मैती आंदोलन सात समंदर पार पहुंचा
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ग्राउंड जीरो से संजय चौहान
चिपको आन्दोलन ने पेड़ों और जंगलों की उपयोगिता का अहसास दिलाया। पिताजी और दादाजी भी पेड़ों के विभाग यानी की वन विभाग में रहे। इसलिए बचपन जंगलों और पेड़ों के बीच गुजरा। ९० के दशक में वृक्षारोपण की असफलता ने मन में एक नया विचार दिया मैती। और ये विचार आज माँ के आँगन से लेकर सात समंदर पार तक अपनी चमक बिखेर रहा है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी नें भी मैती आंदोलन को सराहा। ग्राउंड जीरो से आज आपको रूबरू करवाते हैं मैती के जनक कल्याण सिंह रावत जी से।
१९ अक्टूबर १९५३ को जनपद चमोली के कर्णप्रयाग ब्लाक के बैनोली गांव में श्रीमती विमला देवी व त्रिलोक सिंह रावत जी के घर एक बिलक्षण प्रतिभा के बालक ने जन्म लिया। वन विभाग में कार्यरत पिताजी ने अपने इस बालक का नाम कल्याण सिंह रावत रखा। माता-पिताजी को विश्वास था की एक न एक दिन उनका ये पुत्र लोक में उनका नाम रोशन करेगा। बचपन से ही कल्याण सिंह रावत मेधावी थे। पेड़ों और जंगलों के प्रति लगाव उन्हें विरासत में मिला। जिस कारण से वे प्रकृति की और खींचते चले गए। इनकी प्राथमिक शिक्षा गांव के प्राथमिक स्कुल बैनोली(नौटी) में हुई तो ८ वी तक की शिक्षा कल्जीखाल और १० वीं, १२ वीं तक की शिक्षा अलकनंदा व पिंडर के संगम कर्णनगरी कर्णप्रयाग में पूरी हुई। जबकि स्नातक और स्नाक्तोतर की शिक्षा राजकीय स्नाक्तोतर महाविद्यालय गोपेश्वर से ग्रहण की।
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कॉलेज के दिनों से ही कल्याण सिंह रावत पर्यावरण से जुड़े कार्यक्रमों में बढ़चढ़कर हिस्सा लेते थे। इस दौरान वे सर्वोदई से भी जुड़े रहे। जब सीमांत जनपद चमोली में चिपको आन्दोलन अपनी चरमोत्कर्ष पर था तो २६ मार्च 1974 को १५० लड़कों को लेकर भारी बारिश में ही एक ट्रक मैं बैठकर गोपेश्वर से चिपको आन्दोलन में शरीक होने जोशीमठ पहुंचे। चिपको आन्दोलन की सफलता से कल्याण सिंह रावत अभिभूत हुये। और मन के किसी कोने में वे भी पर्यावरण संरक्षण के लिए कुछ अलग करना चाहते थे। १९८२ में शादी के दूसरे ही दिन पत्नी मंजू रावत द्वारा २ पपीते के पेड़ लगाये। जिसने कुछ साल बाद फल देनें शुरू कर दिये थे। इन पेड़ों को देखकर उनके मन में मैती का विचार आया था लेकिन उस समय ये इसे धरातल पर अमलीजामा नहीं पहना पाये थे। १९८७ में उत्तरकाशी में भयकंर सूखा पड़ा था बारिश न होने से चारों और हाहाकार मच गया था। ऐसे में इनके द्वारा वृक्ष अभिषेक समारोह मेला का आयोजन किया गया। जिसमे ग्रामस्तर पर वृक्ष अभिषेक समिति का गठन किया गया और ग्राम प्रधान को इसका अध्यक्ष न्यूक्त किया गया। उनके इस पहल की उस समय हर किसी ने सरहाना की थी।
