गढ़वाल में पांडव नृत्यों की परम्परा
जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
हिमालय के उत्तर में स्थित पर्वतीय राज्य उत्तराखण्ड देव भूमि के नाम से जग में प्रसिद्व है। ऐतिहासिक रूप से छोटे-छोटे गढ़ों को मिलाकर अखिल गढ़राज्य गढ़वाल की स्थापना की गई है। कालान्तर में यह गढ़वाल व कुमॉऊ के संयुक्त स्वरूप में भी जाना गया।
अनेक देवी-देवताओं के मठ-मन्दिरों के कारण उत्तराखण्ड की यह भूमि देव भूमि के रूप में हजारों लोगों की आस्था का प्रतीक बनी। यहॉ के कण-कण में देवी-देवताओं से जुड़ी अनेकों कथाओं, परम्पराओं, नृत्यों व संस्कृतियों का समावेश है। महाभारत के युद्व व उसके पश्चात् पाण्डवों व कौरवों ने अनेकों बार उत्तराखण्ड में विशेषकर गढ़वाल क्षेत्र में प्रवास किया। गढ़वाल में कोई घाटी, चोटी, नदी, पहाड़, गॉव ऐसे नहीं मिलेंगे जहॉ किसी न किसी रूप में पाण्डवों के चिन्ह न हों।
कहने का आशय यह है कि बिना पाण्डवों के गढ़वाल के समाज, संस्कृति व परम्परा की कल्पना की ही नहीं जा सकती। उत्तरकाशी की यमुना घाटी में अनेकां स्थान हैं जहॉ पाण्डवों के साथ-साथ कौरवों से जुड़े कई स्थान हैं। इन्हीं में से एक प्रमुख क्षेत्र है लाखामण्डल का। कहा जाता है कि लाखामण्डल में कौरवों ने षढयंत्र रचकर लाक्षागृह का निर्माण किया था। लेकिन समय रहते पाण्डवों को इसकी भनक लग गई व वे गुफा के सहारे बच निकले। लाखामण्डल इलाके में आज भी सेकड़ों गुफायें हैं। जहॉ कहा जाता है कि पाण्डवों ने इन गुफाओं में समय-समय पर प्रवास किया। वे लगातार अपना स्थान बदलते रहते थे। क्योंकि कौरव लगातार उनका पीछा करते रहते थे। जौनसार के इस इलाके के गॉवों में हर वर्ष पाण्डव लीलाओं एंव नृत्य का कार्यक्रम आज भी यथावत जारी है। दरअसल पाण्डव नृत्य कोई सामान्य नृत्य नहीं है। यह नृत्य गीत एंव नाटकों का एक सम्मिलित स्वरूप है जिसमें ढोल की सबसे बड़ी भूमिका है। ढोली व सहयोगी वार्ताकार कहानी व गीतों से पाण्डवों की जीवन शैली, खान-पान, हास्य युद्व कृषि जैसे अनेकों क्रिया कलापों को नृत्यगीत नाटिका के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। इन पाण्डवों में जहॉ हास्य व्यग्य शामिल है वहीं युद्व कौशल व पाण्डवों के कठिन जीवन, रोष-छोभ का भी समावेश होता है। पाण्डवों की सच्ची संस्कृति व परम्परा के अगर कोई सच्चे वाहक हैं तो यमुना घाटी व टोंस में स्थित रवाई, जौनसार व वावर के सैकड़ों गॉव। यहॉ की समाज व्यवस्था आज भी पाण्डवों की परम्पराआें का अनुसरण करती है। पाण्डवों ने अपने हिमालय प्रवास के दौरान एक तरफ से गढ़वाल के सैकड़ों गॉवों में राज किया था। लेकिन कौरवों ने यहॉ भी उनका पीछा कभी नहीं छोड़ा। लिहाजा सुरक्षा कारणों से पाण्डवों को हर दिन अपना प्रवास स्थल बना गॉव या क्षेत्र बदलना पड़ता था। गढ़वाल में भले ही अधिकॉश इलाकों में पाण्डवों के समर्थक समाज थे लेकिन यहॉ कौरवों के छुट-पुट समर्थक भी मौजूद रहे। कभी आप टोंस घाटी की यात्रा करें तो नैटवाड़ के ऊपर कौरवों के मुख्य कर्ता-धर्ता कर्ण महाराज का देवरा गॉव में विशाल मन्दिर है।
