सिद्ध शक्ति पीठ मां सुरकंडा देवी
सोमवारी लाल सकलानी ‘निशांत’
पुराण प्रसिद्ध मां सुरकंडाश्वरी का मंदिर आदिकाल से शीर्ष सकलाना चोंटी पर स्थापित है। मान्यताओं के अनुसार मां सती का शीश भाग यहां पर गिरने के कारण यह श्रीखंड कहलाया। सुरकंडा मंदिर सुरकुट पर्वत पर अवस्थित है। माता का दिव्य स्वरूप आदिकाल से श्रुति- अनुश्रुति, कथा- वार्ता, जागर तथा बुजुर्गों के मुख से सुना है।
62 वर्षों से मां के चरणों में निवास करके हर दिन, हर पल, हर वर्ष, हर मौसम, हर ऋतु में परिवर्तन का साक्षी रहा हूं। मां सुरकंडा और मेरे बीच मां और बेटे का संबंध है और अपनी आराध्य देवी के प्रति समर्पण के रूप में तीन पुस्तकें में अभी तक रचना कर चुका हूं। मां की महिमा, प्रकृति -चित्रण, प्रकृति के रम्य और उद्दीपन रूप, पर्यावरण और पारिस्थितिकी, मां के चरणों से निसृत होती हुई सदानीरा नदियां, शश्य- श्यामला घाटियां,चतुष्पदों से निकलने वाली जलधाराएं, मिथक, कथाएं, चर्चा- परिचर्चा आदि पर काफी कुछ समय -समय पर लिख करके, पढ़ करके, सुना करके, पाठकों के संज्ञान में लाने का कोशिश की है।
जब से मैंने होश संभाला है, मां का मंदिर मेरी छान के ठीक सम्मुख होने के कारण, पल – पल का साक्षी हूं। मां के चरणों में वनाच्छादित क्षेत्र और घास के क्षेत्रों में पशुचारण किया है तथा उस निर्जन कानन में गंगा – दशहरा, शरद और चैत्र नवरात्रि, मकर – संक्रांति और बसंत- पंचमी के अलावा निर्जनता बनी हुई रहती थी। स्थानीय लोगों की श्रद्धा और भक्ति, आराध्य देवी मां सुरकंडा होने के कारण, समय-समय पर लोग सुरकंडा आते थे। मेरी छान नाते – रिश्तेदारों के आगमन से गुलजार हो जाती थी और समय-समय पर बीसों लोग उस झोपड़ी में आश्रय पाते थे। यह सब मां की कृपा थी। असुविधा और अभावों के उस युग में किस तरह अतिथि सत्कार हो पाता था, यह मेरी भी समझ में नहीं आता लेकिन सामान्य व्यवस्था हो जाती थी। साल भर में नाते -रिश्तेदारों का समागम भी हो जाता था और हार्दिक प्रसन्नता भी प्राप्त होती थी।
सन 1973- 74 में कद्दूखाल से सुरकंडा मंदिर तक जंगलात की रोड का सर्वे चला। जिसमें मजदूर के रुप में मैंने भी कार्य किया। उस समय ₹3 प्रतिदिन के हिसाब से धियाड़ी मिलती थी लेकिन बाद के वर्षों मे बढ गई और ₹6 दिन भर की मजदूरी के रूप में ध्याड़ी के रूप में प्राप्त होते थे। तीन वर्ष बाद मेरा मेहनताना जंगलात के फॉरेस्टर श्री गुसाईं जी के द्वारा दिया गया और मेरी आस्था और मजबूत हुई कि सरकारी पैसा कभी मरता नहीं है। यह भी एक हकीकत है।
यद्यपि धार्मिक भावनाएं उस समय इतनी प्रबल थी कि सर्वे होने के बाद भी स्थानीय लोगों, मां के मैतियों और पुजारियों, तत्कालीन समिति तथा स्थावान लोगों के द्वारा डेट किलोमीटर मां के मंदिर का जो पैदल मार्ग था, वहां तक सड़क नहीं बन सकी। उस समय तीर्थ यात्रा को गार- मांडना करते थे और अधिकांश लोग जूता – चप्पल कद्दूखाल में छोड़ जाते थे और पैदल नंगे पांव मां के शिखर पर चढ़ते थे और मन्नत पूरी करते थे।
कालांतर में धीरे-धीरे धनोल्टी के विकास होने के कारण पर्यटक सुरकंडा तक आने- जाने लगे और यह तीर्थस्थल एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित होने लगा। जिला पंचायत, विधायक निधि, दानदाताओं के द्वारा, मंदिर समिति आदि के द्वारा मंदिर तक रास्ता बनाया गया। दोनों तरफ रेलिंग लगाई गई। खड़ंजा बिछाया गया। स्थानीय लोगों ने घोड़े खच्चरों का प्रबंध किया और मां की तीर्थ यात्रा में भक्तों का तांता लग गया।
