कुमाऊं की रामलीला
चद्रंशेखर तिवारी
सांस्कृतिक परम्परा की दृष्टि से उत्तराखण्ड एक समृद्ध राज्य है। समय-समय पर यहां के कई इलाकों में अनेक पर्व और उत्सव मनाये जाते हैं। लोक और धर्म से जुड़े इन उत्सवों की आस्था समाज के साथ बहुत गहराई से जुड़ी है। उत्तराखण्ड के कुमाऊं अंचल की रामलीला और होली का इस सन्दर्भ में विशेष महत्व है। कुमाऊं अंचल में रामलीला नाटक के मंचन की परंपरा का इतिहास 160 साल से अधिक पुराना है। यहां की रामलीला मुख्यतयाः रामचरित मानस पर आधारित है। देश के विविध प्रान्तों नाट्य रुप में प्रचलित रामलीला का मंचन में अलग-अलग तरीकों से किया जाता है। कुमाऊं अंचल की रामलीला मुख्यतया गीत-नाट्य शैली में प्रस्तुत की जाती है। मौखिक परंपरा पर आधारित यहां की रामलीला पीढ़ी दर पीढ़ी समाज में रचती-बसती रही है। आज से सात-आठ दशक पूर्व पहाड़ी इलाकों में आवागमन, संचार और बिजली आदि की सुविधाएं बहुत सीमित मात्रा में मौजूद थीं। यहां के स्थानीय बुर्जुग लोग बताते हैं कि तब उस समय रामलीला का मंचन रात को मषाल,लालटेन व पैट्रोमैक्स व चीड़ के छिलुकों (बिरोजा युक्त लकड़ी) की रोषनी में किया जाता था। कुछ जगहों पर दिन के उजाले में भी रामलीला का मंचन होता था।
संस्कृति के जानकार लोगों के अनुसार कुमाऊं में रामलीला नाटक के मंचन की सर्वप्रथम शुरुआत 1860 में मानी जाती है, जिसका श्रेय तत्कालीन डिप्टी कलैक्टर स्व. देवीदत्त जोशी को दिया जाता है। स्व. देवीदत्त जोशी ने पहली रामलीला अल्मोड़ा नगर के बद्रेश्वर मन्दिर में मंचित करवायी।रामलीला के जानकार लोगों की यह भी मान्यता रही है कि अल्मोड़ा से पहले 1830 में स्व. देवीदत्त जोशी ने पारसी नाटक के आधार पर उत्तर प्रदेश के बरेली अथवा मुरादाबाद में कुमाउनी तर्ज पर रामलीला आयोजित करवायी। कुछ लोग अल्मोड़ा के बद्रेश्वर मंदिर की रामलीला को आयोजित करवाने में स्व.बद्रीदत्त जोशी तत्कालीन सदर अमीन की महत्वपूर्ण भूमिका मानते हैं। बहरहाल जो भी हो इतना जरूर है कि रामलीला के जानकारों के मुताबिक सन 1860 में अल्मोड़ा से शुरू होकर बाद में यह रामलीला शनैः-शनैः कुमाऊं व गढ़वाल के अन्य नगरों कस्बों तक पहुंची।
नैनीताल, बागेश्वर व पिथौरागढ़ में क्रमश1880, 1890 व 1902 में रामलीला नाटक का मंचन किया गया। बीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में कुमाऊं के अलावा गढ़वाल अंचल के भी कुछ स्थानों में रामलीला का मंचन होने लगा था। पौड़ी नगर में सर्वप्रथम 1906 में स्व. पूर्णानंद त्रिपाठी, डिप्टी इन्सपैक्टर के सहयोग से रामलीला के आयोजन का उल्लेख मिलता है। उततराखण्ड के इतिहास और संस्कृति के जानकार डा योगेश धस्माना ने अपने रामकथा मंचन और पर्वतीय रामलीला नामक आलेख में श्री बाबुलकर के कथन और लोक प्रचलित मान्यता को आधार मानकर लिखा है कि देवप्रयाग में 1843 में रामलीला खेली गयी थी।कुमाउनी रामलीला के संदर्भ में एक विशेष बात यह भी रही कि अल्मोड़ा नगर में 1940-41 के दौरान विख्यात नृत्य सम्राट पं. उदयशंकर ने भी रामलीला का मंचन किया। इस रामलीला में उन्होंने छाया चित्रों के माध्यम से नवीनता लाने का प्रयास किया। हांलाकि पं. उदयशंकर द्वारा प्रस्तुत रामलीला कुमाऊं की परंपरागत रामलीला से कई मायनों में अलग थी परन्तु उनके छाया चित्रों, अभिनय, उत्कृष्ट संगीत व नृत्य की छाप अल्मोड़ा नगर की रामलीला पर अवश्य पड़ी।