इस इलाके के दर्जनों गॉवों के मुख्य अधिष्ठाता देव कर्ण ही हैं। आज भी इन गॉवों में कर्ण महाराज की विधिवत पूजा होती है। यहॉ पाण्डव ठीक उसी प्रकार हैं जैसे पाण्डवों को पूजने व मानने वाले गॉवों में कौरव आज भी दुश्मन के रूप में हैं। टोंस घाटी के इस इलाके में कर्ण महाराज हर वर्ष अपने लाव लश्कर के साथ गॉव के प्रवास पर होते हैं। कर्ण से जुड़ी कथाओं से विशिष्ठ नृत्य गीत होता है जो कौरवों की गाथाओं से लोगों को परिचित करवाता रहता है। यह ठीक ऐसा ही है जैंसे पाण्डव नृत्य की परम्परा। पाण्डवों की गहराई से अध्ययन करते हुऐ मैं इस निष्कर्ष पर पहुॅचा हुॅ कि भले ही यहॉ कर्ण की उपस्थिति व कौरवों के समर्थक व कौरवों की सभ्यता संस्कृति पर आस्था जताने वाले लोग व समाज मौजूद है, लेकिन पाण्डवों व कौरवों की संस्कृति से जुड़े समाजों में कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं है। क्योंकि पाण्डव व कौरवों के जमाने की सभ्यता, संस्कृति, परम्परा, जीवन शैली व युद्व लगभग एक जैसे ही थे। गढ़वाल में कौरवों की उपस्थिति जहॉ यमुना व टोंस घाटी में देखी जाती है वहीं कर्णप्रयाग तो महाराजा कर्ण के नाम से ही प्रसिद्व है। अब थोड़ा रूख करते हैं। गढ़वाल के अन्य हिस्सों व गॉव की ओर। पाण्डव नृत्य की सबसे समृद्वशाली परम्परा चमोली व टिहरी में देखने को मिलती है। उत्तरकाशी के हर गॉव में पाण्डव नृत्य ग्राम समाज का अभिन्न हिस्सा तो है ही, लेकिन टिहरी की भिलंगना घाटी, लस्या बांगर पट्टी, धनपुर, अगस्तमुनी, उखीमठ, रूद्रप्रयाग के इलाकों के पाण्डव नृत्य सबसे अधिक प्रसिद्व व प्रचलित हैं। इन इलाकों में पाण्डव नृत्य व लीलाओं का आयोजन हर वर्ष या एक साल छोड़कर सैकड़ों वर्षों से होता आ रहा है। यहॉ पाण्डव नृत्य करने वाले पात्र अपनी पारम्परिक भेष-भूषा में सजे-धजे रहते हैं व उनके हाथों में उनके युद्व के प्रमुख हथियार जैसे तीर, धनुष, भाला, गदा होते हैं। इन हथियारों के साथ ढोल की थाप पर वे नृत्य करते हुऐ अपनी भाव-भगिमाओं से पाण्डवों की कहानियें पे दर्शकों को रूबरू करवाते हैं। गढवाल में पाण्डव नृत्यों का आयोजन मुख्य रूप से सर्दियों के मौसम में धूम-धाम से किया जाता है। पाण्डव नृत्य कहीं 15 दिन तथा कहीं-कहीं पूरे महिने आयोजित किया जाता है। इन दिनों दूर-दराज रोजी-रोटी की तलाश में गये लोग भी छुट्टी लेकर अपने गॉवों की ओर लौटते हैं, तो बेटियॉ ससुराल से अपने मायके पहॅुचकर पाण्डव नृत्य व लीलाओं का आनन्द उठाती हैं। पाण्डव नृत्य ग्राम समाज की संस्कृति, परम्परा व एकता का एक अनूठा आयोजन होता है, जिसमें प्रत्येक ग्रामवासी अपनी पूरी मेहनत, ईमानदारी व आस्था के साथ-साथ भागेदारी निभाता है। पाण्डव नृत्य के आयोजन में हर एक की अपनी अलग-अलग भूमिका सुनिश्चित होती है। अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, द्रोपदी के साथ-साथ अन्य पात्रों के अलग-अलग कलाकार अपनी भूमिकाओं के अनुसार नृत्य व लीलाओं का मंचन करते हैं।
इस पूरे नृत्य गीत व नाटिका का सफलता पूर्वक संचालन गॉव के ढोली के हवाले होता है। ढोली भले ही अनुसूचिमत जाति के लोग होते है लेकिन महाभारत की कथाओं के वे एक मात्र ज्ञाता हैं जो गीत व वार्ताओं से पाण्डव नृत्य में समा बॉध देते हैं। बीच-बीच में गॉव के अन्य बुर्जुग जिन्हें पाण्डवों की कहानियॉ ज्ञात होती हैं वे भी लयबद्व वार्ता व गायन शैली में महाभारत की कथा आयजन को सुनाते हैं। पाण्डवों की कथाओं में पाण्डवों से जुड़े अनेकों बीरों जिन्हें देवताओं के पश्वा या पात्र कहा जाता है, वे भी पाण्डव नृत्य के दौरान अपनी-अपनी शक्ति व पाण्डवों के प्रति विभिन्न प्रकार की मुद्राओं, नृत्यों व शक्ति प्रर्दशनों से ग्रामीणों को रोमांचित कर देते हैं। गढ़वाल के गॉवों में पाण्डव नृत्यों का