November 23, 2024



पुराणी टिरीवालों का – टीरी बजार – 2

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राकेश मोहन थपलियाल

अब न राजा रहे और न उनके अहलकार और न उनके अहलकारों की वो बस्ती जिसकी किसी गली-कूचे में मेरा भी घर था और न ही वो टेहरी शहर ही शेष रहा ?


टेहरी का अहलकारी मोहल्ला 


अहलकार राजा के कर्मचारियों को कहा जाता था, जो किसी महत्वपूर्ण या जिम्मेदार पद पर होते थे ? अहलकारों ने यहाँ बसना इसलिए पसंद किया क्योंकि यहाँ से भिलंगना नदी समीप होने के कारण, नहाना, कपड़े धोना और पीने का पानी भरना सुगम था. दूसरा आटा पीसने के घराट उर्फ़ घट्ट भी नजदीक ही थे, जिन्हें हिंदी में पनचक्की कहा जाता है . इन घटटों की वजह से ही अहलकारी मोहल्ले के घाट का नाम भी घट्टो –घाट पड़ा, जिसे कोई कोई घराटों – घाट भी कहते थे ? हमारे ज़माने में हमारी गली का डाक का पता हम वाटर –मिल रोड लिखते थे. और तब किसने सोचा था कि, एक दिन अपना वजूद सचमुच में पानी में ही मिल जाएगा और पूरा शहर ही पानी –पानी हो जाएगा ?


अपने मोहल्ले की बात यदि मोहल्ले के आर्य –श्रेष्ठ से ही शुरू की जाय तो उत्तम होगा ? मुस्लिम मोहल्ले के चौराहे के ठीक सामने इस पार था दीवान साहब पैन्यूलीजी का कोठा /घर जिसकी एक बड़ी खोली थी और आंगन में अमरुद का पेड़. दीवान साहब को तो हमने नहीं देखा था पर उनके चार पुत्रों और एक पुत्री को जरूर देखा था ? सबसे बड़े थे मुस्सी भाई उर्फ़ प्रकाश पैन्यूली के पिताजी, लंबे और दुबले –पतले और सेवानिवृत्त हो चुके थे . मुस्सी भाई से बड़े पित्री भाई और उनकी बहनें भादी, बिंदु और लच्छू दिदी थी और रश्मि . थोड़ी ही बड़ी होने के कारण हम उसे नाम से ही बुलाते थे . उनके एक चाचा प्रदीप के पिता थे जो गाजियाबाद में हिंदुस्तान लीवर में थे. प्रदीप के अन्य भाई राकेश ,अन्नू ,सुनील और एक बहन मीना है. गजियाबादी और शुरू में सिर्फ नाम का ही पहाड़ी प्रदीप बाद में अपना परम मित्र बना . उसके दूसरे चाचा रघुवीर प्रसादजी अध्यापक थे, जिनकी दो लड़कियां अरुणा और उमा और एक लड़का गिरीश है. प्रदीप के सबसे छोटे और और मुस्लिम मोहल्ले तक में चचा के नाम से मशहूर चचा अनसुईया प्रसाद हमारे समय में टेहरी अस्पताल में कम्पोंडर थे कुत्तों और मच्छी के शौक़ीन चचा के बेटे, प्रमोद, सुबोध, संता और एक अन्य तथा उनकी एक बेटी भी है. चचा जितने शौक़ीन थे उतने रंगीन भी थे, कमाल की शायरी, दोहे और चौपाईयाँ भी सुनाते थे और एक्टिंग भी बढ़िया करते थे .