कुमाऊं की रामलीला की खास बात यह है कि नाटक में अभिनय करने वाले पात्र किसी नाटक मण्डली से नहीं जुडे रहते हैं अपितु वे आम लोगों से आये सामान्य़ कलाकार ही होते हैं और महज बीस-बाईस दिन की तालीम में ही दक्षता पा लेते हैं। इसके अलावा मंच निर्माण की व्यवस्था तथा मंचन से लेकर आर्थिक संसाधनों को जुटाने तक के सारे कामों में समाज के सभी लोगो की सामुदायिक सहभागिता दिखायी देती है।
रामलीला मंचन के लिए स्थानीय स्तर पर श्री रामलीला समिति का गठन किया जाता है और इसके संचालन व व्यवस्था के लिए सक्रिय कार्यकर्ताओं का चयन किया जाता है। समिति द्वारा रामलीला के सफल आयोजन के लिए आम लोगों,व्यापारियों, विधायक,सांसदो तथा अन्य विशिष्ट जनों से चन्दे के रुप में धनराशि एकत्रित की जाती है।चन्दे में प्राप्त इस राशि का उपयोग कलाकारों के पारितोषिक वितरण, ध्वनि विस्तारक यंत्रों, प्रकाश, परदे, वस्त्र, शस्त्र, साज-सज्जा, आतिशबाजी, जलपान व शामियाना आदि की व्यवस्था करने में किया जाता है।
कुमाउनी रामलीला में बोले जाने वाले सम्वादों, धुन, लय, ताल व सुरों में पारसी थियेटर की छाप साफ दिखायी देती है। इसके साथ ही ब्रज के लोक गीतों तथा नौटंकी की मिली-जुली झलक भी यहां की रामलीला में मिलती है। सम्वादों में आकर्षण व प्रभाव लाने के लिये कहीं कहीं पर नेपाली भाषा व उर्दू की गजल का प्रयोग भी किया जाता है। कुमाऊं की रामलीला में सम्वादों में स्थानीय बोलचाल के सरल शब्द चलन में लाये जाते है। रावण परिवार के दृश्य में मंचित नृत्य व गीतों में अधिकांशतः कुमाउनी शैली प्रयोग में लायी जाती है।
रामलीला के गायन संवाद में विभिन्न राग-रागिनियां प्रयुक्त की जाती हैं। कुमाऊं की रामलीला में बरेली के प्रसिद्ध कथावाचक पं. राधेश्याम जी की रामायण गान शैली समावेशित है। राधेश्याम तर्ज के नाम से प्रचलित यह तर्ज कर्णप्रिय लगती है। हारमोनियम की सुरीली धुन और तबले की गमकती गूंज में अभिनय करने वाले पात्रों का गायन बहुत ही कर्णप्रिय लगता है। संवादों में रामचरित मानस के दोहों व चैपाईयों के अलावा कई जगहों पर गद्य रुप में संवादों को प्रयोग में लाया जाता है। मुख्य बात यह है कि यहां की रामलीला में गायन को अभिनय की अपेक्षा अधिक महत्व दिया जाता है। रामलीला में वाचक अभिनय अधिक होता है। अभिनय करने वाले पात्र हाव-भाव के साथ गायन करते हैं।कभी-कभी नाटक मंचन के दौरान पाश्र्व गायन भी किया जाता है। अपने शोध प्रबन्ध कुमाउनी रामलीला एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अध्ययन में डा. मथुरादत्त जोशी उल्लेख करते हैं कि कुमाऊं की रामलीला में अभिनय आंगिक, वाचिक,सात्विक, एवं आहार्य अभिनय के रुप में विद्यमान है। शरीर के अंगों यथा सिर, हस्त, उर, पार्थ, कटि,व पैर के अलावा आंख, नाक, अधर, कपोल व ठोडी द्वारा आंगिक अभिनय को सुन्दरता के साथ प्रदर्शित किया जाता है।