आयोजन की तिथि परम्परानुसार गॉव के पुजारियों द्वारा तय की जाती है। पाण्डव नृत्य स्थल या चौक की साफ-सफाई, हथियारों को तैयार करना, नृत्य पौषाकों, पूजा स्थल, आदि व्यवस्थाओं को सुनिश्चित कर नियत समय पर पाण्डव नृत्य प्रारम्भ हो जाता है। शुरूआती दिनों में केवल दोपहर के पश्चात् नृत्य व लीला का आयोजन होता है जो धीरे-धीरे अन्तिम दिनों में दिन और रात लगातार चलता रहता है। पाण्डव नृत्य क्योंकि ठंड के मौसम में होता है तो लोग मिलकर जंगल से लकड़ी इकट्ठा कर लेते है व रात को नृत्य स्थल के बीच-बीच में जलाकर मौसम को गर्म रखने का प्रयास करते हैं। पाण्डव नृत्य के पात्र व व्यवस्था बनाने वाले लोगों के खाने की व्यवस्था भी अलग-अलग दिन अलग-अलग परिवारों के जिम्मे होती है। लगातार 15 दिन या 1 महिने तक पाण्डव नृत्य व लीला का मंचन एक कठिन शाररिक व थका देने वाला कार्य है। लिहाजा इस हेतु पात्रों को लगातार स्वस्थ रहकर इस कार्य को निभाना पड़ता है। पाण्डव नृत्य के कलाकारों का स्वास्थ सही रहे व उनमें स्फूर्ति व तरो ताजगी बनी रहे इस हेतु गॉव के लोग पाण्डवों के पात्रों व सहयोगियों के लिए ताजे फल, मेवे इत्यादि भेंट करते रहते हैं।
कुछ परिवार पाण्डवों के पात्रों व सहयोगियों के लिए अपनी स्वेच्छा, खुशी व आस्था के रहते पौष्टिक भोजन हेतु भी आमंत्रित करते हैं व यथा सम्भव कुछ भेंट जैसे रूपये, पैसे व कपड़ों का दान भी करते हैं। गढ़वाल के अमूमन हर गॉवों व इलाकों में पाण्डव नृत्यों का आयोजन यहॉ की परम्परा व जीवन्त संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। बिना पाण्डवों के गढ़वाल की संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती है। पाण्डव नृत्यों के अन्तिम 2-3 दिन व रातों को विशेष आयोजन होते है। जिसमें गैड़ी का बध, पाण्डवों की कृषि व्यवस्था व अन्तिम रात्री को स्वर्गारोहण का कार्यक्रम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। और पाण्डव नृत्य के अन्तिम दिन गंगा स्नान यात्रा व जंगल से लेकर चीड़ के वृक्ष पर फलों को बॉधने व श्रीकृष्ण द्वारा उसे जनता में बॉटकर सुख- समृद्वि की कामना का पर्व अति उत्साह पूर्वक आयोजित किया जाता है, जिसमें आस-पास के गॉवों के हजारों लोगों का भी जमावड़ा होकर एक विशाल उत्सव का स्वरूप ले लेता है। और इस प्रकार हर वर्ष आयोजित होने वाला पाण्डव नृत्य सफलता पूर्वक सम्पन्न हो जाता है। गढ़वाल के गॉवों की कथायें बिना पाण्डवों के कभी पूरी नहीं हो सकती। कहीं- कहीं पाण्डव नृत्य आयोजन के साथ-साथ चक्रव्यूह व कमलव्यूह जैसे कौरव- पाण्डवों के युद्व क्रियाकलाप को नाटक व गीत शैली में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन यह पाण्डव नृत्य की तरह हर गॉव में आयोजित नहीं होता है। चक्रव्यूह व कमलव्यूह के सुन्दर आयोजन मन्दाकिनी घाटी के चुनिंदा गॉवों में किया जाता है। जैसे पाण्डव नृत्यों के लिए रूद्रप्रयाग स्थित पुनाड़ गॉव प्रसिद्व है, वहीं चक्रव्यूह के लिए गडमिल, गंधारी व भीरी तथा कमलव्यूह के लिए डमार गॉव को विशेष प्रसिद्वि हासिल है। आज गढ़वाल के समाजों में भी बदलाव देखा गया है, जिसका अपर गढ़वाल की पाण्डव नृत्य परम्परा पर भी पड़ रहा है। लेकिन खुशी की बात यह है कि आज भी लोग इस समृद्व परम्परा का निर्वहन पूरी आस्था के साथ कर रहे हैं। जिसे भविष्य में भी इसी उत्साह के साथ जारी रखने की मैं एक सादर अपील करता हुॅ।
फोटो – सलिल डोबाल