1994 में ग्वालदम राजकीय इण्टर कालेज के जीव विज्ञान प्रवक्ता के पद पर रहते हुये स्कूली बच्चों ने मैती आन्दोलन के लिए प्रेरित किया। फिर धीरे-धीरे समूचे गाँव के लोगों को प्रेरित करने का कार्य किया। धीरे धीरे यह आन्दोलन लोगों को पसंद आने लगा और बेहद कम समय में इसनें प्रसिद्धि पा ली। इसके तहत गढ़वाल के किसी गांव में किसी लड़की की शादी होती है तो विदाई के समय दूल्हा-दुल्हन को एक फलदार पौधा दिया जाता है। वैदिक मन्त्रों के द्वारा दूल्हा इस पौधे को रोपित करता है तथा दुल्हन इसे पानी से सींचती है। फिर ब्राह्मण द्वारा इस नव दम्पत्ति को आशीर्वाद दिया जाता है। पेड़ को लगाने के एवज में दुल्हे द्वारा दुल्हन की सहेलियों को अपनी इच्छानुसार कुछ पैसे दिये जाते हैं। जिसका उपयोग पर्यावरण सुधारक कार्यों में और समाज के निर्धन बच्चों के पठन-पाठन में किया जाता है। दुल्हन की सहेलियों को मैती बहन कहा जाता है। जो भविष्य में उस पेड़ की देखभाल करती है।
गढ़वाल में मैत का अर्थ होता है मायका और मैती का अर्थ होता है मायके वाले। इस आन्दोलन के जरिये पहाड़ की महिलाओं का अपने जल, जंगल और जमीन के प्रति असीम प्यार को चरितार्थ होता है। ‘मायका’ यानि जहां लड़की जन्म से लेकर शादी होने तक अपने माता-पिता के साथ रहती है। और जब उसकी शादी होती है तो वह ससुराल जाती है। लेकिन अपनी यादों के पीछे वह गांव में बिताए गए पलों के साथ ही शादी के मौके पर रोपित वृक्ष से जुड़ी यादों को भी साथ लेकर जाती है। इसी भावनात्मक आंदोलन के साथ शुरू हुआ पर्यावरण संरक्षण का यह अभियान दिनों-दिन आगे बढ़ता जा रहा है। मैती आंदोलन के साथ लोगों को जोड़ने का जो काम कल्याण सिंह रावत ने किया अब वह परम्परा का रूप ले चुका है।
गौरतलब है की आज के दौर में ‘ग्लोबल वार्मिंग’ एक बड़ी समस्या बनकर उभरा है और इस गंभीर समस्या के भावी खतरों से पूरा विश्व खौफजदा हो चला है। ऐसे में उत्ताराखण्ड के चमोली जनपद का मैती आंदोलन एक बड़ी मिसाल कायम करता है। मैती जैसे पर्यावरणीय आंदोलन कुछ लोगों के लिए सिर्फ रस्मभर हैं जबकि इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में जाएं तो पता चलता है कि यह एक ऐसा भावनात्मक पर्यावरणीय आंदोलन है जिसे व्यापक प्रचार मिले तो पर्यावरण प्रदूषित ही ना हो। आज प्राकृतिक संपदा खतरे में है। ऐसे में मैती आन्दोलन वैश्विक होते हुए पर्यावरणीय समस्या का एक कारगर उपाय हो सकता है। बशर्ते इसके लाभों को व्यापक रूप से देखा जाए। आज सरकार पर्यावरण संरक्षण के नाम पर करोड़ों रुपया खर्च कर रही है, लेकिन समस्या दूर होने के बजाए बढ़ती जा रही है। ऐसे में पर्यावरण को बचाने के लिए मैती को एक सफल कोशिश कहा जा सकता है।
वर्तमान में मैती आंदोलन पूरे उत्तराखंड सहित देश के एक दर्जन से भी अधिक राज्यों में भी अपने जड़ें जमा चुका है। कई राज्यों के अख़बारों ने मैती आन्दोलन की सफलता को प्रमुखता से भी प्रकाशित किया है। विगत दिनों कर्नाटका के एक अखबार में मैती की सफलता की कहानी को प्रकाशित किया गया था। चार राज्यों में तो वहां की पाठ्य पुस्तकों में भी इस आंदोलन की गाथा को स्थान दिया गया है।
जबकि कनाडा में मैती आंदोलन की खबर पढ़ कर वहां की पूर्व प्रधानमंत्री फ्लोरा डोनाल्ड आंदोलन के प्रवर्तक कल्याण सिंह रावत जी से मिलने गोचर आ गईं थी।वे मैती परंपरा से इतना प्रभावित हुई कि उन्होंने इसका कनाडा में प्रचार-प्रसार शुरु कर दिया। अब वहां भी विवाह के मौके पर पेड़ लगाए जाने लगे हैं। मैती परंपरा से प्रभावित होकर कनाडा सहित अमेरिका, ऑस्ट्रिया, नार्वे, चीन, थाईलैंड और नेपाल में भी विवाह के मौके पर पेड़ लगाए जाने लगे हैं।
