May 5, 2025



पत्रकारिता का स्याह पहलू

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प्रभात डबराल 


कई महीनो बाद कल रात प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया गया मंगलवार के बावजूद बड़ी भीड़ थी कई पत्रकार जो आमतोर पर क्लब नहीं आते, कल आये हुए थे


क्योंकि कल संसद में शपथग्रहण था, संसद भवन में पार्किंग बंद थी इसलिए कईयोंने प्रेस क्लब में गाड़ी खड़ी कर दी थी जाते जाते एकाध टिकाने का लोभ ज़्यादातर पत्रकार छोड़ नहीं पाते अपने ज़माने में भी ऐसा ही होता था स्टोरी लिखने के बाद सबसे ज़रूरी काम यही होता था देखकर अच्छा लगा कि पत्रकारों में जिजीविषा अभी बाकी है.


लेकिन ये पोस्ट मै प्रेस क्लब की मस्ती बयान करने के लिए नहीं लिख रहा हूँ. प्रेस क्लब को मैंने खूब जिया है १९८४ सी यहाँ का मेंबर हूँ, चार बार वाईस प्रेजिडेंट एक बार प्रेजिडेंट रहा हूँ बाहर कहीं भी कुछ भी होरहा हो प्रेस क्लब ज़िंदादिल लोगों का अड्डा था…यहाँ के लोग इमरजेंसी के खिलाफ भी खूब बोले और जब प्रेस को दबाने के लिए राजीव गाँधी के ज़माने में कानून बनने लगा तब भी यहाँ लोगों ने जमकर आवाज़ उठाई. लेकिन कल रात पहली बार मैंने लोगों की बातों में अजीब सी निराशा और हताशा देखी तीन- चार ड्रिंक होते होते ये स्पष्ट होने लगा कि पत्रकारिता के क्षेत्र में सब कुछ सही नहीं चल रहा है “अरे काहे की पत्रकारिता, और ये हमसे क्या पूछते हो, सम्पादकों सी पूछो, उनकी हालत ज़्यादा ख़राब है”- रिपोर्टर हो या फोटोग्राफर, सबका यही कहना था…कल अख़बार में क्या छपेगा क्या नहीं ये फैसला करते करते संपादक की नानी मर जाती है- न जाने किस बात पर मालिक का फ़ोन आ जाये क्योंकि छपना वही है जो मालिक चाहे और मालिक वही चाहेगा जो सरकार चाहे, इसलिए हम भी क्यों मेहनत करें.

ऐसा नहीं है कि अपने ज़माने में अखबारों के मालिक व्यापारी नहीं थे, लेकिन तब खबरों पर उनका उतना हस्तक्षेप नहीं था. सरकार उन्हें ज़्यादा नहीं दबाती थी, इसलिए वो भी सम्पादकों को इतना नहीं गरियाते थे अब सब कुछ बदल गया है संपादक नाम की संस्था मालिक की तिजोरी में बंद है और तिजोरी की चाभी सरकार ने अपने पास रख ली है..रिपोर्टरों का वो बिंदास अंदाज़ जो तीन-चार पेग के बाद और निखर उठता था, कल रात दिखाई नहीं दिया अपन कोई स्टोरी करैं तो इस बात का क्या भरोसा कि कल वो छपेगी या नहीं क्या पता उससे किसकी पूँछ दब रही है और उसकी पहुँच कहाँ तक है-इसलिए उतना करो जितने में सब खुश रहें. ज़्यादातर पत्रकारों की हालत सरकारी बाबुओं जैसी दीन हीन हो गयी है. तभी तो सारे अख़बार नीरस हो गए हैं. एक ज़माना था जब किसी नेता के खिलाफ लिखने पर फ़ोन आते थे- अब तो व्यापारियों क्र भ्रष्टाचार पर भी नहीं लिख सकते. सब के सब पहुंचवाले हो गए हैं. पत्रकारों की- ईमानदार पत्रकारों की इतनी बुरी हालत मैंने पहले कभी नहीं देखी लोकतंत्र का एक खम्बा बुरी तरह हिल रहा है.


