बेहाल स्वास्थ्य सेवायें
 
                महावीर सिंह जगवान
इक्कीसवीं सदी के भारत का हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड स्वास्थ्य सुविधाऔं की उपलब्ध लचर ब्यवस्था पर हाँफता हुआ दिखता है।
पूरे विश्व मे जितना अजूबा उत्तराखण्ड मे है वैसा तो दूर दूर नही, सुदूर क्षेत्रों तक भब्य भवन, औषधियों का भण्डार कक्ष, चमचमाते फर्स, एम्बुलेंस की भरमार, चलते फिरते अस्पताल करोड़ों की गाड़िया, एलोपैथिक के साथ आयुर्वेदिक और हौम्योपेथी शसक्त विभाग लेकिन एक्सपर्ट डाॅक्टरों का अकाल ।स्वास्थ्य एक ऐसा महकमा है जहाँ विना विषय विशेषज्ञ डाॅक्टर के पूरा सिस्टम ही खोखला और सफेद हाथी बन जाता है। उत्तराखण्ड की विधान सभा के सौ फीसदी विधायकों के लिये सबसे बड़ी चुनौती है वह अपने विधान सभा के बीमार लोंगो को मुख्यमंत्री राहत कोष से राहत उपलब्ध कराये। उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद से मुख्यमंत्री राहत कोष पर सभी की आस और सत्ताऔं का संतुलन केन्द्र तक रहा है। वर्तमान मे भी मुख्यमंत्री राहत कोष पर अस्सी फीसदी बीमारी से जूझ रहे लोंगो की मदद का दबाव है, सरकार मजबूरी मे एक निश्चित राशि देने पर विचार कर रही है जिसकी सीमा दस हजार के आस पास हो। बड़ा सवाल है एक ओर राज्य सरकार केन्द्र और अन्तर्राष्ट्रीय संस्थानों की भारी भरकम बजट को ब्यय कर रही है दूसरी ओर राज्य की गरीब और असहाय जनता महँगे इलाज के लिये मजबूर हैं। सरकार का स्वास्थ्य मद के ब्यय का तरीका भी गजब का है, यदि 100 रूपये का बजट है तो तीस रूपये कुर्सी कागज मे खर्च हो जाते हैं, तीस रूपये परिवहन और तकनीकी प्रबन्धन मे, बीस रूपये जीवन रक्षक दवाइयों मे और दस रूपये सिस्टम के मूवमेन्ट मे और दस रूपये खर्च की इन्तजारी मे ही लैप्स हो जाता है। जब गाँव से अति सामान्य पैसेन्ट नजदीकी अस्पताल मे पहुँचता है तो वहाँ डाॅक्टर नही होते वह और दूर ब्लाॅक चिकित्सालय तक पहुँचता है वहाँ जरूरी रक्त जाँच की सुविधाऔं के अभाव मे वह जिला चिकित्सालय तक पहुँचता है, दिखता सभी सरकारी है लेकिन खर्चा प्राइवेट की तरह ही होता है। ठीक इसके उलट आपातकाल मे तो जिला चिकित्सालय से लेकर मेडिकल काॅलेज रेफर सेंटर बन जाते हैं और हजारों मे उपलब्ध होने वाले इलाज लाखों तक पहुँच जाता है।
वाह रे लाचार सिस्टम आम आदमी के इलाज की ब्यवस्था तो नही कर पाये लेकिन समय से पहले उसकी अकाल विदाई की ब्यवस्था पक्की है। दूर हिमालय के गाँव से जब भी कोई बाजार आता है जरूरी सामान के लिये नजदीकी कस्बों मे तो हर घर की अनमोल जरूरत नीले पत्ते वाली दवाई जरूर उस जरूरी सामान के साथ खरीदी जाती है। सरकारी अस्पताल के डाॅक्टर सरकारी दवाइयों पर भरोसा नही करते तीमारदार तो मजबूर है। जो दवाइयाँ सप्लाई होती हैं उनका तो एक बड़ा हिस्सा न जाने कहाँ दफन हो जाता है विना उपयोग के। सरकार की गैरजिम्मेदारी ने सिस्टम को लकवा मार दिया और सम्मपन्नता के साथ सेवा के पदो पर आशीन देवतुल्य डाॅक्टरों ने नंगे भूखों की तरह दोनो हाथों से, मजबूर और जिन्दगी मौत से जूझते मरीज को लूटने की भरसक कोशिष की है। सवालों का अंतहीन सिल सिला माथे पर बल डालता है आखिर निकलें तो निकलें कैसे इसी पर एक अति सामान्य नागरिक की अपनी राय।
