November 22, 2024



सिद्धपीठ माँ चन्द्रबदनी

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दीपा रावत पंवार


मध्य हिमालय  (उत्तराखंड) की कन्दराएं, पर्वत, घाटियां प्राचीन काल से ही आध्यात्मिक शान्ति की स्थलियां है।


यहां कोई भी स्थान, क्षेत्र ऐसा न होगा, जहां देवी देवताओं के वास की किवदन्तियां या प्रतीक चिह्न न हो। इसीलिए इसे देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है। यहां के पवित्र तीर्थ स्थल स्थानीय जनमानस के साथ-साथ देश व विदेश के लाखों-करोड़ों लोगों के लिए मनोकामना पूर्ति के आकर्षण केन्द्र बने हुए है। ऐसी ही एक पुण्य स्थली है ‘‘मां चन्द्रबदनी’’ ऋषिकेश-बदरीनाथ मोटरमार्ग पर 70 किमी0 दूर देवप्रयाग नामक स्थान है, जहां पर दो प्रमुख नदियों अलकनन्दा एवं भागीरथी का संगम स्थल है। यहीं से यह नदी गंगा नाम से जानी जाती है। देवप्रयाग से एक मोटरमार्ग टिहरी को जाता है। इस मार्ग पर 30 किमी0 की दूरी पर जामणीखाल स्टेशन से लगभग 4-5 किमी0 दूर उत्तर की ओर चन्द्रकूट पर्वत पर 2270 मी0 ऊंचाई पर सिद्धपीठ मां चन्द्रबदनी का भव्य मन्दिर स्थित है। यह शक्तिपीठ उत्तराखंड में स्थित छः प्रमुख शक्तिपीठों में से एक है। हिमालय के एकान्त में प्रकृति की मनोरम छटाओं के मध्य बसा यह प्रसिद्ध तीर्थ स्थल असीम आस्था व विश्वास का प्रतीक है। प्रतिदिन यहां सैकड़ों श्रद्धालु मां चन्द्रबदनी के दर्शनार्थ आते है और मनोतियां मांगते है।


इस शक्तिपीठ के बारे में एक प्रचीन कथा है कि जब दक्ष प्रजापति ने अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया तो उन्होंने शिव व सती (पार्वती) को छोड़कर अपनी सभी पुत्रियों एवं दामादों को आमन्त्रित किया। पिता द्वारा अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन समाचार सुनकर सती ने शिवजी से यज्ञ में चलने का अनुरोध किया। बिना निमन्त्रण के शिवजी यज्ञ में जाने को तैयार न हुए तो पार्वती कुछ गणों के साथ यज्ञ देखने चली गयी। उसकी सभी बहिनों व बहनोइयों का बड़ा आदर-सत्कार हुआ, लेकिन उसका किसी ने आदर-सत्कार नहीं किया। यज्ञ के दौरान देवताओं के नाम लिये गये परन्तु शिवजी का नाम नहीं लिया गया। सती अपना अपमान तो सह गयी परन्तु अपने पति का घोर अपमान न सह सकी। क्षुब्ध होकर सती ने यज्ञ कुण्ड में कूदकर अपनी आहूति दे दी। सती के हवनकुण्ड में कूदते ही चारों ओर खलबली मच गयी। जब शिवजी ने यह दुःखद समाचार सुना तो वे शोकाकुल होकर अत्यन्त क्रोध में यज्ञ स्थल की ओर दौड़ पड़े और सती का शव लेकर भयावह ताण्डव करने लगे। शिव का यह रौद्र रूप देखकर सभी भयभीत हो उठे ओर विष्णु की शरण में गये। विष्णु भगवान ने शिवजी का मोह भंग करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को कई टुकड़ों में विभक्त कर दिया। कहा जाता है कि सुदर्शन चक्र से कटे अंश जहां-जहां गिरे वे स्थान कालान्तर में प्रसिद्ध शक्तिपीठ बन गये। माना जाता है कि जिस स्थान पर सती का बदन गिरा वह चन्द्रबदनी शक्तिपीठ नाम से प्रसिद्ध हुआ। बदन देखना अशुभ माना जाता है। अतः मन्दिर में चन्द्रबदनी की भव्य मूर्ति सदैव कपड़ों से ढकी रहती है। इस स्थान से पर्वतराज हिमालय के स्पष्ट दर्शन होते है। हमारे पौराणिक ग्रन्थों में इस तीर्थ की स्थिति एवं महत्व का विस्तार से वर्णन है। तथा इस धरती को अप्सराओं एवं किन्नरों का निवास स्थान बताया गया है।

गंगायाः पूर्व भागे हि चंद्रकूटों गिरिः स्मृतः।


तस्यापि दर्शनादेव मुच्यते जन्मपातकाम ।।

नृत्यन्तप्सरसो यत्र गायन्ते चैव किन्नरा ।




भुवनेशी यत्र देवी ख्याता शंकरबल्लभा ।।

( केदारखण्ड-अध्याय-141 (श्लोक 2,3 )

भुवनेश्वरी शक्तिपीठ को साधन की दृष्टि से भी उत्तम माना जाता है। कहा जाता है कि यदि कोई व्यक्ति मात्र फलाहार कर सच्ची श्रद्धा एवं नियम-संयम से तीन रात तक बैठकर देवी का ध्यान करें तो उसे सिद्धि प्राप्त हो जाती है.

