November 23, 2024



तिब्बत की ओर खुलते द्वार

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जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’


उत्तराखण्ड का काफी बड़ा भू-भाग तिब्बत सीमा से लगा हुआ है। यहां प्राचीन समय में तिब्बत जाने के कई मार्ग थे, जो 1962 के भारत-चीन युद्ध की वजह से बन्द हो गये।


केवल कुमाऊँ के लिपुलेख दर्रे से ही औपचारिक व्यापार होता है। तिब्बत में ताकलाकोट एक बड़ी मण्डी है। जहां दोनों ओर से व्यापारी अपना सामान बेचते व खरीदते है। लेकिन चीन ने इसे ज्यादा प्रोत्साहन नहीं दिया। सन् 1962 के बाद से ही भोटिया जनजाति को भी जब फायदा नजर नहीं आया तो उन्होंने प्राचीन व्यापार को छोड़कर और व्यवसायों, नौकरियों पर ध्यान देना शुरू किया। भारत-तिब्बत सीमा पर किसी न किसी कारणवश तनाव रहने से सीमा के गांँव खाली होते जा रहे है, जो देश की सुरक्षा की दृष्टि से ठीक नहीं है। अभी हाल ही में भारत सरकार ने यह विचार किया है कि सीमावर्ती गाँवां में आम भारतीय नागरिकों की आवाजाही, पर्यटन आदि को प्रोत्साहित किया जाय। ‘‘नो मैन्स लैण्ड’’ होने के खतरे ज्यादा होते हैं। उत्तराखण्ड की तिब्बत से लगी सीमाओं पर सड़कों का निर्माण व ऐसे ‘‘नो मैन्स लैण्ड’’ में सीमित अनुमति मिलनी प्रारम्भ हो गई है।


1- नेलांग

उत्तरकाशी जनपद भी तिब्बत की सीमा से जुड़ा हुआ एक महत्वपूर्ण सामरिक जनपद है। भागीरथी घाटी में नेलांग घाटी पूर्व में तिब्बत जाने का एक प्रसिद्व मार्ग था। लेकिन 1962 के युद्ध के पश्चात् यह मार्ग बन्द कर दिया गया था। यहां के नेलांग-जादुंग गाँवों के जाड़ (भोटिया) समुदाय के लोगां को हरसिल के बगोरी गाँव में बसा दिया गया तथा शीतकाल के लिए डुण्डा गाँव जाड़ समुदाय का ठिकाना बनाया गया। अब सरकार ने नेलांग तक मोटर मार्ग बना दिया है तथा अनुमति लेकर पर्यटकों को जाने की सुविधा प्रदान कर दी है। नेलांग भागीरथी घाटी सहित हिमांचल के लोगां के लिए तिब्बत व्यापार का सुविधाजनक पर कठिन मार्ग था। सीमा के पार तिब्बत में प्रसिद्ध थोलिंग मठ के लिए भी दुनियां के घुमक्कड़ इसी रास्ते का प्रयोग करते थे। यानि को थांगला (5030मीटर) व शांगचोला (5240मीटर) दर्रों को पार करना पड़ता था। पूरा इलाका ठंडा रेगिस्तान है। ठीक लेह-लद्दाख की तरह खेती मौसमी है। यहां पशुपालन ही प्रमुख साधन था। प्रसिद्व घुमक्कड व लेखक राहुल सांस्कृत्यायन भी यहां से थोलिंग मठ की यात्रा कर चुके थे। बाद में उन्हीं के सुझाव पर बाबा नागार्जुन ने भी यहाँ की यात्रा की ।


