ढोली रहेगा तो ढोल बचेगा
जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’
हिमालय भारत का भाल है। प्रकृति की इस अनमोल धरोहर के दर्शन के लिए देश दुनियां के लोग लालायित रहते है।
हिमालय के पहाड़ी क्षेत्र में ना केवल प्राकृतिक बल्कि सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से भी एक अनोखी छटा बिखेरते है। लेकिन समय के साथ-साथ व बदलती परिस्थितियोें ने हिमालय के गांवों व यहां की प्रकृति में भी अमूल-चूल परिवर्तन किये है। आज जहां हिमालय जलवायु परिवर्तन के खतरों को झेल रहा है वहीं हिमालय के पहाड़ी गांवों में भी आश्चर्यजनक रूप से सामाजिक व सांस्कृतिक बिखराव व क्षरण हुआ है। इसी हिमालय क्षेत्र का एक राज्य उत्तराखण्ड है। जो जहां अपने विकास की छटपटाहट लिए है, वहीं उत्तराखण्ड के गांवों में भी सामाजिक व सांस्कृतिक बिखराव से यह राज्य भी अछूता नहीं है। इस राज्य को जहां देव भूमि के रूप में जाना पहचाना जाता है। वहीं इसकी विशिष्ट सामाजिक पद्धति, संस्कृति, परम्परा, तीज-त्यौहार, गीत-संगीत, नृत्य, पुरातात्विक सम्पदाओं का भी तेजी से ह्रास होता जा रहा है। इन परम्पराओं के संरक्षण एवं संवर्धन पर न तो सरकारों का ध्यान है और न ही अब लोगों की इस ओर रूचि रह गई है। पूर्व में जहां पहाड़ की सांस्कृतिक व्यवस्थाएं लोगों को रोजी-रोटी व रोजगार प्रदान करती थी वह आज इस लायक नहीं रह गई है। लेकिन बहुत कुछ खोने के बाद भी, अब भ बहुति कुछ बचा हे जिससे कुछ बचा हैैै जिससे कहीं न कहीं पहाड़ के गांव व जन-मानस आज भी जुड़ा हुआ है। और उससे उसके परिवार की रोजी-रोटी भी जुड़ी है। सवसे बड़ी बात यह है कि समृद्ध प्राचीन परम्पराओं के कुछ वाहक आज भी जिन्दा है व इन परम्पराओं के संरक्षण में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण है। इन्हीं में एक अति प्राचीन परम्परा ‘‘ढोल वादन’’ की है। ढोल संस्कृति उत्तराखण्ड के गांवों की सबसे प्रचीन सांस्कृतिक विधा है। जिसका प्रयोग जन्म से लेकर मृत्यु तक किये जाने वाले हर संस्कार में होता है। साथ ही समस्त देवपूजन, सांस्कृतिक जात, यात्राओं, नृत्य, गीत आदि सभी में यह आवश्यक व्यवस्था हैं। लेकिन इस विधा के जानकार व इससे जुड़े परिवारों की स्थिति अति दयनीय है। ढोल बजाने वाले परिवार अनुसूचित जाति के है। जिनकी आर्थिक स्थिति सबसे कमजोर है। ढोल बजाने वाली इस जाति में अब बुजुर्ग पीढ़ी ही रह गई है। अथवा बहुत कम युवा पीढ़ी ने इसे अपनाया है। ढोल शब्द से आनद्ध वाद्य-यन्त्रों के संगीत का बोध होता है। इन वाद्य-यन्त्रों में ढोल के साथ दमों, नगाड़ा, मांदल की तालें स्वाभाविक रूप से शामिल हो जाती है। ढोल का एक वृहद शास्त्र है। इस विधा पर ढोल-सागर नाम का एक शास्त्र मौखिक परम्परा में आठवीं-नौवीं सदी के आस-पास तक प्रचलन में रहा जिसे पुस्तक के रूप में लिखने के कई प्रयास हुए। ढोल