दीवान साहब के पुण्य प्रताप से मोहल्ले के सभी अन्य पैन्यूलियों को भी दीवानजी कहकर ही पुकारा जाता था. दीवान साहब के बाएं हाथ की तरफ एक उनके ही किसी भाईबंद के घर के बाद एक अन्य माननीय पैन्यूली श्री कृष्णानंद पैन्यूलीजी का घर था, उनका बाजार में कृष्णा बुक डिपो भी था .उनके सबसे बड़े सुपुत्र श्री परिपूर्णानंदजी युवावस्था में टेहरी –रियासत के क्रांतिकारी थे, टेहरी प्रजामंडल के महत्वपूर्ण स्तंभ और शायद अंतरिम मंत्रीमंडल के सदस्य भी रहे और फिर देहरादून में बसने के बाद मशहूर पत्रकार भी रहे, उन्होंने कोई अख़बार भी शुरू किया और अंत में टेहरी के सांसद भी रहे. दूसरे पुत्र टेहरी के मशहूर पत्रकार व समाजसेवी सच्चितानंदजी हैं. सच्चितानंदजी स्वामी रामतीर्थजी के भी परम भक्त थे और शहर में प्रतिवर्ष स्वामी रामतीर्थजी की जयंती का आयोजन करते रहे जिसमें भक्त्दर्शनजी जैसे प्रकांड पहाड़ी विद्वान राजनीतिज्ञ, शिक्षाविद को भी हमने भाषण करते हुए सुना था और स्मारिका भी प्रकाशित होती थी. सबसे छोटे दिवंगत केशु मामा पत्रकार, ठेकेदार और दुकानदार सब कुछ थे और कई सालों तक मसूरी में भी रहे . वो बड़े बोलने –चलनेवाले व मस्त मौला थे और देरादून में भी अपने पड़ोस में ही थे व रोज हमारे घर में आते थे . कृष्णानंदजी को दो पुत्रियाँ थी, एक गणेश थपलियाल की माँ व दूसरी कमली बुआ थी. सच्चितानंदजी की पुत्रियाँ गुड्डी, प्रकाशी, तिप्पू व एक पुत्र हैं व केशवानंदजी की एक पुत्री व एक पुत्र विवेक है .दोनों भाइयों के पुत्र दून में अधिवक्ता हैं .


उनके बाद मास्टर शिवानंद गैरोलाजी के नाम से मशहूर शिवानंदजी का मकान था, जो बाद में उप विद्यालय निरीक्षक पद से सेवानिवृत्त हुए उनके तीन पुत्र मुन्ना भाई ,शंकर भाई और भाई देवानंदजी हैं, जिनकी पत्नी पहले राजमाता कालेज में थी व बाद में बांध परियोजना के विद्यालय में प्रधान अध्यापिका भी रही. उनकी बगल में ही मेरा घर था पर पहले एकतरफ़ा निपटा लूँ ? देबू भाई के बाद एक छोटा घर व उसका बड़ा अहाता किसका था ,पता नहीं लेकिन उसमे वर्षों तक गफूर ओवरसियर अंतिम समय तक,फिर सुभाष मंजखोला और आखरी में ड्राफ्ट्समैन देवली जी रहते थे. फिर एक पतली गली थी और एक बड़ा घर था, जिसमें नन्दलाल के दादाजी और उसके दो चाचा, जिनमें एक का नाम पम्मा था, वो रहते थे. नन्दलाल के पिता नहीं थे और वह मेरा सहपाठी था, वह बाद में अध्यापक बना. उसकी माँ बड़ी कर्मठ महिला थी उनका एक बहुत बड़ा बाड़ा था जिसमें एक बेर का पेड़ था और उसके ठीक सामने शहर का कब्रिस्तान और बाहर फल प्रसंस्करण केंद्र था .

नन्दलाल के अहाते में ही जन्नी भाई का भी घर था, वो प्रताप कालेज के मशहूर फुटबाल खिलाड़ी थे और बाद में उन्होंने वहीँ पर नया पक्का घर बनाया था. उनके पिता ,सुना था जंगलात में रेंजर थे और बरसात के मौसम में आकाशीय बिजली का शिकार हुए थे, रेडियो के एन्टीना के माध्यम से . उनके बड़े भाई मोनी भाई को भी मैंने देखा था, उनके गाल पर लाखण का निशान था और बेचारे भरी जवानी में ही असमय स्वर्ग सिधार गए थे. सबसे बड़ी सुशीला दीदी राजमाता कालेज के अंध विद्यालय में टीचर थी और बाद में राजकीय सेवा में चली गई थी . उनका छोटा भाई अन्नी बाद में मेरे साथ भी पढ़ा और उसकी एक छोटी बहन भी है. जन्नी भाईजी से आज भी पारिवारिक संबंध बना हुआ है और पहाड़ी दोहरे –तिहरे रिश्तों के अनुसार उनकी पत्नी मुझे भाईजी कहती है.




