारगुज़ारियों का परिणाम था (‘सूरज को तो उगना ही था’ पृष्ठ-174)।’’

चिपको नेताओं और वन आंदोलनकारियों की नीति-नियत के मूलभूत अंतर को इंगित करते खनी के उक्त विचार 80 के दशक के उत्तराखण्ड का सामाजिक-राजनैतिक सच था। ‘चिपको’ शब्द नवजात अवस्था में ही ‘पर्यावरणवादी’ पहचान हासिल कर सरकारी पनाह पा गया था। बाद में, सरकारी संरक्षण-संपर्क में वे पर्यावरणवादी पुरस्कारों को झटकने में कामयाब रहे। इसके दूसरी तरफ़ वन आंदोलन के पक्षकार, आम उत्तराखण्डी जनता के जल-जंगल-जमीन के हक के लिए उनके साथ आज भी लड़ाई के अग्रिम मोर्चों पर तैनात हैं। कवि राजा खुगशाल की एक कविता इन पक्तियों से विराम लेती है जो कि चिपको के शीर्ष नेतृत्व की उस समय की मंशा को बखूबी बयां करती है-

कुछ लोग

पृथ्वी के पर्यावरण पर बोलते हुए

चुपचाप बचा गये एक-दूसरे को।

चिपको एक पड़ताल

‘‘सामाजिक आन्दोलन कभी भी पूरे समाधान प्रस्तुत नहीं कर पाते हैं। इस तरह असन्तोष का बीज बचा रहता है, जो आगामी समय फिर जन-आन्दोलन का कारण बनता है। ऐसा उत्तराखण्ड का बीसवीं सदी का सामाजिक आन्दोलनों का इतिहास बखूबी बताता है। इसमें असहजता या असफलता नहीं देखी जानी चाहिए (पृष्ठ-480)।’’

चिपको आन्दोलन की अपनी कमियां रही पर इसकी रचनात्मक उपलब्धियां कभी कम नहीं हुई। चिपको के ताप से तपे कार्यकर्ता जीवन के अनेक क्षेत्रों में बहुत गम्भीरता से कार्यरत और समर्पित रहे हैं। चिपको आन्दोलन की शिथिलता के बाद वापस अपने घरों और कर्मक्षेत्र को लौटे चिपको कार्यकर्ता अपनी रचनात्मकता को बनाये रखते हुए उसे निरंतर निखारने की ओर प्रत्यषील रहे हैं। उन्होने अपनी जीविका के संसाधनों को तलाशते हुए अलग-अलग क्षेत्रों में अपना महत्वपूर्ण सामाजिक योगदान दिया और दे रहे हैं। वन पंचायत संघर्ष मोर्चा, नदी बचाओ आन्दोलन, पहाड़, चेतना आन्दोलन, बीज बचाओ आन्दोलन, मैती आन्दोलन, डाल्यू का द्गड़िया, नैनीताल समाचार, जंगल के दावेदार, अनिकेत, उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी, रक्षा सूत्र आन्दोलन, हार्क, लक्ष्मी आश्रम का खनन विरोधी और जंगल बचाओ अभियान, माउण्टेन शेफर्ड, पाणी राखो आन्दोलन आदि चिपको विचार के ही व्यवहारिक रूप रहे हैं।

विजय जड़धारी तथा उनके साथी चिपको के विचार को नया रूप देते हुए सन् 1987 से बीज बचाओ आन्दोलन के जरिए पहाड़ी खेती को समृद्ध करने की दिषा में सक्रिय हैं। उनके अनुसार ‘‘बारहनाजा की समृद्ध खेती को परम्परा के नाम पर आगे ढोना नहीं है, अपितु उसमें खाद्य सुरक्षा, खाद्य सम्प्रभुता, पोषण, पशुपालन, पर्यावरण संरक्षण एवं जीवन की नयी आशा के बीज प्रस्फुटित होते हैं। यह खेती ग्राम स्वराज्य, स्वावलम्बन व स्वाभिमान का प्रयोगात्मक विज्ञान है, जिसे आप पारदर्शिता से देख सकते हैं (पृष्ठ-492)।’’