शास्त्र की व्यापकता का इससे बड़ा क्या प्रमाण हो सकता है कि इसके इस स्वरों और तेईस व्यंजनों की सहायता से समूचे मानस खण्ड केदारखण्ड में ढोल की 300 से अधिक ताल वद्य समूह है। ढोल के साथ आवश्यकतानुसार सुषिर तथा धन वाद्य यन्त्र बजाये जाते है। जिसमें दमों, नगाड़ा, भंकोरे, रणसिंघा, बिणाई, सिंणाई, मोछगं, अलगोजा, शंख, मसकबाजा, भांणा, कैंसाल तथा घंटी शामिल है। प्रत्येक ताल में अलग-अलग वाद्य यन्त्रों को बजाने का प्रावधान और निषेध है। ढोल के प्रमुख विद्वान स्व0 केशव अनुरागी ने ढोल बजाने की चार प्रमुख शैलियों का वर्णन किया है। अमृत, सिंधु, प्रराणि और मध्यानी। इनमें से सिर्फ मध्यानी शैली ही जीवित रह सकी है। प्रसिद्ध इतिहासकार स्व0 शिवप्रसाद डबराल ने ढोलन सगर में वर्णित विषय को संक्षिप्त रूप में निम्न प्रकार बताया है।
1. गिरिजा माता के अति प्रत्याहार से तपस्या की और सृष्टि रचना सात द्वीप, नौ खण्ड और अष्ट पर्वत हुए। यहां नौ खण्डों और पर्वतों की नामावली है जो पौराणिक नामावली से कहीं-कहीं भिन्न है।
2. पृथ्वी के ऊपर 7 मण्डलों की नामावली बैकुण्ड मण्डल तक।
3. अक्षर प्रकाश के अन्तर्गत 10 स्वरों और 19 व्यंजनों की तालिका।
4. ढोल के 12 स्वरों की वेदणी/जात्राओं की नामावली।
5. धनुराकार से सृष्टि की उत्पत्ति का क्रम।
6. वाद्यों कर उत्पत्ति और छत्तीस वादों की नामावली।
7. 64 पक्षियों की नामावली जिनके सुरों का प्रयोग ढोल की ताल में है।
8. दिवसों, नक्षत्रों, योगों, उपादियोगों, कारणों, भावों और ऋतुओं की नामावलियां।
यह वर्णन ढोल सागर के एक तिहाई हिस्से में फैला है। शेष भाग में ढोल के 10 सुर और ताल सम्बन्धी वर्णन है। डा0 शिवप्रसाद डबराल का मानना था कि मौखिक परम्परा में ढोल शब्द का बहुत बड़ा हिस्सा खो गया है। ढोल सागर की भाषा संस्कृत मिश्रित गढ़वाली है जो तन्त्र शास्त्र के ग्रन्थों की भाषा से मिलती जुलती है। वर्तमान शोधार्थी डॉ डी आर पुरोहित और राजेश जोशी ने तालों के लिए उत्तराखण्ड के रंवाई क्षेत्र नौगांव, टिहरी की बाल गंगा घाटी, श्रीकोट, नागपुर में फलासी और थाला बैण्ड, केदारघाटी व पैनखण्डा क्षेत्र के प्रसिद्ध ढोलियों से भेंट कर कई और तालों की खोज की है। समय-समय पर ढोल विद्या को जानने के प्रयास चलते रहे। स्व0 सेवादास ‘‘बांल गंगा घाटी’’ स्व0 मिसाल दास ‘देवप्रयाग’ स्व0 गेन्दा दास, स्व0 तमैदास धारकोट, स्व0 भजनीवासी ‘कण्डारा‘ केदारघाटी, स्व0 जोगीदास जैसे प्रसिद्ध ढोलियों ने नित नये प्रयोग व तालों की संरचना में अपना अमूल्य योगदान दिया। अनेक विद्वानों ने इस अलिखित ‘ढोलसागर’ नामक ग्रन्थ को लिपिवद्ध करने के भी प्रयास किये। पर छुट-पुट प्रयोगों से कभी भी इसे पूर्णतया लिपिवद्ध करने में सफलता प्राप्त नहीं हुई। इस दिशा में ब्रह्मानन्द थपलियाल ‘‘1932’’ भवानीदत्त धस्माना ‘‘1935’’ व समकालीन तोता कृष्ण गैरोला के