2-बाबा नार्गाजुन की यात्रा 

1939 में प्रसिद्ध कवि, लेखक, घुमक्कड़ व बौद्ध अध्येता बाबा नागार्जुन ने टिहरी से थोलिगं मठ की यात्रा की थी। जिसके विवरण में बाबा लिखते है कि, भोटगंगा के किनारे होते हुए नेलांग की भैरव घाटी पीछे छूट गई। देवदार के मनोरम जंगलों में से होकर रास्ता जाता है। हमने निर्जन जंगल में रात काटी। जंगली बथुए का साग और खिचड़ी से पेट पूजा हुई। घोड़ी भी रात भर धूनी के पास ही खड़ी रही। उसे चरने के लिए खोला भी, लेकिन वह कहीं नहीं गई। इस इलाके में भूरे व काले भालुओं की बहुतायत है। कभी तेन्दुआ भी निकल आता था। उन्हीं की गन्ध से घोड़ी चरने नहीं गई व आग के आस-पास ही खड़ी रही।
नेलांग हरसिल से बाईस मील पर है। जब हम वहाँ पहुंचे तो सारा गाँव खाली पड़ा था। छोटे-छोटे मकान, कोठारनुमा पान की दुकानों जैसा रोंग्पा लोगों का यह ग्रीष्म कालीन आवास है। वे यहाँ जून के अन्त में आ जाते है। तब खेतों में बुआई करते है। रबी की फसल यहाँ जेठ-आषाढ़ में बोई जाती है, और भादों-आश्विन में फसल तैयार हो जाती है। तैयार अनाज कोठारों में बन्द करके फिर वे शीतकाल में नीचे आ जाते है। कभी-कभी इनका अनाज तिब्बती डाकू लूटकर भी ले जाते है। व्यापार पर निर्भर रहने के कारण इस अन्न हानि को ये उतनी बड़ी हानि नहीं समझते है। नेलांग का रंग बिल्कुल तिब्बती है। यहां एक गोम्पा (बिहार) भी था। मगर अब उसके सिर्फ भग्नावशेष मात्र मौजूद है। रोंग्पा लोग हिन्दुओं के बीच अपने को राजपूत कहते है और भोटियों के बीच भोटिया। ब्राह्मणों को भी गुरू बताते है और लामाओं को भी। हम जिस दिन पहुँचे उस रात आलू और पहाड़ी कुकुरमुत्ते (मशरूम) का साग बना था। जिसमें जिम्बू (तिब्बती प्याज डालचा) भी पड़ा था। अपूर्व स्वाद था उसका। इसको लोग सुखाकर मसाले के रूप में प्रयोग करते है। बाबा नागार्जुन नेलांग में दस दिन रहे थे। फिर थोलिंग मठ पहुँचे। यहाँ एक सौ आठ गोम्पा (बिहार) व एक सौ आठ बौद्व भिक्षु थे। बाबा लिखते है कि, उत्तरकाशी में एक ब्राहमण ने बताया कि, ‘‘महाराज थोलिंग में तो स्वयं बद्रीविशाल विराजमान है और बद्रीनाथ में जो है वे दूसरे बद्रीविशाल है। किन्तु जब लामा लोग गौ मांस का महाप्रसाद बनाकर भोग चढाने लगे तो छत फाड़कर बद्रीविशाल इधर भाग आये। बाबा नागार्जुन ने यहाँ तिब्बती लिपी भाषा का अध्ययन किया था।