त्रिरातं यो महाभागा फल मूल कृताशनः।

निवसेच्च जपेद्देवी साधयोत्सिद्धि मुक्त्माम्।।  

यही कारण है कि समय-समय पर अनेक साधकों ने इसे अपनी साधनस्थली बनाकर सिद्धियां प्राप्त की। चन्द्रबदनी शक्तिपीठ के गर्भगृह में कालेपत्थर का श्रीयन्त्र है। उसके दर्श करने तथा पूजा में प्रयुक्त शंख का पानी पीने का बड़ा महात्म्य बताया जाता है। स्थापत्य कला की दृष्टि से श्रीयन्त्र, गौरीशंकर की मूर्ति एवं अन्य अनेक मूर्तियां अपना विशिष्ट स्थान रखती है। मन्दिर के पास ही विशाल यज्ञ कुण्ड है। चन्द्रबदनी में पहले बड़े पैमाने पर बलि प्रथा प्रचलित थी। अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु देवी मां को प्रसन्न करने के लिए असंख्य निरीह पशुओं की बलि दी जाती थी। लेकिन केरल से आये एक महान क्रान्तिकारी, समाजसेवी स्व0 स्वामी मन्मथन ने लागों में जागरूकता पैदा करके इस प्रथा को पूर्णतः समाप्त करवाया। अब यहां पशुबलि की जगह सिर्फ पूजा पाठ ही होता है। चन्द्रबदनी में भक्तजनों के आर्थिक सहयोग से यहां यात्री विश्राम गृह व धर्मशालाएं बनाई गई है। चन्द्रबदनी के प्राचीन ध्वस्त मन्दिर की जगह अब यहां विशाल भव्य आधुनिक मन्दिर का निर्माण हो चुका है। मन्दिर तक पानी की व्यवस्था भी कर दी गयी है। मन्दिर में जाने के लिए लगभग 108 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती है।

नैखरी- मन्दिर से एक किमी0 नीचे बेहद आकर्षक व रमणीय जगह है। नैखरी 19वीं शताब्दी में वनाधिकारों को लेकर खासपट्टी की जनता ने इसी स्थान पर एतिहासिक ढंडक आन्दोलन चलाया था। यहां पर गढ़वाल विकास निगम ने सुविधाजनक पर्यटक आवास गृह बनवा रखा है ताकि इस खूबसूरत क्षेत्र में पर्यटन को बढ़ावा मिले। विगत कुछ वर्षों से यात्रियों एवं पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए जिला प्रशासन इस स्थान पर चन्द्रबदनी पर्यटन विकास मेला भी आयोजित कराता आ रहा है। यह मेला प्रतिवर्ष चैत्राष्टमी के अवसर पर आयोजित किया जाता है।

भुवनेश्वरी महिला आश्रम– चन्द्रबदनी की पश्चिम दिशा में अंजनीसैण नामक कस्बे में स्वामी मन्मथन द्वारा स्थापित भुवनेश्वरी महिला आश्रम है। यह आश्रम ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को स्व-रोजगार उपलब्ध कराने के साधनों को मुहैया कराने एवं गरीब व बेसहारा बच्चों की शरणस्थली के लिए प्रसिद्धि पाये हुये है। अब यह संस्था काफी विकसित हो चुकी है। चन्द्रबदनी का परिवेश बड़ा ही रमणीय है। यह मन्दिर पर्वत की चोटी पर बसा होने के कारण यहां से चारों ओर का मनोहरी दृष्य दिखाई देता है। इस स्थान से बंदरपूंछ, चैखम्भा, नीलकण्ठ, त्रिशूल, नन्दादेवी, हाथी पर्वत आदि हिमपर्वतों के भव्य दर्शन होते है।
चन्द्रबदनी शक्तिपीठ रहस्य और रोमांच से भरा शक्तिपीठ है जो शोधकर्मियों, पर्यटकों एवं भक्तजनों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता है।

फोटो सौजन्य – चन्द्रमोहन थपलियाल, विकास नेगी