घुमक्कड़ शास्त्र राहुल सांकृत्यायन
डॉ. अरुण कुकसाल
घुमक्कड़ी और घुमक्कड़ी लेखन पर महत्वपूर्ण मार्गदर्शी किताब. बहुआयामी और बहुपरती प्रतिभा के धनी महापंडित राहुल सांकृत्यायन ( 9 अप्रैल, 1893 – 14 अप्रैल, 1963 ) के जीवन, लेखन और घुमक्कड़ी के अनेकों आयाम हैं। बचपन के केदारनाथ पाण्डे बौद्ध दर्शन से प्रभावित होकर राहुल सांकृत्यायन बन गए थे। उनका समूचा जीवन घुमक्कड़ी और अध्ययन में बीता। सच यह है कि जिस तरह उनके पांव कभी रूके नहीं, वैसे ही उनका लेखन भी निर्बाध जीवन – भर चलता रहा। धर्म, यात्रा, इतिहास, राजनीति, दर्शन, लोकसाहित्य, प्राचीन पाण्डुलियों का सम्पादन आदि पर उनकी रचनायें कालजयी हैं।
किताब महल से सन् 1948 में प्रकाशित उनकी बहु-चर्चित पुस्तक ‘घुमक्कड़-शास्त्र’ के अब तक कई संस्करण आ चुके हैं। यह किताब घुमक्कड़ी लेखन की अमर कृति है। राहलु जी ने घुमक्कड़ी के अनुभवों को इसमें साझा किया है। और, यह संदेश घुमक्कड़ों को दिया है कि वे अपने घुमक्कड़ी जीवन के अनुभवों को जरूर लिपिबद्ध करने का हुनर और आदत विकसित करें। ताकि, घुमक्कड़ी का समाजोपयोगी पक्ष ज्यादा मजबूत और लोकप्रिय हो सके।
राहुल जी ने ‘घुमक्कड़-शास्त्र’ किताब में घुमक्कड़ी से जुड़े अनेकों पक्षों को 16 अध्यायों में समझाने की शैली में उद्घाटित किया है। वे अपने प्रत्येक अनुभव को बताते हुए उससे मिली शिक्षा-दीक्षा को आत्मसात करने का आवाह्न पाठकों और घुमक्कड़ों से करते हैं। वे कहते हैं कि आदिकाल से समाज के सर्वागींण विकास में घुमक्कड़ों सर्वोत्तम योगदान रहा है।
कोलम्बस और वास्को-द-गामा दो घुमक्कड़ ही थे, जिन्होने पश्चिम देशों के आगे बढ़ने का रास्ता खोला। किसी समय भारत और चीन ने बड़े-बड़े नामी घुमक्कड़ पैदा किये थे। लेकिन कूप-मंडूकता, तेरा सत्यानाश हो! इस देश के बुद्धुओं ने उपदेश करना शुरू किया कि समुन्दर के खारे पानी और हिन्दू धर्म में बड़ा बैर है, उसके छूने मात्र से वह नमक की पुतली की तरह गल जायेगा। जिस जाति या देश ने घुमक्कड़ी – धर्म को अपनाया, वह चारों फलों का भागी हुआ और जिसने इसे दुराया, उसके लिए नरक में भी ठिकाना नहीं। आखिर घुमक्कड़-धर्म को भूलने के कारण ही हम सात शताब्दियों तक धक्का खाते रहे, ऐरे-गैरे जो भी आये, हमें चार लात लगाते गये (पृष्ठ-8)।
यह किताब देश – दुनिया के महान पुरुषों के योगदान का श्रेय उनकी घुमक्कड़ी प्रवृत्ति को देती है। ‘‘इसमें किसे उज्र हो सकता है कि शैव या वैष्णव, वेदान्ती या सदान्ती सभी को आगे बढ़ाया केवल घुमक्कड़-धर्म ने। गुरु नानक का समय दूर का नहीं है, लेकिन अपने समय के वह महान् घुमक्कड़ थे। उन्होने भारत भ्रमण को ही पर्याप्त नहीं समझा और ईरान और अरब तक का धावा मारा। घुमक्कड़ी किसी बड़े योग से कम सिद्धिदायिनी नहीं है और निर्भीक तो वह एक नम्बर का बना देती है। स्वामी दयानन्द को ऋषि दयानन्द किसने बनाया? घुमक्कड़ी धर्म ने। उन्होने बताया कि मनुष्य स्थावर वृक्ष नहीं है, वह जंगम प्राणी है। चलना मनुष्य का धर्म है। जिसने उसे छोड़ा, वह मनुष्य होने का अधिकारी नहीं है। संसार में यदि कोई अनादि सनातन-धर्म है, तो वह घुमक्कड़-धर्म है (पृष्ठ-10)।’’
भारतीयों की घुमक्कड़ी प्रवृत्ति और उसके गिरते स्वरूप की विवेचना यह किताब बखूबी से करती है। ‘‘आज भी जावा के बड़े-बड़े संस्कृत के शिलालेख, कम्बोज के सुन्दर गद्य-पद्यमय विषाल अभिलेख हमारे उन यशस्वी घुमक्कड़ों की कीर्ति को अमर किये हुए हैं। ये हमारे घुमक्कड़ थे जो डेढ़ हजार वर्ष पहले साइबेरिया की बाइकाल झील का चक्कर काट आये थे। आज भी भारत का नाम वहां उन्हीं की तपस्या के कारण अत्यन्त श्रद्धा से लिया जाता है। जिस भूमि ने ऐसे यशस्वी पुत्रों को पैदा किया, क्या वह आज केवल घरधुसुओं को पैदा करने लायक ही रह गई है (पृष्ठ-14)?’’