लक्ष्मी भंडार, (हुक्का क्लब) अल्मोड़ा के वरिष्ठ रंगकर्मी श्री शिवचरण पाण्डे के अनुसार कुमाउनी रामलीला का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इसका सुमधुर संगीत है। समय-समय बाहर से आयीं भजन मंडलियों, रासलीला मंडली व नौटंकी व पारसी थियेटर में प्रदर्शित धुनों को कालान्तर में शास्त्रीय रागों के प्रारुप में यहां के रामलीला गीतों पर ढाला गया है। रामलीला को प्रारम्भ करने से पहले सामूहिक स्वर में कलाकारों द्वारा रामवन्दना “श्री रामचन्द्र कृपालु भजमन“ का गायन किया जाता है। रामलीला के अनेक दृष्यों में प्रभाव लाने के लिए नेपथ्य से आकाषवाणी की उद्घोषणा भी की जाती है। नाटक मंचन में दृश्य परिवर्तन के दौरान जो समय रिक्त रहता है उसकी भरपाई के लिए मंच पर विदूषक (जोकर) भी उपस्थित होता है। विदूषक अपने हास्यपरक गीतों व अभिनय से रामलीला के दर्शकों का मनोरंजन तो करता ही है साथ समसामयिक प्रसंगों पर कटाक्ष भी करता है। कुमाऊं की रामलीला की एक अन्य खास विशेषता यह भी है कि इसमें अभिनय करने वाले सभी पात्र पुरुष होते हैं। आधुनिक बदलाव में अब कुछ जगह की रामलीलाओं में कोरस गायन, नृत्य के अलावा कुछ विशेष प्रसंगो के अभिनय में महिलाओं को भी शामिल किया जाने लगा है।
यहां यह उल्लेख करना आवश्यक होगा कि कुमाउनी रामलीला से सम्बन्धित कई स्थानीय जानकार लोगों ने नाटक भी लिखे। डाॅ. पंकज उप्रेती के अनुसार सबसे पुराना रामलीला नाटक 1886 में देवीदत्त जोशी ने लिखा था जो अब अप्राप्त है। इसके अलावा 1927 में कुन्दन लाल साह,पं. रामदत्त जोशी ज्योर्तिविद, 1959 में गोविन्दलाल साह ”मैनेजर” तथा 1927 में नंदकिशोर जोशी द्वारा भी रामलीला नाटकों की रचना की गयी। कुमाउनी भाषा में ब्रजेन्द्रलाल साह द्वारा 1982 में लोक धुनों पर आधारित श्री रामलीला नाटक भी लिखा गया। श्री रामचरित अभिनय नाम से एक संकलन एस.एस. पांगती, मुनस्यारी वालों ने भी तैयार किया था।इसके अलावा कुन्दन सिंह मनराल पहाड़ि की ”कुमाउनी रामायण”नाम से एक काव्य रचना 2007 में प्रकाशित हुई है। जिसमें कुमाउनी भाषा में रामकथा के विविध चरित्रों का अलौकिक पक्ष उजागर हुआ है।
कुमाऊं अंचल में रामलीला नाटक की रिहर्सल एक दो माह पहले से होनी शुरु हो जाती हैं जिसे यहां ‘तालीम‘ कहा जाता है। तालीम मास्टर द्वारा बहुत मेहनत से अभिनय करने वाले पात्रों को सम्वाद, अभिनय, गायन व नृत्य का बारीकी से अभ्यास कराया जाता है। गांव शहर के सार्वजनिक मैदान अथवा स्थान पर लकड़ी के खम्भों व तख्तों से रामलीला का अस्थायी मंच तैयार किया जाता है।कुछ स्थानों पर तो अब रामलीला के स्थायी मंच भी बन गये हैं। शारदीय नवरात्र के पहिले दिवस से रामलीला मंचन की शुरुआत हो जाती है। सम्पूर्ण रामलीला दशहरे अथवा उसके एक दो दिन बाद तक चलती है। परम्परानुसार रामलीला मंचन के दौरान अभिनय करने वाले पात्रों को केवल निरामिष भोजन ही ग्रहण करने का पालन करना होता है। कुमाऊं की रामलीला में भगवान राम जन्म से लेकर उनके राजतिलक तक की समस्त लीलाओं को मंचित किया जाता है।
कुमाऊं अंचल की रामलीला में सीता स्वयंबर, परशुराम-लक्ष्मण संवाद, दशरथ कैकयी संवाद, सुमन्त का राम से आग्रह, सीताहरण, लक्ष्मण शक्ति, अंगद रावण संवाद, मन्दोदरी-रावण संवाद व राम-रावण युद्ध के प्रसंग मुख्य आर्कषण होते हैं। सम्पूर्ण रामलीला नाटक में तकरीबन साठ से अधिक पात्रों द्वारा अभिनय किया जाता है। यहां की रामलीला में राम, रावण, हनुमान व दशरथ के अलावा अन्य पात्रों यथा परशुराम, सुमन्त, सूपर्णखा, जटायु, निषादराज, अंगद, शबरी, मन्थरा व मेघनाथ के अभिनय देखने लायक होते हैं, इन्हें देखने के लिए दर्शकों की भीड़ उमड़ती है। यहां की रामलीला में प्रयुक्त परदों, पात्रों के वस्त्र, उनके श्रंगार व आभषूणों में मथुरा शैली की छाप दिखायी देती है। नगरीय क्षेत्रों की रामलीला को आकर्षक बनाने में नवीनतम तकनीक, साजसज्जा, रोशनी व आधुनिक ध्वनि विस्तारक यंत्रों का उपयोग किया जाने लगा है। कुमाऊं अंचल में रामलीला का मंचन अधिकांशतः शारदीय नवरात्र में किया जाता है लेकिन जाड़े अथवा खेती के काम की अधिकता के कारण कहीं-कहीं गरमियों व दीपावली के आसपास भी रामलीला का मंचन किया जाता है।