इसी तरह आनन्द सिंह बिष्ट, मुरारी लाल, षिषुपाल सिंह कुवंर, षमषेर बिष्ट, गोविंद सिंह रावत, विमला बहुगुणा, धूम सिंह नेगी, प्रदीप टम्टा, गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’, कुवंर प्रसून, जीवानन्द श्रीयाल, घनश्याम सैलानी, पी सी तिवारी, प्रताप षिखर, विपिन त्रिपाठी, राजीव लोचन साह, राजा बहुगुणा, बालम सिंह जनोटी, योगेष बहुगुणा आदि चिपको विचार एवं आन्दोलन से षिक्षित-प्रशिक्षित होकर उत्तराखंड के विकास में महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों के रूप लोकप्रिय रहे हैं।

वास्तव में, 70 के दशक में युवाओं, महिलाओं और दलितों को अपने परिवेश के सामाजिक-आर्थिक सरोकारों से जोड़ने में चिपको आन्दोलन ने मुख्य प्रेरक का काम किया। चिपको से प्रशिक्षित जन-समुदाय अस्सी के दशक में ‘नशा नहीं रोजगार दो’ और 90 के दशक मे ‘उत्तराखण्ड आन्दोलन’ में सर्वाधिक उद्वेलित रहा। आज भी उत्तराखण्ड के विविध क्षेत्रों (यथा-राजनैतिक, अकादमिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक) में नेतृत्व की भूमिका में सक्रिय अधिकांश व्यक्तित्वों की पृष्ठभूमि और सामाजिक शिक्षण-प्रशिक्षण पाठशाला में चिपको विचार का महत्वपूर्ण योगदान है।

चिपको मूलतः पहाड़ी किसानों का आन्दोलन था। पहाड़ की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मूल ताकत यहां की महिलायें रही है। अधिसंख्यक पुरुषों के रोजगार के लिए गांव से दूर मैदानी क्षेत्रों में रहने के कारण स्थानीय महिलाओं में स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता पहले से ही विकसित थी। स्वाभाविक था कि इस आन्दोलन में ग्रामीण महिलाओं ने अपने दुखः-दर्द के कई समाधान दिखाई दिए। यही कारण है कि रेणी के अलावा चांचरीधार, गोपेश्वर, डूंगरी-पैन्तोली, भ्यूंढार, नरेन्द्रनगर, नैनीताल, जनोटी-पालड़ी, मंडल, फाटा, मद्महेश्वर, बछेर, रंगोड़ी-ध्याड़ी, अदवाणी, हेंवलघाटी, बडियारगढ़, दूधातोली तथा नन्दीसैंण आदि में महिलाओं की चिपको आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भूमिका रही।

डुंगरी-पैन्तोली आन्दोलन में तो बांज के जंगल के बजाय आलू की खेती को अपनाने के निर्णय के कारण महिलायें अपने ही गांव के पुरुषों के खिलाफ चली गई। अदवाणी के जंगल में चिपको आन्दोलन चला तो दलित परिवार की झाबरी देवी ने पति, परिवार, ठेकेदार, समाज और प्रशासन से सीधे लड़ाई लड़ी। इसी आन्दोलन में बचनी देवी ने अपने पति, जो प्रधान भी थे, को चुनौती दे दी थी। अन्ततः ये सभी महिलायें अपने मकसद को हासिल करने में कामयाब भी हुई। ये अलग बात कि चिपको आन्दोलन की हिस्सेदारी में गौरा देवी के अलावा अन्य किसी महिला का प्रमुखता से नाम नहीं लिया जाता है। इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि वर्तमान व्यवस्था में महिलाओं के सामाजिक योगदान का आंकलन भी तो पुरुष आधिपत्य की मानसिकता ही करती है।

