निरबिजु
डॉ० नागेन्द्र जगूड़ी ‘नीलाम्बरम’
गढ़वाली भाषा में लिखा डॉ० उमेश चमोला का एक छोटा उपन्यास ‘निरबिजु’ अपने आप में जीवन का एक सम्पूर्ण दर्शन प्रस्तुत करता है|
ऐसा नहीं लगता कि यह उपन्यास लेखक की कल्पना की उपज है बल्कि गहरे दुःख से भरी इस उपन्यास की कथा पूरी ताकत के साथ ऐसा आभास देती है कि अपने चारों ओर की दुखांतक घटनाएँ लेखक पर दबाव डालती है कि वह अपने परिवेश में पनपते हुए सीमेंट गारे के घने जंगल, गगनचुंबी इमारतों और ऐय्याशी भरे राजनेताओं के जीवन एवं विलासिता में डूबी राजसत्ता को बेनकाब करता हुआ कुछ रच डाले| उपन्यास के कथानक का यह जीवंत दृश्य क्षेत्र लेखक के ह्रदय पर लिखने के लिए दबाव बनाता है| उस दबाव की यातना में लेखक इस मर्मान्तक कहानी को लिखता है| उपन्यासकार के इस परिवेशप्रदत्त कथानक का जीवंत दृश्य क्षेत्र आखिर वह कौन से ऐसा स्थान हो सकता है जहाँ की राजसत्ता अधर्म के मार्ग पर चल पडी है ? जहाँ जंगल के जंगल सफाचट होते जा रहे हैं ? जहाँ के राजनेता विलासिता में डूबते जा रहें हैं ? इस उपन्यास के गुंथे हुए सौन्दर्य के अंदर पाठक वर्ग उत्तराखण्ड की राजसत्ता तले जन्म लेते हुए काली छाया वाले राक्षस को बखूबी देख सकता है| मुझे तो लगता है कि अपनी सशक्त लाक्षणिकता के साथ यह उपन्यास उत्तराखण्ड राज्य निर्माण आन्दोलन की कड़वी –काली सच्चाइयों की ओर भी इशारा करता है और राज्य निर्माण के व्यर्थ हो चुके उद्देश्य और बरबाद हो चुके स्वप्न का भी साहित्यिक चातुर्य के साथ खुलासा करता है| उपन्यास साफ़ कहता है –’माराज ! आप धर्म का बाटा चलणा रैला त आपका भितर बुरै कु रागस जरमन्या नीं| जब स्वो जरमुलु ही नीं त आपकु क्वी बिगाड़ नि सकदु| पर जै दिन से अबाटा चलण बैठला त आपतैं क्वी बच्ये नि सकणयां – राजपुरैत धर्मदत्त न राजा तैं इन बिंगे| पूरा उपन्यास समकालीन राजनीति की सिलाई उधेड़ता हुआ नजर आता है जबकि कहानी हमेशा की पुरानी कहानी है| एक था राजा| एक थी राजकुमारी| दोनों की शादी हो गई| प्यार की कहानी भी ख़त्म हो गई| कहानी बहुत ही पुरानी, छोटी सी, रेडीमेड और सफल कहानी है |
अपने पिता के देहांत के बाद राजा महेंद्र प्रताप शेरगढ़ राज्य की राजगद्दी पर बैठता है| सौरगढ़ एक पड़ोसी राज्य है| सौरगढ़ का राजवंश समाप्ति की ओर है| वहाँ की राजकुमारी रूपिणी राज्य संचालन कर रही है| राजा महेंद्र प्रताप के स्वर्गीय पिता ने सौरगढ़ के राजा भानु प्रताप के साथ आजीवन शान्ति संधि बनाए रखी लेकिन गद्दी पर बैठते ही राजा महेंद्र प्रताप ने पिता के शान्ति सिद्धांत को तोड़ डाला| एक राजकुमारी द्वारा शासित सौरगढ़ राज्य पर आक्रमण करके उसे अशोक का कलिंग बना दिया| निहत्थी राजकुमारी रूपिणी के साहस एवं विवेक से भरे मर्मभेदी व्यंग्य बाणों से राजा महेंद्र प्रताप अपना सर्वस्व हार गया| अंततः दोनों का प्रेम उनको विवाह बंधन में बाँध कर विफल हो गया क्योंकि राजा महेंद्र प्रताप ने राजनर्तकी मोहिनी के सौन्दर्य पर मोहित होकर चालबाज मोहिनी से विवाह कर लिया| राजपुरुषों के सत्ता मद और विलासितापूर्ण भटकाव का उपन्यासकार ने सफल वर्णन किया है| इस उपन्यास को पढ़ते हुए उत्तराखण्ड का जैनी प्रकरण, आन्ध्र का चर्चित राजभवन और ऋषिकेश का शीशमझाड़ी काण्ड बरबस ही याद आ जाते हैं| राजनर्तकी जब महारानी बन गई तब उसने राजा को मारकर अपने भाई दीवानू को राजा बनाने का षड्यंत्र रचा| सर्वप्रथम उसने राजा महेंद्र प्रताप के सबसे