कुमाऊं अंचल में रामलीला मंचन की यह परम्परा अल्मोड़ा नगर से विकसित होकर बाद में आसपास के अनेक स्थानों में चलन में आयी। शुरुआती दौर में सतराली, पाटिया, नैनीताल ,पिथौरागढ, लोहाघाट ,बागेश्वर, रानीखेत, भवाली, भीमताल, रामनगर हल्द्वानी व काशीपुर के अलावा पहाड़ी प्रवासियों द्वारा आयोजित मुरादाबाद, बरेली, लखनऊ व दिल्ली जैसे महानगरों की रामलीलाएं बहुत प्रसिद्ध रही थी। शारदीय नवरात्रों उत्तराखण्ड के सास्कृतिक नगर अल्मोड़ा में रामलीला की अलग ही रंगत दिखायी देती है। यहां आज भी नंदादेवी, रधुनाथ मंदिर, राजपुरा, धारानौला, मुरलीमनोहर, ढुंगाधारा, कर्नाटकखोला, खोल्टा, नारायण तेवाड़ी देवाल व खत्याड़ी आदि मोहल्लों में बड़े उत्साह के साथ रामलीलाओं का आयोजन किया जाता है। इनमें स्थानीय गांवों व नगर की जनता देर रात तक रामलीला का भरपूर आनन्द उठाते हैं।
अल्मोड़ा नगर में लक्ष्मी भंडार(हुक्का क्लब) की रामलीला का आकर्षण नगर की अन्य रामलीलाओं से अलग ही होता है। नवरात्र के दौरान नगर के विभिन्न समितियां रावण, अहिरावण, कुम्भकरण, मेघनाथ, ताड़िका व खर-दूषण सहित रावण परिवार के डेढ़ दर्जन से अधिक सदस्यों के पुतले बनाने में जुट जाते हैं। इतनी ज्यादा संख्या व आकर्षक पुतलों के लिहाज से इस तरह के पुतले शायद ही किसी भारतीय शहर में बनाये जाते होगें। दशहरे के दिन इन सारे पुतलों को बड़े उत्साह के साथ पूरे बाजार में घुमाया जाता है। अल्मोड़ा के इस दशहरे ने अब सांस्कृतिक मेले का रुप ले लिया है। दशहरे के दिन इन पुतलों को देखने के लिये नगर में बाहर से आये लोगों के अलावा स्थानीय लोगों की भारी भीड़ उमड़ती है।
कुमाऊं अंचल की रामलीला को आगे बढ़ाने में स्व.पंण्डित रामदत्त जोशी ज्येार्तिविद, स्व.बद्रीदत्त जोशी स्व. कुन्दनलाल साह, स्व.नन्दकिशोर जोशी स्व. बांकेलाल साह, नृत्य समा्रट स्व. पं. उदयशंकर व स्व. ब्रजेन्द्रलाल साह सहित कई दिवंगत व्यक्तियों व कलाकारों का अद्वितीय योगदान रहा है। उन्नीस सौ सत्तर व अस्सी के दशक में लखनऊ आकाशवाणी के “उत्तरायण“ कार्यक्रम ने भी कुमाऊं अंचल की रामलीला को प्रसारित कर आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। वर्तमान में अल्मोड़ा नगर के लक्ष्मी भंडार( हुक्का क्लब) के श्री शिवचरण पाण्डे, श्री त्रिभुवन गिरी महराज, श्री प्रभात साह गंगोला और उनके सहयोगी, कर्नाटक खोला की रामलीला में श्री बिट्टू कर्नाटक, नैनीताल में श्रीराम सेवक सभा समिति तथा हल्द्वानी के डा.पंकज उप्रेती,भवाली के डा. राकेश बेलवाल, लखनऊ में महानगर की पर्वतीय रामलीला में श्री पीयूष पांडे सहित कई तमाम व्यक्ति, रंगकर्मी व कलाकर यहां की इस परम्परागत रामलीला को सहेजने व संवारने के कार्य में लगे हुए हैं।
लेखक दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र, 21,परेड ग्राउण्ड ,देहरादून में रिसर्च एसोसिएट के पद पर कार्यरत हैं। मो0 9410919938