यह बात भी दीगर है कि चिपको में दलित वर्ग की भागेदारी को भी समय के अंतराल ने भुला दिया। चिपको पर लिखे गए अथाह लेखों और शोध-पत्रों में दलित योगदान का जिक्र चलते-चलते ही हुआ है। निःसंदेह, चिपको आन्दोलन में महिला और दलित वर्ग के योगदान पर गम्भीर शोध किए जाने की आवश्यकता है। चिपको आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिकायें निभाने वाले कई अनाम नायक हैं, जिन्हें भुला दिया गया था। इस किताब में उल्लेखित अल्मोड़ा जनपद के रंगोड़ी-ध्याड़ी में हुए चिपको आन्दोलन के अनाम नायक मोहन सिंह का संघर्ष हमें अचरज में डालता है। चिपको आन्दोलनकारी मोहन सिंह पुलिस से बचने के लिए भूमिगत थे और 10 मई, 1979 को उनका विवाह होना था। 7 मई को छुपते-छुपाते मोहन सिंह अपने घर पहुंचे। ‘‘आसपास के गांवों के कार्यकर्ता और रिश्तेदार आगे की रणनीति तय करने के लिए 8 मई को मोहन सिंह के यहां एकत्र हुए। सभी की राय थी कि बारात तो 10 मई को जायेगी ही लेकिन इस हेतु तैयारी करनी होगी। इलाके की सभी लायसेन्स वाली बन्दूकें और बड्याठ-दरातियों को इक्कठ्ठा करने का निर्णय हुआ। अब जंगल को बचाने के साथ आत्म सम्मान का प्रश्न भी जुड़ चुका था। इस तरह 18 बन्दूकों और दर्जनों बड्याठों (बड़ी दरांती) के साथ बारात गयी और 11 मई को निर्विघ्न वापस लौटी। यदि 10 या 11 मई को वहां पुलिस या पी.ए.सी. आ गयी होती तो बहुत बड़ा हादसा हो सकता था (पृष्ठ- 334-35)।’’

चिपको विचार उत्तराखण्ड से बाहर देश-दुनिया में अकादमिक रूप में लोकप्रिय होने से आगे बढ़कर व्यवहारिक स्वरूप में भी जीवंत हुआ। अस्सी के दशक में हिमाचंल, बिहार, राजस्थान और कर्नाटक में सामाजिक कार्यकर्ताओं और सरकारी पहल से इस तरह के प्रयास आरंभ हुए। ‘‘कर्नाटक में इसे ‘अप्पिको’ नाम दिया गया, जहां यह सितम्बर, 1983 से चला। हरे पेड़ों की कटाई रोकने के साथ इसने युक्लिप्टस आदि व्यापारिक प्रजातियों के एकल रोपण के ख़िलाफ़ चेतना बनायी। अप्पिको ने पश्चिमी घाट की पारिस्थिकी सम्बन्धी चेतना विकसित की, जिसमें केरल शास्त्र साहित्य परिषद् ने अपनी तरह से योगदान दिया था। यूरोप में पहले स्विटजरलैंड (1984), फिर स्वीडन (1987) में चिपको दार्शनिक और फैशन के अन्दाज़ में गया। अमेरिका में चिपको आन्दोलन पूर्वी छोर पर पहले पहुंचा, जहां न्यूयार्क शहर ने अप्रैल 29 को चिपको दिवस घोषित किया (पृष्ठ-374)।’’

चिपको के दौर में हिमालय के आर्थिक और पारिस्थिकीय पहलुओं पर पत्रकारिता और अकादमिक तौर पर खूब लिखा जाने लगा था। वृक्षों को बचाने के ऐतिहासिक प्रसंग और घटनायें सार्वजनिक चर्चा में आने लगी थी। सन् 1730 में खेजड़ी के पेड़ों को बचाने लिए जोधपुर की विश्नोई महिलाओं के संघर्ष और उनकी जीत को पत्र-पत्रिकाओं में रेखांकित किया जाने लगा। चिपको आन्दोलन से जुडे़ प्रमुख व्यक्तित्व सुंदरलाल बहुगुणा, कुवंर प्रसून, चण्डी प्रसाद भट्ट, नवीन नौटियाल, शेखर पाठक, शमशेर बिष्ट राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में छपते थे। अनुपम मिश्र, अनिल अग्रवाल, रधुवीर सहाय, वंदना शिवा, सुनीता नारायण, जी.डी. बैरीमन, माधव आषीष, भारत डोगरा, पांण्डुरंग हेगडे, मार्टिन जे. हेग, थॉमस वेबर, रामचन्द्र गुहा ने चिपको के लेखकीय फलक को और विस्तार दिया। घनश्याम शैलानी, जीवानंद श्रीयाल और गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ आदि इसके सांस्कृतिक वाहक बने।