जिला चिकित्सालयों के साथ ब्लाॅक लेवल चिकित्सकालयों की विगत तीन वर्षों के मरीजों का गहन अध्ययन। अध्ययन के आधार पर एक्सपर्ट ग्रुप के चिकित्सकों की एक पूर्ण टीम की नियुक्ति, आपात एवं अत्यअधिक जरूरत के नियमित उपयोगी डाॅक्टरों की ब्लाॅक स्तर पर नियुक्ति। इनका सुब्यवस्थित ब्लाॅक स्तरीय चार्ट और कौशलता से प्रबन्धन। इनकी दैनिक सेवा का समय सुनियोजित लाभाँश के साथ बढे। ताकि एक पद का एक्सपर्ट अन्य जगह भी अपनी सेवा दे सके। साप्ताहिक स्वास्थ्य चार्ट ऐसा बने जिससे नजदीक से नजदीक स्वास्थ्य सुविधाऔं का गुणात्मक लाभ पहुँचे। निकटस्थ स्वास्थ्य सुविधा केन्द्रो पर प्राथमिक जाँच की प्रक्रिया पूर्ण करने की सुविधायें विकसित हों। इन्टरनैट सेवा से स्वास्थ्य की प्राथमिक जानकारी साझा करने एवं सलाह प्राप्त करने के विकल्प हों। स्थानीय स्तर पर उपलब्ध परिवहन संसाधनों के साथ आपातकालीन सुविधाऔं का ढाँचा विकसित हो। जाँच का मुख्य विन्दु बीमारी के कारण की जानकारी प्राप्त करने की सुविधाऔं का विस्तार हो, साथ ही बीमारी के समाधान हेतु सक्षम विकल्पों की स्पष्ट और शसक्त जानकारी हो।
वार्षिक स्तर पर क्रय की जाने वाली औषधियों का क्रय त्रैमासिक स्तर पर हो, ताकि जरूरी दवाइयों की खपत घटाई बढाई जा सके। जिला चिकित्सालय मे ऐसी एक्सपर्ट त्वरित निर्णय लेने वाली कमेटी हो जो चौबीस घण्टे के भीतर जरूरी दवाई या मेडिकल सपोर्ट मैटिरियल खरीदने मे सक्षम हो। (जनपद स्तर पर कभी ऐसे मरीज पहुँचते है जैसे किसी का पाँव गंभीर स्थिति मे टूट गया और ऑप्रेशन के लिये राॅड की जरूरत है जिसकी कीमत तीस हजार रूपये है, इनका नाप और साइज के साथ क्वालिटी इतने प्रकार की है पूर्व खरीदकर लाभ नही है हाँ उपलब्ध पेसेन्ट को देखकर ब्यवस्था जुटाई जा सकती है)। हर महीने जनपद स्तर पर स्वास्थ्य चार्ट की एक रिपोर्ट बने जिसके आधार पर स्वास्थ्य विभाग अपने को निरन्तर शसक्त बनाये। हमारा मानना है उपलब्ध संसाधनो को जड़त्व के बजाय गतिमान स्वरूप मे अधिक लाभ की ओर बढाया जा सकता है।
भारत सरकार खेत के हेल्थ कार्ड की बात कर रही है तो क्या इससे पहले नागरिक के हैल्थ कार्ड की बात नही होनी चाहिये। जिसका समय समय पर सूक्ष्म फीस लेकर चैकअप होता रहे। ताकि गम्भीर बीमारियों से समय से पहले सुरक्षित होने की सम्भावनायें बढे। स्वास्थ्य लाभ के सभी विकल्पों को चरणबद्ध तरीके से आम जनमानस तक पहुँचाया जाय, स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाली हर उस समस्याऔं का निदान करें जिससे बीमारियाँ फैलती हैं, इन महत्वपूर्ण विन्दुऔं को गम्भीरता से लें। औषधियों के उपलब्ध बाजार मे गुणवत्ता के साथ कतई समझौता न हो। जनपद स्तरीय स्वास्थ्य से सम्बन्धित आर्थिक सहायताऔं का जनपद मे ही समाधान हो ताकि पात्र की सेवा पारदर्शिता से पूर्ण हो। दो बड़े या पाँच छोटे गाँवो के बीच स्वास्थ्य कैम्प लगे जिसमे सीजनल फीवर और प्राथमिक जाँच की सुविधायें हों ताकि सुरक्षित और कम खर्चीला लाभ लेने की प्रक्रिया शुरू हो। राज्य सरकारों को समय रहते अपने नागरिकों के स्वास्थ्य के विषय को प्रथम वरीयता देकर शसक्त पहल करनी चाहिये। आयें मिलकर उपलब्ध राजकीय स्वास्थ्य सेवाऔं का अधिक लाभ लें, अपना सहयोग बढायें ताकि स्वास्थ्य जैसा महकमा अधिक गम्भीरता से अधिक लाभ पहुँचाने मे सक्षम बने। सरकारे अधिक गम्भीरता दिखाये।
लेख़क सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं
चित्र साभार – दीपक कैंतुरा

 
                                         
                                         
                                         
                                         
                                         
                                        