इसी अहाते में शुरू में मौसाजी स्वर्गीय श्री गिरधारी लालजी डंगवाल भी रहते थे, उनके पिता पटवारी थे, उनकी पत्नी को हमारे पिता बुआ कहते थे,क्योंकि वो थपलियालों की लड़की थी और मौसाजी की माँ को मै दीदी कहता था ? ये पहाड़ी रिश्ते आज भी मेरी समझ से परे हैं ? मौसाजी का एक झबरे बालों वाला कुत्ता भी था, जिससे हम डरते थे ? बाद में मौसाजी ने हमारे घर के सामने नया घर बनाया था . नंदलाल उर्फ़ पाथी भाई के मकान से पहले एक बहुत ही पतली गली मोहल्ले के अन्दर जाती थी और इस गली में उनके कमरे की एक बड़ी खिड़की भी खुलती थी, जिससे आराम से आया –जाता था . उसके बगल में ही प्रभा नौटियाल दीदी की माँ ने एक घर बनाया था, वो अध्यापिका थी, प्रभादीदी भी अध्यापिका थी और उनके पति भी सरस्वती शिशु मंदिर में अध्यापक थे. दीदी का एक लड़का व एक लड़की है व उनकी माँ शायद पुजार गांव की तरफ की थी ?वह जमीन शायद एक बूढी महिला सरोली बुढ्जी की थी, जो शायद निसंतान थी ?

उनकी बगल में बाद में एक दूसरा छोटा भवन बना था, जिसकी मालकियत देबू भाई लोगों के पास थी . वहां एक ए.डी.ओ. श्री त्रिवेदीजी रहते थे .वो मैदानी भाग से और बुलंदशहर के पास के थे व स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी रह चुके थे .उन्होंने अंग्रेजों की जेल में कांच पीसी रोटियां भी खाई थी ? उनकी लड़की बेबी थी व उसका एक भाई भी था और ये लोग वर्षों टेहरी में रहे थे .त्रिपाठीजी एक सज्जन पुरुष थे . इसके बाद यह गली इतनी पतली थी कि, नया आदमी गली पार करने के बजाय सीधे भोला मामा के चौक में घुस जाता था. मामा का असली नाम गोविंद प्रसाद नौटियाल था और वो जन्नी भाई के साथ के थे और फुटबाल के अच्छे खिलाड़ी थे ,उनका एक उपनाम कीडू भी था ? नानाजी का नाम गोपाल दत्त था, वो भी पहले सरकारी नौकरी में थे और आलीम बेग के पिता से उनका कट्टर याराना था और वो हर शाम को उनकी दुकान में नियमित रूप से बैठते थे .नानाजी बड़े पूजा पाठवाले थे, उनके बड़े लड़के शिवप्रसाद देहरादून में रहते थे व बाद में बेसिक शिक्षा अधिकारी भी रहे .उनकी एक बहन भी थी,जिसका नाम शक्कू मौसी था और उनके पति दिल्ली सरकार में शुरू में अध्यापक थे

उसी प्रांगण में परमी बुढ्जी भी रहती थी, वो भोला मामा की चाची थी. उनके पति का नाम शायद तारादत्त था.परमी बुढ्जी भी रहती सरोजिनी और पुष्पा मौसी थी .जो क्रमश उत्तरकाशी, मुंबई और देहली में रहती थी . तीन बहनें ही बहनें थी विजया मौसी और उनके पति अध्यापक थे .मौसाजी का नाम शायद विजयराम था . उनके घर से निकल कर वह पतली गली दो भाग में बंट जाती थी एक मेरे घर को व दूसरी सीताराम भाई के घर की ओर जाती थी मेरे घर की पिछली तरफ और गली के बीच शिबदत्त डोभाल जी का बाड़ा था .जिसमे एक गुल्लर का व एक दाड़िम अनार और चकोतरे का पेड़ था. गुल्लर के पेड़ के पास देबू भाई के घर का पिछला दरवाजा था.