शेखर पाठक मानते हैं कि ‘‘चिपको विभाजित नहीं होता तो आज स्वयं सरकारी वन निगम और ग्रामीणों की वन पंचायतें इस विचार की वाहक होती और स्थानीय आर्थिकी का एक नया अध्याय ग्रामीणों के सहयोग से विकसित होता। आज जंगल ‘कार्बन सिंक’ के लिए सर्वाधिक उपयुक्त स्थान घोषित हैं। जंगलों को बचाना और बनाना (वृक्षारोपण) वैश्विक महत्व का पारिस्थितिक ही नहीं आर्थिक क्रियाकलाप हो गया है। जंगलों को पृथ्वी के फेफड़ों की तरह माना जाने लगा है, जो वे पहले से ही थे। लेकिन इन फेफड़ों पर पहले इतना दबाव कभी नहीं रहा (पृष्ठ-490)।’’

चिपको पर सर्वत्र और बहुतायत में लिखे जाने के कारण गलत और तथ्यहीन जानकारियां भी प्रचारित और प्रसारित होने लगी। गहराई और विस्तार में जाने के बजाय पत्रकार, शोधार्थी और लेखक बनने की इच्छा से लिखे गये इन लेखों ने मिथ्या प्रचार को बड़ावा दिया। क्योंकि उस दौर में चिपको पर लिखना और शोध करना जल्दी ख्याति देता था। इसलिए, अपरिपक्व शोधों ने मनगंढत किस्सों, घटनाओं, स्थानों और व्यक्तियों का धड़ल्ले से जिक्र किया। कई चिपको अध्ययनकर्ता स्वयं को भी चिपको आन्दोलनकारी साबित करने की जल्दबाजी करने लगे। चिपको के बारे में भ्रम और झूठ को अनजाने और कभी-कभी जानबूझ कर प्रचारित-प्रसारित किया जाता रहा। ताज्जुब ये है कि ये प्रवृत्ति स्थानीय स्तर पर नहीं वरन देश-दुनिया के स्तर पर भी हुई। जिस कारण चिपको देश-दुनिया में तो ग्लैमर पा गया परन्तु अपनी ही मूल ज़मीन पर हासिल की गई गम्भीरता और गहनता को खोता गया।

‘‘चिपको की चमक का धुंघलाना अस्वाभविक नहीं है। यह किसी भी सामाजिक आन्दोलन की सच्चाई है। चिपको की उपलब्धियां भी कम नहीं हैं पर धुंधलाहट के पीछे सबसे बड़ा कारण है चिपको से जुड़े तमाम समूहों का उस बुनियादी सिद्धान्त पर एकमत न रह सकना, जिसके अन्तर्गत प्राकृतिक सम्पदा पर पहला हक समुदाय का होता है। उसके अस्तित्व की रक्षा के साथ ही सम्पदा की रक्षा हो सकती है और सम्पदा की रक्षा से उसकी अस्तित्व की रक्षा होती है।’’ (पृष्ठ-515)

चिपको आन्दोलन दुनिया में छाया परन्तु वर्तमान मे अपनी ही जन्मभूमि में उसका बस साया ही दिखता है। स्वतंत्रता के दशकों बाद आज भी वनों के प्रति आम जनता और सरकार की एक दूसरे के प्रति पूर्वाग्रहों में कोई तब्दीली नहीं आई है। जनता के लिए वन आज भी अनुछुये हैं और वन विभाग के लिए जनता वनों पर आक्रमणकारी। स्वाधीनता के बाद तराई-बाबर में शरणार्थी तो बसाये गये, परन्तु पहाड़ों में रहने वाले भूमिहीनों और आपदा में खेती, घर-बार गवांने वाले पहाडियों के लिए वहां कोई जगह नहीं दी गई। वन उपजों से अपनी जरूरतों को प्राप्त करने, अपने हक-हकूकों को जीवित रखने और रोजगार हासिल के मूलभूत अधिकार से भी स्थानीय पहाडियों को आज तक वंचित रखा गया है।