साठ के दशक में जब स्वामी शिवानंद ने मंदिर का जीर्णोद्धार किया तो यहां पर मंडप से मंदिर बना और बाद के समय में सुरकंडा प्रबंध समिति विशेषकर जीतेन्द्र सिंह नेगी (जीत्ति) जो वर्तमान में भी मंदिर समिति के अध्यक्ष हैं, की ईमानदारी और कार्यकुशलता के फलस्वरूप भव्य मंदिर का निर्माण सुरकंडा शिखर पर हुआ। पर्यटकों की सुविधा को देखते हुए या स्वरोजगार के रूप में स्थानीय लोगों ने कद्दूखाल स्थान पर ही पूजन- सामग्री, चाय- पानी, भोजनादि व्यवस्थाएं आदि पर अपना ध्यान केंद्रित किया और आज भी सैकड़ों लोग मां की कृपा से स्वरोजगार से जुड़े हैं।
इसके अलावा “सुरकंडा रज्जू मार्ग” की अवधारणा सामने आयी। इस रज्जू मार्ग का निर्माण अपने अंतिम चरण में है और साल छ महीने में असंख्य पर्यटक, तीर्थयात्री, रज्जू मार्ग के द्वारा मंदिर में पहुंचेंगे। मंदिर की आय मे भी इजाफा होगा। विकास होगा और अनेक प्रकार की ढांचागत सुविधाएं यहां पर उपलब्ध होंगी। लेकिन पर्यावरण और पारिस्थितिकी जो क्षति हो रही है, उसकी कमी पूर्ति हो सकेगी यह मुमकिन नहीं है। यद्यपि जागरूकता के कारण लोग स्वच्छता पर ध्यान देते हैं। लेकिन असंख्य पर्यटकों के बीच 10- 20% ऐसे भी निकल जाते हैं जो केवल शैर- सपाटा और मनोरंजन के उद्देश्य से मंदिर में आते हैं और पूरे जंगल, रास्ते में कूड़ा- करकट सिर्फ बिखेर देते हैं।
कद्दूखाल में जिला पंचायत और क्षेत्रीय प्रतिनिधियों के सहयोग शौचालय निर्मित हुआ लेकिन पानी की व्यवस्था न होने के कारण स्वच्छक भाई हैंडपंप से पानी लाते हैं। टॉयलेट जाने का किराया प्रत्येक व्यक्ति से वसूला जाता है। पेशाब करने का भी ₹5 लिया जाता है। यदि शौचालय के छत पर पतनाला लगा दिया जाता तो टैंक में संचित करके जल आपूर्ति संभव थी लेकिन इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। आवश्यक है कि इस ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।
कूड़ा निस्तारण की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। यद्यपि व्यापार मंडल कद्दूखाल स्वच्छता के प्रति जागरूक है और अपने प्रयासों के द्वारा कूड़ा निस्तारण भी करता रहता है लेकिन यह आंशिक है। स्वच्छता का ध्यान दिया जाना जरूरी है। सुरकंडा और क्षेत्रीय विकास के साथ-साथ पार्किंग की व्यवस्था, कद्दूखाल स्थान पर होनी चाहिए। बिना पार्किंग के काफी असुविधा पर्यटक और तीर्थयात्री और स्थानीय लोगों को हो रही है। अच्छा होता कि सरकार और जनप्रतिनिधि इस ओर ध्यान देते।
सुरकंडा का गंगा दशहरा मेला प्रसिद्ध है। वह सरकारी मेला घोषित किया जाना चाहिए जिसके कारण स्वरूप स्थानीय लोगों को, व्यापारी वर्ग को, मनोरंजन के साथ-साथ रोजगार के साधन भी उपलब्ध हो सकेंगे। फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है कि भौतिकवाद के इस युग में पर्यटन एक उद्योग का रूप ले चुका है लेकिन तीर्थाटन की भी अपनी गरिमा होती है। धार्मिक भावनाओं का मूल्य होता है। आस्था और विश्वास की कोई सीमा नहीं होती है। सामाजिक मूल्य भी सर्वोपरि होते हैं। इन सभी बातों का भी ध्यान रखना चाहिए। सैर- सपाटा के साथ-साथ आस्था और विश्वास, स्वच्छता और प्रकृति का संरक्षण भी बरकरार रहना चाहिए। तभी हमारी यह तीर्थ यात्रा सफल मानी जाएगी।