November 21, 2024



आन्दोलन की किताब

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मुकेश नौटियाल


जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’ के आलेखों की श्रृंखला की प्रस्तुत पुस्तक का शीर्षक ‘गैरसैंण’ भले उत्तराखण्ड की प्रस्तावित राजधानी के बावत सूचनाएं देने का भ्रम देता हो- लेकिन वस्तुतः ऐसा है नहीं।


‘गैरसैंण’ यहां एक बिम्ब है उन आदिम आकांक्षाओं के कुल समुच्चय का जो पर्वत-प्रदेश के वाशिंदे दशकों से अपने अंतस में पालते रहे। इन्हीं आकांक्षाओं ने हिमालयवासियों के मन में ‘अपने राज्य’ की सुनहरी परिकल्पना के बीज बोए, फलस्वरूप दुनियां से एकदम कटे और हिमालय से बिल्कुल सटे कस्बों-गांवों में एक आंदोलन सुलगने लगा। नब्बे के दशक में यह चिंगारी भयावह दावानल के रूप में सामने आयी। वह एक अद्भुत आंदोलन था। पर्वत प्रदेश के बेहद शांत निवासियों की इस अनूठी आक्रात्मकता का संज्ञान दिल्ली के तख्त के अलावा दुनियां भर के मीडिया ने भी लिया। फलस्वरूप हिमालयी अंचल के निवासियों को तमाम शहादतों और जुल्मों को सहने का पारितोषिक मिला और पृथक् राज्य उत्तराखण्ड अस्तित्व में आया। यहां तक की कहानी पर खूब चर्चा हो चुकी और अमूमन लोग इस कालखण्ड की घटनाओं को जानते-समझते है। मुख्य धारा के मीडिया ने इस अवधि को दर्ज किया है और आज भी गाहे-बगाहे इस दरम्यान उपजी परिस्थितियों की चर्चा हो जाती है। राज्य बन गया लेकिन फिर क्या हुआ? यह यक्ष प्रश्न है। यही आज बड़ा सवाल है। लेकिन आश्चर्य कि इस सवाल को केवल सत्ता-प्रतिष्ठान ही नहीं, सरोकारों में शामिल संस्थाएं और जुझारू तेवरों के लिए जाने जाते रहे लोग भी हांशिये पर धकेल रहे है। ऐसा क्यों हो रहा है- यह मूल प्रश्न से भी ज्यादा गंभीर सवाल है। प्रतिपक्ष को सत्ता प्रलोभ देकर चुप करती है- यह सर्वमान्य सिद्धांत सबकी नोटिस में है। विरोध को भय से कुंद करने की चारित्रिक विशेषता से सत्ता को पारिभाषित करने का रिवाज़ भी अब पुराना पड़ चुका। उत्तराखण्ड की पृथक् राज्य के रूप में 15 वर्षों की कुल यात्रा के बाद आज जो दृष्य हमारे सामने है उसको केवल सत्ता के उक्त चरित्र के मद्देनजर विश्लेषित नहीं किया जा सकता। कहीं बहुत गहरे में कुछ षड़यंत्र जरूर दफन हैं जो उन आकांक्षाओं को एक-एक कर मारते जा रहे है। जो हिमालयी अंचल के आंदोलनकारियों ने पाली थी। इन षड़यंत्रों की तलाश में ‘गैरसैंण’ के लेखक ने कई पहलुओं को खंगाला है।


उत्तराखण्ड की सत्ता लोगों की उम्मीदों पर ऐन शुरूआत में ही क्यों बट्टा मार गई ? इस सवाल का जबाव इस पुस्तक में समाहित आलेखों के अद्योपांत अध्ययन के बाद तलाशा जा सकता है। जयप्रकाश पंवार यह काम इतनी निर्भीकता और निष्पक्षता से इसलिए कर पाए हैं क्योंकि इस दरम्यान वह स्वयं स्वतंत्र पत्रकार की हैसियत से लिखते रहे हैं। उनके ऊपर किसी प्रकार का कोई दबाव नहीं रहा होगा- तभी चीजें इतनी स्पष्ट होकर सामने आई हैं। हमारे वर्तमान का सबसे बड़ा विद्रूप यही है कि पत्रकारिता और लेखकीय उपक्रम में हमको अक्सर सांस्थानिक दबावों से दो-चार होना पड़ता है। इससे अक्सर वे बातें सामने आने से रह जाती है। जिनके सार्वजनिक होने से संस्थाओं को खतरा हो सकता है। ‘गैरसैंण’ पुस्तक में प्रकाशित आलेख पूर्व में भी प्रिंट और इलैक्ट्राॅनिक माध्यमों के जरिए पाठकों/दर्शकों के सामने आते रहे हैं। लेखक ने उत्तराखण्ड के कुल 12 वर्ष की इस वय के दौरान छपे इन लेखों को पुस्तक में राज्य के निवासियों की अपेक्षाओं, चिंताओं और नाराजगियों के क्रम में सुव्यवस्थित किया है। इस क्रम से पाठकों को यह जान पाने की सुविधा मिल जाती है कि उनके अंचल में कब कौन सा सपना कहां और किस षड़यंत्र के तहत टूटा। पुस्तक को पूरा पढ़ने के बाद पता चलता है कि उत्तराखण्ड राज्य की धुरी असल में कुछ ऐसे लोगों द्वारा संचालित होती रही जिनकी न तो राज्य निर्माण की लड़ाई में कोई सीधी सहभागिता थी और न ही इस पर्वतीय प्रदेश के सरोकारों से उनका कोई भावनात्मक लगाव था। केवल राजनैतिक स्वार्थों की प्रतिपूर्ति के लिए उत्तराखण्ड की मशीनरी को कुछ प्रभावशाली पक्षों द्वारा संचालित किया जाता रहा।