राहलु जी का मत है कि यदि देश – समाज के लिए कुछ सार्थक करना है तो दुनियादारी के बन्धनों और मोह से अपने को तटस्थ करना होगा। ‘‘सबसे कड़ा बंधन होता है स्नेह का, और स्नेह में यदि निरीहता सम्मिलित हो जाती है, तो वह और भी मजबूत हो जाता है। घुमक्कड़ों के तजर्बे से मालूम है कि यदि वह अपनी मां के स्नेह और आंसुओं की चिन्ता करते, तो उनमें से एक भी घर से बाहर नहीं निकल सकता था (पृष्ठ-14)।’’
‘घुमक्कड़ शास्त्र’ किताब में राहुल सांकृत्यायन घुमक्कड़ी के विभिन्न वर्गों, जातियों, स्तर, शिक्षा-दीक्षा, हुनर, घुमक्कड़ी के मौलिक सिंद्धातों, कर्तव्यों, दायित्वों, आचरण सम्बधी नियमों आदि पर मार्गदर्शी संदेश और सुझावों को उल्लेखित करते हैं। उनका मत है कि घुमक्कड़ी की प्रवृत्ति व्यक्ति को पारिवारिक दायित्वों और जीवकोपार्जन को कुशलतापूर्वक निभाने के लिए एक व्यापक समझ देती है। अतः इनमें आपस का विरोध नहीं सहयोग का रिश्ता है। एक घुमक्कड़ के लिए संस्कार, आदत, आदर, जिज्ञासा, स्वास्थ्य, शिक्षा, तकनीकी ज्ञान, स्वावलम्बन और विपरीत परिस्थितियों को सहने और अनुकूल बनाने की क्षमता होनी परम आवश्यक है।
राहुल सांकृत्यायन का दृड मत था कि घुमक्कड़ी करने में स्त्री का भी उतना ही अधिकार है, जितना कि पुरुष का। अतः महिलाओं को बेवजह घुमक्कड़ी करने से नहीं रोका जाना चाहिए। हां, इसके लिए कुछ सावधानियों का उन्होने जिक्र जरूर किया है। ‘‘तरुणियों को अपना मार्ग मुक्त करने में सफल होने के सम्बन्ध में अपनी शुभकामना प्रकट करते हुए मैं पुरुषों से कहूंगा-तुम टिटहरी की तरह पैर खड़ाकर आसमान को रोकने की कोशिश न करो। तुम इस प्रवाह को रोक नहीं सकते। अधिक-से-अधिक अपनी पुत्रियों को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से वंचित रख सकते हो, लेकिन पौत्री को कैसे रोकोगे, जो कि तुम्हारे संसार से कूच करने के बाद आने वाली है। उन्हें घुमक्कड़ बनने दो, उन्हें दुर्गम और बीहड़ रास्तों से भिन्न-भिन्न देशों में जाने दो। लाठी लेकर रक्षा करने और पहरा देने से उनकी रक्षा नहीं हो सकती। वह तभी रक्षित होंगी जब वह खुद अपनी रक्षा करने की क्षमता अर्जित कर सकेगी (पृष्ठ-54 एवं 55)।’’
सार स्वरूप ‘घुमक्कड़ शास्त्र किताब में महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने यह संदेश दिया है कि ‘‘आज जिस प्रकार के घुमक्कड़ों की दुनिया को आवश्यकता है, उन्हें अपनी यात्रा केवल ‘स्वान्तः सुखाय’ नहीं करनी है। उन्हें हरेक चीज इस दृष्टि से देखनी है जिसमें कि घर बैठे रहने वाले दूसरे लाखों व्यक्तियों की वह आंख बन सके (पृष्ठ-68)।’’
किताब से इतर मेरा मानना है कि ‘‘यात्री आस्था से, पर्यटक सुख-सुविधा से और शोधार्थी अपने विषय से बंधकर चलायमान होता है। एक घुमक्कड़़ ही है जिस पर आस्था, सुख-सुविधा और ज्ञान का दबाव नहीं होता है। इस दुनिया को बेहतर और जीवंत बनाने की पहली पहल करने वाला निश्चित ही एक घुमक्कड़ रहा होगा। भारी-भरकम बंद किताबों में ठूंसे गए गरिष्ठ ज्ञान-ध्यान से कहीं अधिक रोचकता और अपनेपन का अहसास घमक्कड़ों के पदचाप से मिलती है। घुम्मकड़ तो जहां है, जैसा है, उसी में रम कर, उसके जैसा ही बनकर परम आनन्द की अनुभूति प्राप्त करता है। इसलिए मित्रों, घुमक्कड़ी शौक नहीं साधना है।’’ (यात्रा-पुस्तक-‘चले साथ पहाड़’, पृष्ठ-31) और, इस साधना को साधने, आनंददायी और सामाजिक कल्याण के निहतार्थ बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ साहित्य की धरोहर किताब ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ महान घुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन हमें सौंप गए हैं। इसलिए, घुमक्कड़ मित्रों, अवसर मिले तो यह पुस्तक जरूर पढ़ें।