देश के प्रधानमंत्री नें विवाह के अवसर पर लगाये जाने वाले पेड़ों और मैती आंदोलन की भूरी भूरी प्रशंसा करते हुये बधाईया भी प्रेषित की। और मैती आंदोलन के जनक कल्याण सिंह रावत जी को बधाई संदेश पत्र भी भेजा।
इस आंदोलन को केवल वृक्षारोपण तक सीमित नहीं रखा गया। बल्कि हमारी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाएं हैं। इनमें कुछ अहम तिथियां हैं। उनसे जोड़कर इस आंदोलन को भावनात्मक रूप देने का प्रयास किया गया ताकि उन चीजों के प्रति भी लोगों की भावनाएं जाग सकें। जैसे कि कोई राष्ट्रीय धरोहर है, राष्ट्रीय पर्व है। ताकि लोग इससे भावनात्मक रूप से जुड़ सकें।
मैती आन्दोलन के जनक कल्याण सिंह रावत से लम्बी गुफ्तगू होने पर कहते हैं की मुझे पेड़ और जंगलो से लगाव बचपन से ही रहा है। क्योंकि मेरे पिताजी और दादाजी दोनी वन विभाग में थे। छात्र जीवन से गांधावादी संगठनों के संपर्क में रहा वनस्पति विज्ञान का छात्र होने की वजह से भी प्रकृति के करीब रहने में मेरी दिलचस्पी रही। मैंने पूरे हिमालय का दौरा किया और गढ़वाल-कुमाऊं का चप्पा चप्पा घूम गया हूं। इन यात्राओं के दौरान गावों में वहां के जन-जीवन को महिलाओं की परिस्थितियों को समझने का मौका मिला। मैं चाहता हूँ की लोग भावनात्मक रूप से वृक्षारोपण से जुडेंगे तो खुद ही उसकी सुरक्षा करेंगे। शुरु में अंधविश्वासों के कारण मुझे कुछ दिक्कतों का सामना करना पड़ा पर हमारी सही सोच ने कमाल कर दिखाया।
कहते है की, इस आन्दोलन की प्रेरणा उन्हें चिपको आंदोलन, उनकी पत्नी के लगाये दो पपीते के पेड़ और ग्वालदम स्कूल के छात्र-छात्राओं से मिली। जब सरकारी वृक्षारोपण अभियान विफल हो रहे थे। एक ही जगह पर पांच-पांच बार पेड़ लगाए जाते पर उसका नतीजा शून्य होता। इतनी बार पेड़ लगाने के बावजूद पेड़ दिखाई नहीं पड़ रहे थे। इन हालात को देखते हुए मन में यह बात आई कि जब तक हम लोगों को भावनात्मक रूप से सक्रिय नहीं करेंगे, तब तक वृक्षारोपण जैसे कार्यक्रम सफल नहीं हो सकते। इस तरह से मैती की शुरुआत हुई।
मैती आन्दोलन के साथ साथ मैती ग्राम गंगा योजना को भी अमलीजामा पहनाया जा रहा है। जिसमे देश और विदेश में रहने वाले लोगों से उत्तराखंड गुलक बनाने की अपील की गई है जिसमे प्रत्येक दिन एक रुपए जमा करने का अनुरोध किया गया है। आज गंगा, गांव, हिमालय और पर्यावरण गहरे संकट में हैं। इसलिए इस एक रूपये को गांवो में पौधारोपण, शिक्षा, स्वास्थ्य, और स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च किया जायेगा।
कल्याण सिंह रावत जी ने अपने गांव बैनोली में मैती वन या मैती जंगल तैयार किया है। जहां पर विभिन प्रजाति के सैकड़ों पेड़ अपनी हरियाली लहला रहें हैं तो वहीँ ग्रामीणों को मवेशियों हेतु चारा उपलब्ध हो रहा है। इसके अलावा नंदा देवी राजजात यात्रा से लेकर अन्य अवसरों पर भी लोगों को पर्यावरण संरक्षण का सन्देश दिया जाता रहा है।