November 23, 2024



गढ़वालि भाषा – साहित्य की विकास जात्रा

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समीक्षक- डाॅ0 अचलानन्द जखमोला


अप्रितम अभिव्यंजनाशक्ति, प्रभावोत्पादकता, संप्रेषणीयता, गेढ़ अर्थवता तथा अनेकार्थता को व्यक्त करने की अद्भुद क्षमता वाली गढ़वाली भाषा पुराकाल से ही अनेक विद्वतजनों के आकर्षण का केन्द्र बनी रही।


सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘काव्यमीमांसा’ के रचयिता काश्मीर निवासी आचार्य राजशेखर ने गढ़वाल क्षेत्र के भ्रमण के दौरान यहां के निवासियों को ‘सानुनासिक भाषिणः’ तथा यहां की बोलियों में कृदन्तों का प्राधान्य दखते हुए इन्हें ‘कृतप्रिया उदीच्या’ घोषित किया था। इस भाषा की महत्ता को महापंडित राहुल सांकृत्यायन् तथा शीर्षस्थ भाषाविज्ञों यथा- डाॅ0 धीरेन्द्र वर्मा, डाॅ0उदय नारायण तिवारी, डाॅ0 हरदेव बाहरी, डाॅ0 भोलाशंकर व्यास, डाॅ0 टी0 एन0 दवे आदि ने स्वीकारते हुए अपनी मान्यताएं प्रस्तुत की। व्याकरणविद् पादरी एस0एस0 केलाॅग को गढ़वाली की रूपगत विशिष्टताओं ने मुख्यतः प्रभावित किया। ‘गढ़वालि भाषा अर साहित्य कि विकास जात्रा ’के रचयिता श्री संदीप रावत मूलतः रसायन शास्त्र के अध्येयता और अध्यापक हैं। सौभाग्यवश उनका क्रियाक्षेत्र अधिकांशतः टिहरी, श्रीनगर और पौड़ी के समीपस्थ रहा है। स्मर्तव्य है कि श्रीनगर और टिहरी को दीर्घ अवधि तक गढ़वाल की राजधानी बनने का गौरव प्राप्त रहा। कालान्तर में यह श्रेय पौड़ी को भी मिला। बौद्धिक प्राचुर्य तथा सम्पर्क एंव साथ ही राजाश्रय की सुलभता से समस्त क्षेत्र की माटी साहित्यिक गतिविधियों के लिए उर्वरक सिद्ध हुई। स्वाभाविक था कि गढ़वाली की उत्कृष्ट प्रारंभिक रचनाएं इसी भू-भाग में पल्लवित और पुिष्पत हुईं। इस साहित्यिक बयार ने संदीप रावत के अन्तस में सुप्त रचनाकार को झंझावित किया। फलतः रसायन शास्त्री की लेखनी से उनका प्रथम काव्य संग्रह ‘एक लपाग’ उद्भूत हुआ, जिसका सर्वत्र स्वागत किया गया। ‘गढ़वालि भाषा अर साहित्य कि विकास जात्रा’ उनकी द्वितीय गद्यमयी रचना है। क्योंकि पिछले दो-तीन दशकों से उत्तराखण्ड के साहित्य जगत में काव्य ग्रन्थों का सैलाब सा आ गया है। गद्य रचनाएं विरल ही मिलतीं हैं। गद्य ही भाषा का वास्तविक निकस याने कसौटी है-‘गद्य कवींना निकषं वदन्ति’ यह इस पुस्तक से सिद्ध हो जाता है।