उपरोक्त लेख पर टिप्पणियां 

शिखा काजल – वाकई तमाम मीडिया हाउस की स्थिति दयनीय है तभी तो पत्रकारिता शब्द विलुप्त होने के कगार पर है. ज्यादातर ज़िन्हे हम जानते हैं वो महज मीडियाकर्मी है पत्रकारिता तो बची ही नहीं उनमें. ये सच है कि ख़बरें दबाई जाती है लेकिन हक़ीकत ये भी है कि आज सोशल मीडिया के इस दौर में देश के किसी भी कोने में हुई एक छोटी सी घटना भी लोगों के बीच अपनी पहचान बना जाती है क्योंकि आज एक आम आदमी भी पत्रकार है और उसे अपनी ख़बर लोगों तक पहुंचाने के लिए किसी अखबार या टीवी का सहारा नहीं लेना पड़ता. सोशल मीडिया ने उसे इतना सशक्त कर दिया है. ऐसे हालात में कई बार विश्वसनीयता का सवाल जरुर उठता है पर बातों पर पर्दा डालना आज के दौर में आसान नहीं.




जीतेंद्र चौहान – पहले पीत पत्रकारिता शब्द सुना जाता था। अब मीत पत्रकारिता और क्रीत पत्रकारिता का भी चलन है। नवनीत पत्रकारिता तो काफी पहले से अस्तित्व में रही है। चौथे स्तंभ के पहरुओं का मौजूदा हाल, जैसा कि आपने बयां किया है सर, वाकई भविष्य को लेकर आशंकित करने वाला है।

पंकज श्रीवास्तव – इसके लिये हम पत्रकार ही कुछ हदतक खुद ज़िम्मेदार हैं, पत्रकारों की पगार अधिक न होते हुए भी कुछ पत्रकार करडो़पति तक बन चुके हैं, कैसे बने ये एक सवाल है, जब हम खुद बिकने को तैयार हैं, अपने ज़मीर से समझौता करने पर तुले हैं तो फिर दूसरे को दोष क्यों दें, पत्रकारों का सबसे ज्यादा उत्पीड़न तो स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में होता था, उस समय तो पत्रकार नहीं बिकते थे, लेकिन आज हालात बदल चुके हैं, आज कई पत्रकारों को लोग खुलकर दलाल कहते हैं। इसके लिये कोई सरकार या प्रशासन जिम्मेदार नहीं है, जब हमने अपनी रीढ़ खुद ही खत्म कर दी तो फिर शिकायत कैसी ?

अविकल थपलियाल – 2015 की गर्मियों में कोटद्वार में आहूत पत्रकारों के कार्यक्रम में मीडिया में व्याप्त इसी निराशा और दबाव पर खुलकर चर्चा हुई थी। आपके साथ मंच शेयर करने का सुअवसर मिला था। पहले सम्पादक अपने छपने वाले लेख की ब्रांडिंग नही करते थे। लेकिन अब बड़े संपादक कहे जाने वाले सोशल मीडिया में ये बताने से नही चूक रहे कि जरूर पढ़ें मेरा लेख। ऐसे सम्पादक किसको पढ़वाना और किसका ध्यान खींचना चाहते हैं? कैसे कैसे लोग संपादक की कुर्सी पर किस तिकड़म से जमे हैं, ये कौन नही जानता। सारा ठीकरा मालिकों के सिर नही फोड़ा जाना चाहिए। खास ब्रीड के संपादक भी कम जिम्मेदार नही है।

घनानंद जखमोला – यही हालात हैं, लेकिन सब दोष मालिकों और संपादकों को देना सही नहीं। अब हम सब पत्रकार सुविधाभोगी हो गये हैं। हमारी इच्छाएं बढ़ गई हैं और बाजार में नये पत्रकारों व प्रतिस्पर्धा से डरते हैं कि कहीं नौकरी चली गई तो क्या होगा? विरोध के स्वर दब गये हैं। कारपोरेट जर्नलिज्म ने हमारे अंदर की आग को बुझा दिया है। बाॅस की हां में हां मिलाते हैं, यहां तक कि अपने अधिकार के लिए भी नहीं लड़ पाते। परिणाम, मजीठिया वेतन आयोग अब तक नहीं मिल सका। हम खुश है कि लोग हमें नमस्ते करते हैं। चाय पिला देते हैं या दो पैग। हम उजले कपड़े पहनते हैं और फटी जेब छुपाते हैं। हम सब जमीर से मर गये हैं सर। आत्मस्वाभिमान और अहम दोनों ही इस पेशे में खत्म हो गये, जिनके पास है वो पत्रकार सड़क पर हैं। फिर किसी को क्या दोष दें।

 

(लेख़क वरिष्ठ पत्रकार हैं उन्हीं की फेसबुक वाल से साभार)