लेखक ने केवल वर्तमान का कसैला परिदृष्य ही रेखांकित नहीं किया है बल्कि समस्याओं के समाधान के लिए उपाय भी सुझाए है। जयप्रकाश स्वयं जन्मजात घुमक्कड़ हैं और अपने इसी ययावर स्वभाव के चलते उन्होंने कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और पूर्वोत्तर से लेकर हिमाचल के, तिब्बत बाॅर्डर तक की परिधि नापी है। यही कारण है कि कृषि से लेकर पर्यटन और रोजगार से लेकर शिक्षा तक के मसलों का तुलनातमक अध्ययन करते हुए वह उत्तराखण्ड को देश के दूसरे इलाकों के बरवश खड़ा कर पाते है। उत्तराखण्ड में जल-जंगल और जमीन जैसे जनोन्मुखी मसलों का सच सामने रखते हुए लेखक ने केवल देश ही नहीं बल्कि दुनियां के अन्य राष्ट्रों के प्रसंगों को भी बखूबी शामिल किया है। उत्तराखण्ड से इतर अन्य इलाकों में उत्तराखण्ड जैसी परिस्थितियों में ही मशीनरी ने किस प्रकार समाधान के रास्ते तलाशे, यह जानना सचमुच दिलचस्प है। इन संदर्भों को पढ़ते हुए यह उम्मीद बंधती है कि हमारे इस नवोदित राज्य में भी विकट समस्याओं के समाधान तलाशे जा सकते हैं। लेकिन सवाल फिर वहीं खड़ा होता है कि अगर ऐसा संभव है तो पहल क्यों नहीं की जाती?


आलेखों की इस श्रृंखला में ही इस प्रश्न का जबाव भी छुपा है। कई जगह क्षेत्रीय दलों की भूमिका सवालों के घेरे में आती है तो कई जगह मैदान-पहाड़ की लड़ाई खड़ी कर अपना धंधा चलाने वाले चेहरों को बेनकाब किया गया है। कुछ आलेख राष्ट्रीय दलों की उस समझ पर सवाल उठाते हैं जो उत्तराखण्ड जैसे नवोदित राज्यों को दिल्ली का उपनिवेश मानने की प्रवृत्ति में ही अपना हित सुरक्षित समझते है। ‘गैरसैंण’ को पढ़ते हुए वस्तुतः आम पर्वतवासी की चिंताएं मुखर होती हैं। लेखक अपने आलेखों में सत्ता-प्रतिष्ठान के सूरमाओं के वक्तव्य शामिल करते हैं जिन्होंने एक सुनहरी सुबह की आस में अंधेरों भरी लम्बी रात बितायी थी। उन्हीं लोगों के प्रश्न इन आलेखों को विश्वसनीय बनाते हैं। उन्हीं की चिंताएं इस पुस्तक में हमारे वर्तमान की संदर्भ-पुस्तक बनाते हैं। इस पुस्तक में हमारे सपने दर्ज़ हैं और उन सपनों का कसैला सच भी शामिल है। कहीं एक उम्मीद की किरण भी है। लेखक ने सुदूर पहाड़ों से तमाम संत्रास सहकर महानगरों तक पहुंचे हिमालय वासियों की सफलता की कहानियां अपने आलेखों में शामिल की है। आश्चर्य होता है यह जानकर कि हिमालय से उतरे उद्यमी देश ही नहीं दुनियां में भी अपने होने की सार्थकता सिद्ध कर रहे हैं। ऐसे कई लोगों से लेखक ने सीधा संवाद किया है। ‘गैरसैंण’ पढ़ना उन पाठकों के लिए ज्यादा जरूरी है जो उत्तराखण्ड से सरोकार तो रखते हैं लेकिन यहां रहते नहीं। इस प्रदेश के वर्तमान के विद्रूप पर सबसे ज्यादा सवाल प्रवासी ही उठाते रहे हैं। यहां रहने वाला उत्तराखण्डवासी तो चीजों को नंगी आंखों से देख रहा है। उसको जहां लेखों की यह श्रृंखला ढांढ़स बंधाती है वहीं प्रवासी के सामने उसके अपने घर की दशा का कच्चा चिट्ठा सकारण उपस्थित हो जाता है। इस पुस्तक से राजनेताओं और उत्तराखण्ड की दशा के लिए सबसे ज्य़ादा जिम्मेदार समझी जाने वाली नौकरशाही को निराशा ही हाथ लगेगी। लेकिन आत्म-परीक्षण के लिए अपनी कमियों से साक्षात्कार भी एक राह सुनिश्चित करती है। इस किताब से सत्ता के शिखर पर जमे महानुभावों को भी शायद यह चेतना प्राप्त हो कि उनको लगातार कुछ चैकस निगाहें देखती जा रही हैं। चतुर सुजान शायद इस किताब से यह सीख ले सकें कि पर्दे के पीछे भी कोई जासूस है जो अंदर के मिज़ाज से बाहर वालों को लगातार अवगत कराते जा रहा है। ‘गैरसैंण’ किताब इतना तो साफ तौर पर बता देती है कि कल अगर इस सुसमृद्ध प्रदेश के जर्जर हालातों का ब्यौरा जुटाया गया तो उसकी प्रस्तावना ’गैरसैंण‘ जैसी ही होगी।