(चिपको की इस विडम्बना और चरित्रों को जीवंत करता है नवीन जोशी का 2008 में प्रकाशित उपन्यास ‘दावानल’। जिसमें वन-वनवासियों के प्राकृतिक सह-संबंधों, प्रकृति की चेतावनी और उसको भूल-बिसरने की मानवीय प्रवृत्ति की खूबसूरत व्याख्या है। इस नाते, चिपको के मर्म और दर्द की अभिव्यक्ति इसमें हुई है।)

आज, कथित पर्यावरणविद केवल पद्म पुरुस्कारों की होड़ में दिखते हैं। आलवेदर रोड के लिए 50 हजार से 1 लाख तक पेड कट गये, इन पर कोई हलचल भी नहीं हुई। सत्ता के केन्द्र देहरादून के निकट थानों के कटते जंगलों पर पर्यावरण प्रतिष्ठा पाये इन प्रतिष्ठितों की कहीं कोई आवाज़ नहीं है। हो भी कैसे? पर्यावरणविद् पुरस्कारों के लडडू उनके गले में फंसे पडे हैं, आवाज कैसे निकलेगी? 70-80 के दशक में व्यवस्था के खिलाफ़ हुए आन्दोलनों को सरकारी सम्मान देकर चुप कराया जाता था। आज तो समाज सेवा का पर्याय ही पुरस्कारों प्राप्त करना लगता है। इसीलिए एनजीओ के प्रवक्ता बनकर देहरादून में सत्ता का सानिध्य चाहने वाले सरकारी सामाजिक कार्यकर्ताओं की भरमार है।

यद्यपि, असली और जुनूनी बहुसंख्यक सामाजिक कार्यकर्ता अभी भी नेपथ्य में समर्पित भाव से कार्य कर रहे हैं। उन्हीं को उम्मीद मान कर इस किताब में उल्लेखित है कि ‘‘जब भी सरकार या सरकार से समर्थन पायी शक्तियां जनता के संसाधनों पर प्रहार करेंगी चिपको का ऐजेण्डा स्वयं ही हरा और हलचल भरा हो जायेगा। इसीलिए चिपको के विचार को ‘हरी भरी उम्मीद’ कहने का साहस किया गया है (पृष्ठ-488)।’’

लेखक चिपको विचार को आज के संदर्भ में उल्लेखित करते हुए मानते हैं कि ‘‘उत्तराखण्ड का आर्थिक आधार शराब, खनन, बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं, कारपोरेट पर्यटन, मनरेगा के धन का अपव्यय या म़ुफ्त अनाज वितरण नहीं हो सकता है। यह राज्य कुछ दलों के कुछ नेताओं के लिए धन संचय तथा ऐशो-आराम का साधन नहीं माना जा सकता है। यह युवाओं को पलायन के लिए विवश करने को निर्मित राज्य नहीं है।

राजनीतिक-आर्थिक दर्शन के लिहाज़ से भी स्वरोज़गार और उद्यमिता के रास्ते बनाने होंगे। इसके लिए हर आर्थिक क्रियाकलाप का विकेन्द्रीकृत रूप विकसित किया जाना है। ज़मीन, जंगल और पानी और वन्यता मिलकर संसाधनों का समुच्चय बनाते हैं।’’ (पृष्ठ-516)

आने वाले समय के लिए ‘हरी भरी उम्मीद’ की प्रबल आशा में यह किताब विराम लेती है। इतिहासकार अपनी सीमाओं को समझते हुए चिपको की भविष्य की उड़ान की ओर इशारा भर करते हैं। ‘‘आज लगता है कि चिपको आन्दोलन ‘वह बना दिया गया है’ जो ‘वह नहीं था’। वह आर्थिकी और पारिस्थितिकी का सन्तुलित समन्वय था। आज उसे कभी-कभी जिस तरह परिभाषित किया जाता है उसमें आम लोगों के वनाधिकार का सम्मान कायम नहीं रह सकता है। यहीं से चिपको को अपनी विलम्बित उड़ान लेनी होगी। पर यही वह बिंदु है जहां इतिहासकार को रुक जाना पड़ता है क्योंकि वह भविष्य विज्ञान के प्रयोग नहीं कर सकता है (पृष्ठ- 516-17)।