सीताराम भाई के घर से पहले ही गली के दूसरी तरफ सेठ खेमराज बहुगुणाजी की हवेली थी. जिसमें कई कमरे थे वो मसूरी में रहते थे, वहां का प्रशिद्ध सेवाय होटल उनका था, वो कभी-कभी ही टेहरी आते थे और खासकर दश्हरों में, वे मालदार आदमी थे, उनके चहरे पर लाली रहती थी, आवाज में खनक थी. खानदानी रईस. मकान के आगे –पीछे चार बाड़े . पानी का पक्का कुआँ, पानी की सीमेंट की 10-15 फिट लंबी व इतनी ही गहरी डिग्गी, स्वीमिंग पुल जैसी. उसकी बगल में पक्की लैट्रिन लेकिन कैसी ? ऊपर दुमंजले से करो तो छेद से घर के बाहर गिरे और जमादार भी, बिना घर के अंदर जाए ,बाहर से ही चलता बने ? ये थी विलासिता . घर का बंद अहाता , बड़ा चौक , चारों तरफ भवन. क्या बात थी . उनकी तीन –चार बेटियां थी. दो बेटे . एक लोकेंद्र तो चीफ मेडिकल ऑफिसर से सेवानिवृत्त हुआ तो दूसरा प्रभा, फ़ौज में कर्नल था ? घर के बाहर एक अमरुद का बगीचा था तो सुसज्जित बैठक के सामने के बाड़े में एक कलमी आम का पेड़ और दीवार के उस तरफ मेरा घर था .वो पिताजी को मामाजी कहते थे .

डांगचौरा की तरफ के शिवदत्त डोभाल जी खेमराजजी के ममेरे भाई थे और उनके घर में आकर कई दिन रहते थे व पीर ,बबर्ची ,भिश्ती ,खर, सबकी भूमिका निभाते थे . वे सेवानिवृत तहसीलदार थे व अनुशासन प्रिय. सर पर जंगलाती हैट ,चश्मा ,वही अंग्रेजों जैसा हिसाब –किताब ? एक बार एक लाला ने उनके चपरासी को 67 या 68 पैसे लीटर का मिट्टी- तेल, 70 पैसे में दे दिया फिर लाला को हवालात की हवा खानी पड़ी . उनके एक पुत्र श्री सुशील चंद्र डोभाल शिक्षा विभाग के डी.डी.आर. पद से सेवानिवृत्त हुए व फिर उसके बाद देहरादून में महंतजी के स्कूलों से जुड़े रहे, कड़क प्रशासक, किसी की सिफारिश नहीं सुनते .

खेमराजजी के एक अन्य भाई सूर्यदत्तजी भी थे जो काफी समय पहले दून में ई.सी. रोड में सेटल हो गए थे उनके एक लड़के श्री शैलेन्द्र दत्त, सेना से मेजर जनरल के पद से रिटायर हुए . एक बेटा मेजर हर्षवर्धन एवरेस्ट पर चढ़ाई करते मारा गया, उसका दूसरा फौजी भाई भी अपने बड़े भाई का अधूरा ख्वाब पूरा करने एवरेस्ट पर चढ़ा और वो भी एवरेस्ट पर कुर्बान हुआ ? ऐसा बुलंद हौसला था,उन असली पहाड़ियों का, पहाड़ पर चढ़ने का ? उनका सबसे छोटा एक और बेटा भी फौजी अधिकारी था . हमारे मोहल्ले के कर्नल राकेश मोहन पैन्युली की माँ सुर्यदत्तजी की ही बेटी थी ?

गली के छोर पर आगे सीताराम भाई का मकान था .सीताराम भाई किसी परिवार में धर्मपुत्र आए थे, उन नेत्रहीन गृहस्थ की लाठी के सहारे इधर –उधर आने जाने में मदद करते थे . उन सद्गृहस्थ की पत्नी को मोहल्ले की औरतें शायद नैथ्याणाजी के नाम से संबोधित करती थी .उसी अहाते में एक पुरेथ्याणजी नाम की नाक से बोलनेवाली बुजुर्ग महिला भी रहती थी और बिजल्वाण दादी भी, ये सभी महिलाएं निसंतान थी. सीताराम भाई का गांव वैसे अठूर में कहीं था, बड़ा कर्मठ और मेहनती था, पहले सेटलमेंट दफ्तर में काम करता था, पेड़ों की चोटी / टुक्क्खु तक चढ़ने में माहिर था और फिर एकबार किसी ऊँचे पेड़ से गिरा कि, चोट तो बहुत लगी पर रीढ़ की हड्डी टूटने से बच गई पर कमर काम से गई? फिर उसने बस अड्डे में किसी की भागीदारी में मिठाई की दुकान खोली फिर सुमन चौक में सब्जी की दुकान .

