May 5, 2025



पिथौरागढ़ – यादों का सिलसिला

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पंकज सिंह महर


पिथौरागढ, यह नाम सामने आते ही दिल स्नेह से भर जाता है मेरा, में इस शहर से 22 किमी0 दूर देवलथल कस्बे का निवासी हूँ।


बचपन में जब पापा पिथौरागढ़ जाने को बोलते तो लगता कि यूरोप का टूर मिल गया हो। शेष पहाड़ के लोग इस जिले के लोगों को डोटियाल बोलते हैं, सिर्फ इसलिए कि हम सहिष्णु और प्रेम स्नेह पर भरोसा रखते हैं। नेपाल से हमारा रोटी बेटी का रिश्ता है, हम वहां से लेबरी करने आये लोगों को मेट जी कहते हैं। डोटी नेपाल का एक जिला है, जहां के लोग डोटियाल कहलाते हैं और लेबरी करने भारत आते हैं। उनसे प्रेमभाव रखने पर हम लोगों को भी चिढ़ाने के लिए यह शब्द इस्तेमाल किया जाता है। उ0प्र0 के जमाने में यह पनिशमेंट डिस्ट्रिक्ट था, खैर उत्तराखण्ड बना तो हमें भी लगा कि उत्तराखण्ड आंदोलन में जो डण्डे खाये हैं, उसके प्रतिफल में दिन बहुरेंगे, लेकिन आज 16 साल बाद हालात यह हैं कि सरकारी कर्मचारी इसे कालापानी समझते हैं। इस जिले के नाम पर ऐसा मुंह बनाते हैं, जैसे कुनैन की गोली खिला दी हो। आई0ए0एस0, जिसका पहला सपना किसी जिले का कलेक्टर बनने का होता है, वह भी जिलाधिकारी बन वहां नही जाता और एक नगर निगम का एम0एन0ए0 बनने को तैयार हो जाता है। पूर्व के एक प्रभारी मंत्री तो जिला प्लान की बैठक भी दूसरे जिले के बनबसा में करने लगे थे। मेरे जिले के लोगों ने जितना विकास अपने पैसे से किया, उतना ही हो पाया, अगर आज आप वहां जाएंगे तो देहरादून के स्तर के मार्केट को पायेंगे, स्कूल, अस्पताल, पार्क आदि सब अपने संसाधनों से लोगों ने बनाया है। 1994 में उद्घाटित एक हवाई पट्टी भी हमें मुंह चिढ़ाती रहती है। अब तो अखबार भी वहां की खबर तब छापते हैं जब आपदा आती है या कोई बड़ा नेता वहां जाता है। आजकल फुटबाल का नेशनल लेबल का टूर्नामेंट वहां हो रहा है लेकिन देहरादून में उसकी एक ही खबर आई, जिस दिन मंत्री जी ने उसका उद्घाटन किया, अब उसी दिन खबर आएगी, जिस दिन समापन कोई मंत्री जी करेंगे। आखिर इतने बड़े इवेंट को देहरादून के अखबार छापने से क्यों कतराते हैं, वह भी तब , जब मीडिया इंड्रस्ट्री में 50 प्रतिशत भागीदारी वहीं के वाशिंदों की है। इतनी अनदेखी और उदासीनता क्यों हमारे लिए।


पिताजी बताते हैं कि उनके बचपन में उनको चीन आ गया, चीन आ गया कह कर डराया जाता था,१९६२ के युद्ध के समय मेरे इलाके में रात को ढिबरी जलाना भी मना था, आमा भी रसोई की खिड़की बन्द कर रोटी बनाती थी और सब्जी शाम होने से पहले बना ली जाती थी। चीन युद्ध के बाद सरकार बहादुर ने पिथौरागढ का सामरिक महत्व समझा और उसे जिला बना दिया, जिला बनाने के पीछे कारण यह था कि छोटी इकाई बनने से पूरे इलाके का सर्वागींण विकास हो पायेगा। क्या हुआ, कितना हुआ, कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। उ०प्र० से लेकर आज भी मेरा जिला पनिशमेण्ट डिस्ट्रिक्ट ही बना हुआ है, सरकारी कर्मचारी इसे कालापानी ही समझते थे और हैं, सुना है देहरादून के गलियारों में पिथौरागढ भिजवा दूंगा की धमकी भी बहुत काम आती है।