प्रयास अग्रणी रहे। बीसवीं सदी में इस विद्या पर अमेरिका में रह रहे प्रोफेसर अनूप चन्दोला, प्रसिद्ध संगीतकार स्व0 केशव अनुरागी, संस्कृतकर्मी मोहनलाल बाबुलकर, शिवानन्द नौटियाल, प्रो0 विजयकृष्ण बेलवाल, न्यू इग्लैण्ड विश्वविद्यालय आस्ट्रेलिया के डा0 एन्ड्रियू आभ्टर, गुणानन्द पथिक, अबोध बन्धु बहुगुणा व हेमवन्ती नन्दन बहुगुणा गढ़वाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय के डा0 डी0आर0 पुरोहित का महत्वपूर्ण योगदान है। भवानी दत्त धस्माना एवं ब्रहमानन्द थपलियाल द्वारा लिपिवद्ध ढोल शास्त्र को स्व0 डा0 शिवप्रसाद डबराल ने ढोल सागर पुस्तिका में प्रकाशित किया। ‘‘वीरगाथा प्रेस सम्वत् 2052’’
ढोली रहेगा तो ढोल बचेगा
लोग जीवन में हर क्षण, हर अवसर पर उत्प्रेरक सहचारी, सहगामी व संगीत के साथ-साथ तंत्र-मंत्र की इस विद्या को जीवित रखने वाले ‘‘ढोल समुदाय’’ के लिए ढोल धर्म ही नहीं आजीविका भी था। कर्म काण्डी पण्डित की तरह भी ढोली का भरण पोषण उसके यजमानों से मिले अन्न-धन से होता था। उत्तराखण्ड के प्रत्येक गांव में ढोली परिवार आवश्यक रूप से बसा हुआ था। हर ढोलियों का कार्य जन्म से लेकर मृत्यु, हर्शोल्लास, तीज, त्यौहार, देव-पूजन, मन्दिर, गीत-संगीत, नृत्य हर कार्य से जुड़ा हुआ था। इसके एवज में उसे प्रत्येक परिवार से कृषि उपज पर अन्न, दालें, घी, दूध, मसाले, कपड़े शादी विवाह, बच्चे के जन्म, तीज को घरों पर भेंट मिलती थी। ढोली परिवारों के पास नाममात्र की खेती होती है जो है भी वह बंजर भूमि है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार की स्थिति बहुत विकट है। भले ही उन्हे सरकार ने आरक्षण दिया है । लेकिन इसका लाभ आज भी ये नहीं ले पा रहे है। बदलती परिस्थितियों में इनके रोजगार पर आधुनिक बैण्ड बाजों ने कब्जा कर लिया है। लेकिन आज भी पारम्परिक व सांस्कृतिक कायों में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण है। लेकिन समय के साथ अब इसकी पीढ़ी मेहनत मजदूरी करना, फैक्ट्रियों के काम करना ज्यादा पसन्द कर रहे है। दूसरा इन ढोलियों के साथ लोगों का व्यवहार पूर्ववत ही है। नई पीढ़ी की इसमें रूचि नहीं रह गई है। इस प्रकार पहाड़ के गांवों की संस्कृति व परम्परा के अभिन्न अंग ढोली दिन प्रतिदिन कम होते जा रहे है। और ढोलियों के न होने की वजह से इसका सीधा प्रभाव लोक परम्पराओं व सांस्कृति गतिविधियों पर पड़ रहा है। पर्वतीय जीवन ये ढोल व ढोलियों की विदाई का मतलब सीधा है कि आने वाले कुछ दशकों में पहाड़ के गांवों से ढोल व ढोली गायब हो जायेंगे। उत्तराखण्ड के पर्वतीय गांवों के लोक जीवन से जुड़ी यह प्रमुख विद्या व इसके संवाहकों की स्थिति को समझने के छुट-पुट प्रयास ही हुए है लेकिन अभी तक कोई ठोस कार्य इस पर नहीं हो पाया है। केवल मात्र कुछ शोध कार्यों से आगे बढ़कर इस पर ज्यादा कुछ नहीं हो पाया है।