मीठी रिश्वत – एक संस्मरण
व्योमेश जुगरान
बाजार में आमों की बहार है और मेरे जेहन में पटना का माल्दा। है तो यह भी लंगड़े की ही एक किस्म मगर गूदे का केसरी रंग, स्वाद और खुशबू एकदम जुदा।
बेहद पतला छिलका एक सिरे से नुचे तो उतरता चला जाए और भरपूर गूदे के बाद बचे तो एक चपटी सी अदना गुठली। माल्दे की भी सर्वश्रेष्ठ किस्म के स्वाद का एक रोचक किस्सा है। बात सन् 88 की है। भोपाल में अंतरराज्यीय आम स्पर्धा जीतकर आया एक शख्स पटना नवभारत टाइम्स के संपादकीय विभाग में पहुंचा। उसके पास विजयी शील्ड और वहां के अखबारों की कतरनें थी जिसमें आम और उत्पादक दोनों का गुणगान था। उत्पादक की ख्वाहिश थी कि खबर यहां भी छपे। संपादक आलोक मेहता ने उसे मेरे पास भेज दिया और मैंने खबर बना दी- ‘बिहार का ‘लंगड़ा’ मध्य प्रदेश में अव्वल..। खबर छपी और वह अगले ही दिन खुश होकर मुझे अपने बाग का पता और भ्रमण की दावत देने चला आया। जगह थी- दीघा। पटना से कुछ दूर एक उपनगरीय इलाका। खूब हरियाला। आम के बागानों के लिए मशहूर। यह संयोग ही था कि मैं भी इधर दीघा जाने की इच्छा पाले हुए था। दरअसल वहां बाटा कंपनी का बड़ा उपक्रम था और इसके सर्वोच्च अधिकारी थे, कंपनी के जोनल उपाध्यक्ष गिरीशचन्द्र बहुगुणा। उनसे फोन पर बात तो हुई थी मगर दर्शन का संयोग नहीं बन रहा था। अब बढि़या मौका था, एक पंत दो काज।
बहुगुणा साहब तक पहुंचने के लिए मुझे अभेद्य सुरक्षा इंतजामात से गुजरना पड़ा। सुरक्षा अधिकारी ने मेरा इंटरव्यू तक लिया। इससे मेरे जेहन में बहुगुणाजी की छवि किसी जासूसी उपन्यास के बॉस जैसी गढ़ गई। पर तमाम औपचारिकताओं के बाद आखिर में जैसे ही मैं हरा कॉलीन बिछे उस भव्य कमरे में दाखिल हुआ, खांटी गढ़वाली संबोधन (हे, तु कैलासो भुला छै..) मुझे हतप्रभ कर गया। जितनी बड़ी शख्यित, उतना ही आत्मीय और सरल व्यवहार। दरअसल वह पौड़ी में मेरे बड़े भाई कैलाश जुगरान के सहपाठी रहे थे। बहुगुणाजी ने मुझे बाकायदा अपने परिवार से मिलाया और हमने लंच भी एक साथ किया। सोचिए, उस जमाने में बाटा जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में उपाध्यक्ष पद तक पहुंचने वाली शख्सियत! बावजूद इसके पूरी मुलाकात के दौरान वह निरपट्ट गढ़वाली में संवाद करते रहे। बाद में उनका ड्राइवर मुझे उस बाग तक छोड़ आया जहां उत्पादक ने पूरी गर्मजोशी से मेरा इस्तकबाल किया और फिर पूरे बाग का नजारा कराया। बीच-बीच में वह माल्दा की अनूठी किस्मों का स्वाद भी कराता रहा। उसने इस बाग के बारे में कई रोचक जानकारियां दीं। मसलन, अंग्रेज वाइसरॉय से लेकर मौजूदा महामहिम (तब शायद ज्ञानी जैल सिंह थे) तक, हर साल राष्ट्रपति भवन में यहां से आम की पेटी जाती रही थी। उसने इस बाग के स्वादखोरों में अनेक हस्तियों का जिक्र किया। यहां तक कि जॉर्ज पंचम का भी। वापसी में उत्पादक ने मुझे टोकरी भर आम उपहार में दिए। बेशक यह खबर की एवज में था मगर सबसे प्यारी और मीठी ‘रिश्वत’ तो गिरीशचन्द्र बहुगुणा जैसी हस्ती से भेंट की थी जो उत्पादक के कारण ही संभव हो सकी। वरना चंद दिन बाद तो उनका तबादला कोलकाता हो गया था।
लेख़क दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार हैं