3- हेनरीख हॉरर की यात्रा 

ऑष्ट्रिया के प्रसिद्व पर्वतारोही हेनरीख हॉरर ने भी तिब्बत जाने के लिए नेलांग का ही रास्ता चुना था। हॉरर ने 1936 में ओलम्पिक टीम में स्थान पाया और स्कीइंग चैम्पियन बने। एक पर्वतारोही के रूप में 1938 में आर्हगर, 1939 में नांगा पर्वत पर आरोहण किया। इसी दौरान विश्व युद्ध छिड़ गया और वे युद्धबंदी बना दिये गये। अहमदनगर, मुम्बई से उन्हें देहरादून की जेलां में भेजा गया। दो बार तो जेल से भागने पर उत्तरकाशी में राजा के सैनिकों द्वारा पकड़कर पुनः अंग्रेजों को सौंप दिया गया था। लेकिन तीसरे प्रयास में उन्हें सफलता मिल ही गई। हेनरीख अपने मित्र. पीटर ऑफ्सेनेटर के साथ देहरादून की जेल से फरार होकर यमुना घाटी के ऊपर चढे़ और पत्थर खोला होकर भागीरथी घाटी में उतरे। फिर हरसिल, कोपांग होते हुए वे नेलांग पहुँचे और भारत की सीमा पार कर तिब्बत में प्रवेश कर गये। हेनरीख ने अपने मित्र के साथ 70 दिनों की पैदल यात्रा कर तिब्बत की राजधानी ल्हासा पहुँचे थे। हेनरीख तिब्बत में सात साल रहे। उन्होंने किशोरवय 14वें दलाईलामा को भूगोल, विज्ञान और पश्चिमी संस्कृति का अध्ययन करवाया। 1950 में वे वापस अपने देश ऑष्ट्रिया पहुँचे व 1953 में ‘‘सेवन इर्यस इन तिब्बत’’ पुस्तक लिखी। इस पुस्तक की शुरूआत देहरादून से ही शुरू होती है। अपने भागने के विवरणों में भारत की भी काफी जानकारी मिलती हैं। बाद में हेनरीख की इसी पुस्तक पर जीन जैक्यूज आनोड़ प्रसिद्व हॉलीवुड निर्देशक ने फिल्म बनाई। जिसमें हेनरीख की भूमिका ब्लॉक बस्टर हीरो ब्रेंड पिट ने निभाई थी तथा उनके मित्र पीटर की भूमिका डेविड थ्वीलिस ने निभाई। 1950 में ‘‘पिपुल्स लिबरेशन आर्मी’’ ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। तब हेनरीख अपने देश चले गये थे। 1980 में एक बार फिर हेनरीख वापस तिब्बत आये और दूसरी पुस्तक ‘‘रिटर्न टु तिब्बत’’ लिखी उनकी आत्मकथा ‘‘वियोण्ड सेवन इयर्स’’ 2007 में प्रकाशित हुई। 93 साल की उम्र में सन् 2006 में हेनरीख की मृत्यु हुई। तब तक वे 40 डॉक्यूमेण्ट्री फिल्में बना चुके थे। अपने जन्म स्थान हुटनवर्ग ऑष्ट्रिया में ‘‘हेनरीख हॉरर म्यूजियम’’ की स्थापना उन्होंने अपने जीते जी ही कर दी थी।

4- गरतंग गैलिओन

तिब्बत पहुँचने का रास्ता बहुत कठिन व रोमांचकारी था। नेलांग-जादुंग पहुँचने के रास्ते खड़ी चट्टान से होकर गुहरते थे। जहां से आते-जाते कई लोगों को मृत्यु का वरण करना पड़ता। तब नेलांग गाँव के धनीराम राणा के मन में सबसे कठिन चट्टानी रास्ते पर लकड़ी का लगभग 300 मीटर के पुल बनाने का विचार बना। यह उस जमाने का इजिनियरिंग का अद्भुत नमूना था। इस पुल के अवशेष नेलांग घाटी के प्रवेश पर ही दिख जाते है। 1989 में गंगोत्री नेशनल पार्क बनने से यह क्षेत्र अछूता हो गया था। लेकिन अब इसे सीमित आवाजाही के लिए अनुमति के आधार पर खोल दिया गया है। नेलांग तक सड़क मार्ग भी बन गया है। यहां सीमा पर सेना के जवानों की काफी तैनाती की गई है। पर्यटन की दृष्टि से यह क्षेत्र अभी तक आछूता था। लेकिन अब इसकी व्यापक संभावना बन गई है। ‘‘इस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेण्ट सपोर्ट’’ के निदेशक श्री भरत पटवाल ने इस प्राचीन व्यापार मार्ग को पर्यटन से जोड़ने व गरतंग गैलिओन पुल की मरम्मत कर इसे साहसिक गतिविधियों से जोड़ने हेतु सरकार को संकल्पना प्रपत्र सौंपा है। हिमालय प्रेमी तिलक सोनी, अजय पुरी इस घाटी के प्रचार प्रसार के लिए कई सालों से प्रयासरत रहे हैं. हाल ही में उत्तरकाशी प्रसाशन ने भी इस ओर पहल की है. अब यहाँ प्रशासन की आज्ञा लेकर घाटी मै घूमा जा सकता है. नेलांग घाटी के गाँवों में होमस्टे, टेण्ट कॉलोनी ट्रेकिंग, मोटर स्पोर्ट्स व गरतंग गैलिओन का आकर्षण दुनियां के सैलानियों को यहाँ खींच लाने की सामर्थ्य दे सकता है।