खैर १९६२ के युद्ध के बाद सरकारों को सुध आई, पूरे पिथौरागढ की सीमाओं को सड़क से जोड़ने का काम शुरु हुआ, जो आज भी पूरा नहीं हो पाया है, पूरे जिले में ग्रामवासियों को एस०एस०बी० ट्रेनिंग देने लगी, ताकि युद्ध की स्थिति में ग्रामवासी द्वितीय सेना बन सकें, महिलाओं को भी थ्री नाट थ्री चलाने का प्रशिक्षण दिया गया, पता नहीं क्यों यह सब ९० के आस-पास बन्द कर दिया गया। परसों एक खबर पढने को मिली चीन आ गया बाड़ाहोती तक और हमारे प्रशासनिक अमले को पता ही नहीं, मजे की बात यह कि अधिकारी बयान देते हैं कि उन्हें भी समाचार पत्रों से ही पता चला। पता चलेगा कैसे, आपने इनर लाईन तो बना दी, लेकिन इनर लाईन के अन्दर रहने वाले तो हैं ही नहीं, जो सीमा की सारी गतिविधियों पर नजर रखते थे और सेना तथा प्रशासन को हर मूवमेंट की जानकारी देते थे, सुना है कि सेना की ओर से इसके लिये मानदेय भी दिया जाता था। आज की परिस्थिति में मूलभूत सुविधायें, यथा- स्वास्थ्य, शिक्षा, संचार, परिवहन, उपलब्ध न करा पाने के कारण वहां के वाशिन्दों ने वह जगह छोड़ दी, बची-खुची कसर आपके अभयारण्यों और रिजर्व फारेस्टों ने पूरी की, जब वहां के वाशिन्दे को अपने पुरखों के बनाये-बचाये जंगल से हरी घास-सूखी लकड़ी लाने पर जेल डाल दिया जायेगा तो, वहां कौन और क्यों रहेगा। सरकार बहादुर को चाहिये कि सबसे पहले सीमान्त ग्रामों को आबाद करने की कोशिश करे, वहां पर मूलभूत सुविधायें जुटाये, जब आप सेना को सारा साजो-सामान दे सकते तो आदिकाल से सीमा की रक्षा करते आये आदिवासी सैनिकों को क्यों नहीं दे सकते।


मेरा जिला पिथौरागढ, जिसका एक समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास रहा है, वह भी पडोसी मुल्क के साथ साझा संस्कृति के साथ, नेपाल के साथ हमारे रोटी-बेटी-देवता के भी रिश्ते हैं। इस साझा विरासत को बनाये रखा है पूर्वी पिथौरागढ और पश्चिमी नेपाल ने। एक सी बोली, एक सा पहनावा, एक से त्यौहार और ईष्ट देवताओं के थान भी साझा। इस इलाके की एक और अहम खासियत है, जैव विविधता, मध्य हिमालय की जैव विविधता को यहां के जंगलों से सीखा जा सकता है। अब यह अंतराष्ट्रीय सांकृतिक थाती डूबने जा रही है, विकास के लिये, 11600 हैक्टेयर की यहां पर झील बनेगी, जिससे बिजली बनेगी और राष्ट्र सशक्त होगा भल। परसों ही केन्द्रीय बिजली मंत्री जी का बयान पढा कि देश के पास सरप्लस बिजली है और पंजाब राज्य ने तो सरप्लस बिजली को पाकिस्तान को बेचने की अनुमति देने का भी अनुरोध किया है।

सवाल यह है कि ऐसी स्थितियों में भी भूकम्प के जोन ४ में आने वाले इस क्षेत्र में क्या इतना बड़ा बांध बनाया जाना चाहिये, वह भी तब जब विकसित देश अपने यहां बड़े बांध तोड़ रहे हैं और रन आफ दि रिवर योजनाओं पर काम कर रहे हैं। इस बांध क्षेत्र में ९४ धार्मिक स्थान भी प्रभावित होंगे, जिसमें चौमू, पंचेश्वर, तालेश्वर, रामेश्वर, मशानी जैसे बड़े धार्मिक स्थल भी हैं। इस बांध में अल्मोड़ा जिले के २१ गांव, चम्पावत के २६ गांव और पिथौरागढ़ के ८७ गांव हमेशा के लिये नक्शे से हट जायेंगे, यह उस प्रदेश के सीमान्त गांव हैं, जहां पर सिर्फ ३३ प्रतिशत भूभाग ही आबाद है, बाकी ६७ प्रतिशत क्षेत्र वनाच्छादित है।




हमारे जिले में गालियां भी श्मशान के नाम लेकर दी जाती हैं, पुजि जाये पंचेशर, ले जान हो जाये रामेशर, शेरघाट पुजून हो जाये, तैस तालेशर पुजून है जो…..यह सब इसलिये लिख रहा हूं ताकि समझने में आसान हो कि इन स्थानों का हमारे समाज में क्या स्थान है, इसके साथ ही यह क्षेत्र ऐसा भी है जिसमें लोक के स्वर गूंजते हैं, चाहे झूसिया दमाई का ढूंगातोली हो या कबूतरी देवी का क्वीतड़, यह सब जलसमाधि ले लेंगे। आखिर विकास की सनक के लिये एक थाती, एक सांस्कृतिक, एक धार्मिक एक जैव विविधता से भरे क्षेत्र की बलि क्यों?