आकर्षक साज-सज्जा में संवरी 192 पृष्ठों की इस लुभावनी कृति की प्रभावी सामाग्री चार भागों में विभक्त है। प्रथम भाग गढ़वाली भाषा की विशिष्टताओं विषयक है। द्वितीय भाग में गढ़वाली भाषा के व्याकरण तथा भाषिक स्वरूप पर चर्चा है। पृष्ठ 69 से पृष्ठ 148 में समाहित तृतीय भाग ग्रंथ का महत्वपूर्ण अंश है जिसमें भाषा और साहित्य की विकास यात्रा सविस्तार एंव सोदाहरण वर्णित की गई है। अंतिम चतुर्थ अध्याय में गढ़वाली साहित्य की विधाओं एवं विशेषताओं का विवरण तथा मानकीकरण समबन्धी मान्यताओं का उल्लेख है। संक्षिप्ततः श्रमशील लेखक ने गढ़वालि भाषा तथा साहित्य के प्रायः सभी पक्षों पर पूर्व में किये गए अवदान का समाहार और एकीकरण प्रभावी शैली में करते हुए जिज्ञासु पाठकों के समक्ष एक उपादेय ग्रंथ प्रस्तुत किया है। पुस्तक का प्रमुख उद्देश्य गढ़वालि भाषा के विकास और समग्र प्रकाशित साहित्य पर प्रकाश डालना है। इन पक्षों पर पूर्व में भी अनेक विद्वानों ने श्लाघनीय कार्य किया। गढ़वाली बोलियों के ऐतिहासिक, भाषिक, शास्त्रीय, तात्विक, वैज्ञानिक, व्याकरणिक तथा व्यावहारिक, पक्षों के प्रति स्वातंत्रत्योत्तर काल के उपरान्त ही कुछ अनुसंधित्सुओं का ध्यान आकर्षित हो गया था जिनमें गोविन्द सिंह कण्डारी याने गोविन्द चातक-रवांल्टी बोली का लोकसाहित्य, जनार्दन प्रसाद काला -गढ़वाली भाषा और उसका लोकसाहित्य तथा गुणानन्द जुयाल-मध्य पहाड़ी गढ़वाली, कुमाउंनी का अनुशीलन शोध प्रबन्ध प्रमुखतः उल्लेख्य हैं जिनपर डाॅक्टरेट की डिग्रियां प्रदान की गईं। सत्तर के दशक में उत्तर प्रदेश शासन के प्रयास से डाॅ0 हरि दत्त भट्ट शैलेश द्वारा रचित ‘गढ़वाली भाषा और उसका साहित्य’ तथा स्वप्रेरणा से निर्मित अबोध बहुगुणा रचित ‘गाड म्यटेकि गंगा’ अपनी गुणवत्ता और परिपूर्णता के कारण स्वागत योग्य बने। गोविन्द चातक जी का गढ़वाली भाषा और साहित्य के प्रति समर्पण अनेक गवेषणात्मक आलेखों के अतरिक्त उनकी प्रकाशित दो पुस्तकों -‘मध्य पहाड़ी की भाषिक परम्परा और हिन्दी’ तथा ‘हिमालयी भाषाःसामथ्र्य और संवेदना’ से पता चलता है। शोधपरक ग्रन्थों में अनिल इबराल प्रणीत ‘गढ़वाली गद्य परम्परा’ तथा जगदम्बा प्रसाद कोटनाला कृत ‘गढ़वाली काव्य का उद्भव, विकास और वैशिष्ट्य’ क्रमशः 2007 व 2011 मे प्रकाशित विशेष उल्लेखनीय हैं। इनके अलावा अन्य विद्वानों द्वारा दिए गए अवदान का विवरण इस पुस्तक में मिल जाता है।