सीताराम भाई मकड़े की बीमारी ( अंग्रेजी में शायद हर्पीज ) की दवा भी देता था. बड़ी दूर,दूर से लोग आते थे कोई तो भैजी को डाक्टर भी बोलते थे ? इस बीमारी में शरीर का वह हिस्सा गलने या सड़ने लगता है, तीव्र वेदना व जलन होती है, कमीज पहनना भी मुश्किल हो जाता है ? भाई कोई पत्ता या जड़ पीसकर देता था और उसका लेप लगाने से आराम मिलता था और घाव भी ठीक हो जाता था. उस लेप का नाम हरयाळ सुना था और शायद हरे रंग का ही रहा होगा ? हमारे मोहल्ले के सच्चू –केशु मामा की माँ भी मकड़े की दवा देती थी और बुढाजी का घरेलू नाम भी कुछ इस बीमारी से मिलता -जुलता ही था .

हम टेहरीवाले अक्सर जब किसी का जिकर करते थे तो उसके नाम के साथ ही करते थे, जैसे कि, फलाने ताउजी या मामाजी आदि.. सीताराम भाई के बड़े लड़के प्रकाश ने बाद में सब्जी के बदले वहां मैगजीन, प्रतिस्पर्धात्मक –परीक्षा से संबंधित किताबें , उपन्यास और रोजगार –समाचार जैसे अख़बारों की दुकान खोल दी थी. आइडिया बुरा नहीं था पर जादा चला नहीं . प्रकाश के तीन अन्य भाई थे, एक चंद्रप्रकाश तो सरकारी नौकरी में था पर युवाअवस्था में तपेदिक से ग्रस्त होकर चल बसा , एक दूसरा भाई भी ऐसे ही छोटी उमर में चला गया, प्रकाश भी अब नहीं रहा और एक भाई पप्पू व बहन बीना ही शेष है .

उसके बाद उसी तरफ किनारे का आखरी मकान रेंजर साब डोभालजी का था. वो रौणया –पथान्या के थे उनके दो बेटे भगवती और शम्भू भाई व कई कन्याएं कौशल्या दीदी, उर्मिला ,उमा ,प्रभा व छोटी थी . उसके बाद बस बाड़े ही बाड़े थे . हमारे मोहल्ले में शायद ही कोई ऐसा परिवार रहा होगा जिसका बाड़ा –सग्वाडा न रहा हो और कईयों की गायें भी थी. बाद में रेंजरजी के घर के बाहर किसी अन्य डोभालजी ने कुछ कमरे बनाए फिर चचा श्री बच्चीराम कंसवालजी ने पक्का घर बनाया. चचा कामरेड, शिक्षक और शिक्षकों के धुरंधर नेता थे. उनके एक पुत्र मदन टी.एच.डी.सी में प्रबंधक हैं .फिर मुल्तान मियांजी ने सेठजी से जमीन लेकर पक्का मकान बनाया था और उसके ठीक सामने मिशन हॉस्पिटल और थेपड़राम सेमवालजी का एक भवन था, जिसमें महिलाओं का बी.टी.सी स्कूल था . मिशन हॉस्पिटल में बरसों तक एक मोना सरदार डाक्टर रहता था, जो मूलरूप से पंजाब का रहनेवाला था और शायद भूतपूर्व फौजी भी था . बाद में विद्युत् विभाग के एक पौड़ी के जुयालजी इसमें रहने लगे और जर्सी –गायें भी पालने लगे ?

यह धारावाहिक लेख जारी है
 
(लेख़क मुंबई में प्रवास करते हैं)