विश्वासपात्र सेनापति खडगसिंह को अपने पद से हटवाया और अपने नालायक नाकारा भाई दीवानू को शेरगढ़ राज्य का सेनापति बनवा दिया| फिर वफादार रानी रूपिणी और वफादार देश प्रेमी पूर्व सेनापति खडगसिंह को राज्य से निकलवा दिया| राजा महेंद्र प्रताप की हत्या की झूठी खबर रूपिणी के पास विशेष दूत से भेजकर उसकी परीक्षा ली गई| पतिव्रता रानी रूपिणी ने बुरी खबर सुनते ही प्राण त्याग दिए| वह भगवती देवी के रूप में देव मंदिर में स्थापित हो गई| देशप्रेमी खड्ग सिंह भी उसी सदमे से मर गया| वह देवी के वीर भड के रूप में जन मानस में प्रसिद्ध हुआ| इधर मोहिनी के भाई दीवानू ने राजा महेंद्र प्रताप की हत्या कर दी| राजा के वफादार सैनिकों ने स्वार्थी महारानी मोहिनी और षड्यंत्रकारी सेनापति दीवानू की भी हत्या कर दी|
गद्दी प्राप्त करने के चक्कर में राज भवन पूरी तरह से षड्यंत्रों की गंगोत्री बन गया | शोषक नौकरशाह जनता का खून चूसने लगे| माफियों ने जंगलों का सफाया कर वहाँ पर सीमेंट के गगनचुंबी भवनों का निर्जीव हृदयहीन जंगल खड़ा कर दिया| यह मसालेदार उपन्यास इस तरह से समाप्त होता है – ’लोग ब्व्दन कै साल बीति गैन पर आज भी यख ढून्गे ढुंगा छन | दूर तलक क्वी डालू बोटुलु नि दिखेंद किलैकि यख कु माटू बल निरबिज्या ह्वेगि|’’ उपन्यासकार को अपनी कहानी चुनने और बुनने की अगाध स्वतंत्रता है| मुझे यह उपन्यास आज के उत्तराखण्ड राज्य की बदहाली को केंद्र में रखकर रचनाकार की कलाकारी मालूम पड़ता है| उपन्यास स्वयं प्रमाण देकर सिद्ध करता है कि लेखक ने जितना लिखा है उससे अधिक साहित्य संसार को पढ़ा है| विश्व प्रसिद्ध लेखकों की टक्कर के कई मुहावरे रचनाकार ने अपनी साधना से गढे हैं| उपन्यास श्रेष्ठतम पुरस्कार के काबिल है लेकिन गढ़वाली भाषा का दुर्भाग्य आर्यावर्त से से भी विशाल है| इस सीमान्त पहाडी भाषा को भोटिया राजा का राज्य जानता था और करीब १३०० वर्षो तक टिहरी गढ़वाल रियासत में यह राजभाषा रही लेकिन आज भोटिया राजा का राज्य चीन में चला गया है और टिहरी रियासत का ह्रदय टिहरी बाँध में डूब चुका है| लेखक की भाषा पर पालि भाषा का गहरा प्रभाव है| अच्छा होता कि वे संस्कृतनिष्ठ गढ़वाली भाषा को प्राथमिकता देते| लेखक ने मुहावरों की जबरदस्त बौछार की है| बिस्या सर्प कि जिकुड़ी मा दया जरमि जौ त क्या बात छ / माया कु सूरज उदै होण का दगिडि ही अछ्लेगि छौ / माया कु बाटू भौत संगुडू होंद, यख कै भ्योल, बिठा रैंदीन| अपने नए – नए मुहावरों से लेखक पाठकों का ह्रदय जीतने में शत = प्रतिशत सफल है| लेखक बधाई के पात्र हैं इन नएं मुहावरों के लिए बगत को पोथुलू अपड़ा पंखुडा फैले उडणु रै (वक्त का वनपंछी अपने पंख फैलाकर उड़ता रहा – समय बीतता चला गया / क्या छलबलान्दी ज्वनि छ यींकि / मन धक-धक धकद्यंदी जिकुड़ी न कब्जैलि छौ| उत्तराखण्ड की विनाशकारी बेरोजगारी को उपन्यासकार ने इस तरह बयान किया है – ‘गुरमुल्या ढूंगु जन नौकरि तैं लमडूणू आज यख, भोल वख|’ उत्तराखण्ड की सरकार की झलक देखिए – ‘जनता तैं द्वी टैम कु खाणु नि छौ अर दरबार्यों की मौज छै| लोगु तैं रौण कि जगा नि छै अर यों तैं गढ़ का वोर – पोर का बौण का बौण साफ़ करी वुंकि जगा पर सर्ग दगडी बुलान्दी मकानि बणाया गेन|’ बहुत समय बाद गढ़वाली में एक ताकतवर उपन्यास सामने आया है जो झकझोर देता है|
निरबिजु गढ़वाली उपन्यास
लेखक –डॉ ० उमेश चमोला
प्रकाशक –विनसर पब्लिशिंग कम्पनी देहरादून ,उत्तराखण्ड
मूल्य –६० रु