लेखक ने गढ़वालि भाषा-साहित्य की विकास यात्रा को सात कालखण्डों मे वर्गीकृत किया है। ‘काल’ अथवा ‘युग’ मे वर्गीकरण सामान्यतः ‘आदि’ अथवा ‘आधुनिक’ को छोड़कर, अधिकांश लेखकों ने उस कालावधि में रचित साहित्य की विशिष्ट प्रवृति या प्रकृति अथवा उस पर प्रभाव डालने वाले महान साहित्य रचयिता के नाम पर आधारित किया है, यथा-वीरगाथाकाल, भक्तिकाल, श्रृंगारकाल, भारतेन्दु युग, क्लासिकल सज, रोमांटिक सज, पांथरी युग, सिंह युग आदि-आदि। संदीप रावत द्वारा समस्त गढ़वाली साहित्य को 25-25 वर्षों के समूह में वर्गीकृत करने का सरल उपाय अपनाया है। समीक्षाधीन ग्रन्थ में भाषा के ऐतिहासिक विकास क्रम मे समाचार पत्र-पत्रिकाओं एवं ब्यंग्य चित्र, चिट्ठी पत्री, पर्चा पोस्टर, इलेक्टानिक मीडिया, चलचित्र, पुरस्कार, सम्मान आदि के महत्व को उल्लिखित करना एक स्तुत्य प्रयास है। पुस्तक के अन्त में भाग चार के अन्तर्गत गढ़वाली भाषा के अति चर्चित, घपरौळी व चुनौतीपूर्ण विषय-मानकीकरण पर विवरण है। अन्य 17 मनीषियों के विचार उद्धृत करने के पश्चात लेखक स्वयं इस अन्तहीन विवाद में न फंसते हुए शान्ति सहित निकल गए कि ‘मानकीकरण कि बात त बादै बात छ। ’फलतः पुस्तक में वर्तनी और विन्यास समबन्धी व्यतिक्रम कुछ स्थलों पर दिखाई देता है। समबन्ध कारक निर्दिष्ट करने के लिए गढ़वाली भाषिक प्रवृति के अनुसार कहीं स्वर परिवर्तन का आश्रय लिया गया जैसे-साहित्यै, भाषै, भाषौ, तो अन्यत्र परसर्गों का जैसे-साहित्यक, साहित्य कि, भाषा कि। वैसे व्याकरणिक दृष्टि से दोनों सही हैं। लेखक ने पूर्ण प्रयास किया है कि समस्त पुस्तक में वर्तनी समबन्धी एकरूपता का परिपालन हो तथापि थोड़ी सी भा्रन्तियां रह गईं हैं। उच्चारण का अनुसरण करते हुए पुस्तक में भी कई स्थलों पर उदारता से हल् याने हलन्त का प्रयोग है, जैसे-शैलेश जीन्, पोथिक् समाीक्षा कैरिक्, मणदन्, जणदन्, शब्दोंक्, नदियोंम्, भाषौन्, सकेंद् आदि आदि। मेरा विनम्र सुझाव है कि हल् चिह्न का प्रयोग संसुक्ताक्षर तथा केवल उन्हीं शब्दों तक सीमित रखा जाय जहां इसके बिना अर्थ में भ्रम उत्पन्न होने की सम्भावना हो।


समग्रतः श्री संदीप रावत ने बड़े मनोयोग, निष्ठा और श्रमशीलता से पुस्तक की रचना की है। गढ़वाली भाषा, साहित्य तथा रचनाकारों सम्बन्धी विस्तीर्ण सागर को लेखक ने इस गागर में समाविष्ट कर दिया है। अत्यधिक प्रयास करने के उपरान्त भी सुधी पाठक को ऐसे न्यूनतम अंश मिलेंगे जिन्हें अनावश्यक समझ कर हटाया जा सके। महाभारत के सम्बन्ध में कहा गया है -‘यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नैहास्ति न तत् क्वचित़् ’ अर्थात जो इसमें उपलब्ध है वह अन्यत्र भी मिल सकता है परन्तु जो यहां नहीं है वह अन्य कहीं कदाचित ही मिलेगा। प्रस्तुत पुस्तक में अब तक के सभी साहितयकारों तथा कृतियों का विवरण प्रायः मिल जाता है, कोई विरला ही छूटा होगा। यह बति प्रश्ंसनीय प्रयास है। ऐसी संग्रहणीय एवं एवं उपादेय पुस्तक की रचना के लिए श्री संदीप रावत को हार्दिक बधाई ओर शुभांक्षसा। मैं उनके भावी साहित्यिक अवदान के लिए अभ्यर्थना करता हूँ ।

लेखक- संदीप रावत