आपदा का पैसा क्यों नहीं दे रही केंद्र सरकार?
रमेश पहाड़ी
जून 2013 में केदारनाथ आपदा में जो जानें गईं और जो भौतिक संपदा नष्ट हुई, उसका तो कोई मूल्यांकन नहीं किया जा सकता
लेकिन जो निजी व सार्वजनिक संपत्ति नष्ट हुई, उसका मूल्यांकन 20-22 हजार करोड़ रुपयों में आँका गया था। उस समय केंद्र की यूपीए सरकार ने 8500 करोड़ रु. का एकमुश्त पैकेज देने की घोषणा की थी। पाठकों को याद होगा कि तब मोदी जी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और उन्होंने केदारनाथ के पुनर्निर्माण हेतु पूरा खर्च उठाने की पेशकस की थी, जिसे तब के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने राजनीतिक कारणों से ठुकरा दिया था। 10 महीने बाद ही केंद्र में भारी बहुमत के साथ भाजपा मोदी जी के नेतृत्व सत्तासीन हो गई। चुनावी वायदों की बात अलग छोड़ भी दी जाय तो भी उत्तराखंड के आपदा पुनर्निर्माण के लिए घोषित व स्वीकृत 8500 करोड़ रुपये की धनराशि तो केंद्र सरकार को दे ही देनी चाहिए थी लेकिन दुर्भाग्य से राज्य में कांग्रेस की सरकार रही और भाजपा का ध्यान इस सरकार को डगमग करने में ही लगा रहा, जो बीच में काफी कोशिशों के बाद भी सफल नहीं हो पाया। अंततः तीसरी विधान सभा का कार्यकाल पूरा होने पर भाजपा यहां अपनी सरकार भारी बहुमत से बनाने में सफल रही।उत्तराखंड के लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस आह्वान का कि केंद्र के साथ राज्य में भी भाजपा की सरकार बनाएं ताकि डबल इंजन की सरकार इस पहाड़ी राज्य को विकास के रास्ते पर तेजी से दौड़ सके।इस समय राज्य और केंद्र के बीच अच्छा तालमेल है और इसका लाभ राज्य की विकास योजनाओं कितना मिल पा रहा है, इसे देखने-समझने में समय लगेगा लेकिन आपदा के मामले में केंद्र की उपेक्षा इस राज्य पर बहुत भारी पड़ रही है।
केदारनाथ के विधायक मनोज रावत इस समस्या से सर्वाधिक जूझ रहे हैं। उन्होंने गाँवों व लोगों की समस्याओं को मौके पर ही जाकर सुलटाने की एक अभिनव पहल शुरू की है। वे लगातार गाँवों में हैं और ग्रामीण समस्याओं को निपटाने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं लेकिन समस्या पैसों की आड़े आ रही है। पैसे तो हैं ही नहीं। केंद्र सरकार ने आपदा के लिए घोषित 8500 करोड़ में से 4 वर्षों में मात्र 2200 करोड़ रु. दिए हैं, यानी 25.9% अर्थात लगभग एक चौथाई। इन 4 वर्षों में, जिनमें सवा तीन साल मोदी सरकार का कार्यकाल रहा है, में आपदा जैसे संवेदनशील मुद्दे पर केंद्र का यह रवैय्या है तो यह निश्चय ही सोचनीय है। धनराशि न मिलने से राहत और पुनर्वास के काम अधर में लटके पड़े हैं और राज्य सरकार भी मौन बैठी है तो यह अफसोसनाक है। अब हमारे सांसदों पर भी सवाल उठते हैं। उत्तराखंड से लोकसभा के 5 सांसदों को मिलाकर 8 सांसद हैं। ये इस मुद्दे पर आवाज क्यों नहीं उठा रहे हैं? यह सवाल अनेक बार उठ चुका है। विधायक मनोज रावत की चिंता यह है कि बिना पैसे के पुनर्निर्माण के काम जहां के तहां लटक गये हैं। इनको गति तभी मिल सकती है, जब केंद्र से पैसा मिलेगा और पैसा तभी मिल सकता है, जब हमारे सांसद इस पर सरकार का ध्यान आकर्षित करें। इधर राज्य सरकार अपने ढीलेपन के लिए अपनी ही पार्टी के नेताओं के निशाने पर है। सामान्य कार्यकर्ता इस बात से दुखी होने लगे हैं कि क्षेत्र में तो उन्होंने लोगों को सुनहरे सपने दिखाए थे। अब जब लोगों को धरातल पर कुछ विशेष दिखाई नहीं दे रहा है तो वे उन कार्यकर्ताओं को झंझोड़ने लगे हैं। इधर विधायकों से भी लोग सवाल पूछने लगे हैं तो स्वाभाविक है कि उन्हें भी काम करके दिखाना है लेकिन काम पैसे से होना है और वह केंद्र की तिजोरी से उत्तराखंड की ओर बढ़ने को तैयार नहीं है। इसके लिए यदि राज्य सरकार और सांसद मिलकर पूरा जोर नहीं लगाते तो डबल इंजन का मोदी जी का जुमला, जुमला ही रह जाएगा और जनता अपने भाग्य को कोसने के अलावा ज्यादा कुछ कर नहीं पाएगी।
लेख़क वरिष्ठ पत्रकार हैं