इस पदयात्रा में जो मिला-भेंटा-देखा
भास्कर उप्रेती
पिछले माह 12 जून से 16 जून के मध्य नैनीताल के ओखलकांडा ब्लॉक के कुछ गाँवों में पदयात्रा का मौका मिला. यह मौका पटना से उत्तराखंड ट्रांसफर होकर आये अपने कुछ युवा साथियों को पहाड़ का गाँव दिखाने के मकसद से की गयी.
गाँव जानने का मतलब था यहाँ की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था के साथ भूगोल-फ़्लोरा-फौना का परिचय प्राप्त करना. कुछ खास उद्देश्य भी थे जैसे ये जानना कि गाँव में पंचायती व्यवस्था कैसे काम करती है. बच्चे कैसे स्कूल आते-जाते हैं, उनके अभिभावकों की अपेक्षाएं क्या हैं और शिक्षक किन परिस्थितियों में काम करते हैं. इसके लिए अधिक से अधिक लोगों से बात करने की कोशिश की गयी. उन्हीं के घरों में खाना और रहना किया गया. 11 जून को हम भीमताल में एकत्र हुए और 17 जून को वापिस वही जुटे. पूर्णत: जनसहयोग से संपन्न हुई यात्रा का पहला पड़ाव पतलोट गाँव के शिक्षक साथी डॉ. सुरेश भट्ट जी के यहाँ रहा. एक तरह से उन्होंने इस पदयात्रा के लिए हमारा मार्गदर्शक बनने का प्रस्ताव भी स्वीकार किया. भट्ट जी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पीएच. डी. हैं और लोक जीवन, लोक साहित्य और ग्रामीण कृषि व्यवस्था में खासा जुड़ाव रखते हैं. वह इन दिनों बाजपुर के स्कूल में पढ़ाते हैं. डालकनिया और आस-पास का भूगोल बड़ा ही खास है. ऊपर धुरे पर बुरुंश के फूल खिलते हैं तो नीचे घाटी के खेतों में हाथी और बाघ आ पहुँचते हैं. बाघ के आतंक पर हमें यहाँ एक तोक देवनगर में जॉन लायल की न्यूज़-कटिंग फ्रेम-बद्ध मिली. यह खबर 2000 में उन्होंने लिखी थी, जिम कॉर्बेट के आदमखोर को मारने की घटना को लेकर. बाघ का कितना आतंक यहाँ था इसे देवेन मेवाड़ी जी ने अपनी पुस्तक ‘मेरी यादों का पहाड़’ में तसल्ली से समझाया है. भूगोल की विविधता ने यहाँ बीजों और स्वादों का विस्तृत संसार रचा है.
पहले दिन ब्लॉक के सबसे बड़े गाँव डालकंडिया के लोगों से बातें हुईं. अगले दिन साथी अलग-अलग टीमों में बंट गए, अधिक से अधिक इलाका कवर करने के लिए. मेरे साथ आये सभी साथियों की यह पहली पदयात्रा थी और पहाड़ के किसी भी गाँव से भी पहला ही तार्रुफ़. और मेरी लिए भी इस इलाके में यह पहली पदयात्रा थी. मैं इससे पहले 2003 और 2005 में यहाँ गया था. ‘नैनीताल समाचार’ के लिए यहाँ के विकास और आंदोलनों का जायजा लेने. 2003 में मुझे यहाँ के लोगों के साथ ट्रक में बैठकर देवीधुरा की बग्वाल यानी पाषाण-युद्ध देखने जाने का मौका मिला था. एक खाम के सिपाही के रूप में.
उस समय तक पतलोट और कोडार तक सड़क थी. पतलोट से डालकंडिया तक कच्ची सड़क थी. सड़क के हिसाब से नैनीताल का यह छोर यही तक सिमट जाता था. लेकिन, सड़कों के हिसाब से इस बार यहाँ सड़कों का व्यापक नेटवर्क बिछ चुका है. पतलोट से कोडार-पसिया के रास्ते पहाड़पानी-धानाचूली के लिए वैकल्पिक मार्ग खुल गया है और यहाँ सुबह 8 बजे एक केमू की बस उधर की परिक्रमा कराके हल्द्वानी ले भी जाती है. दूसरी सड़क यहाँ से लोहाघाट के लिए अमजड़-मिडार-रीठा साहिब के बाटे बन चुका है, जिससे सिख श्रद्धालुओं के झुंड जाने भी लगे हैं. तीसरी सड़क डालकंडिया वाली ल्वाड़-डोबा-गोन्यारो तक जा पहुंची है. डोबा से लुखाम मंदिर तक चढ़ जाओ तो सामने हैडाखान से हरीशताल तक पहुंची सड़क के दर्शन हो जाते हैं. हालाँकि हरीशताल वाली सड़क गाँव वालों ने श्रमदान से ही काटी है और बारिश के दिनों में बंद हो जाती है. कुल मिलाकर सड़कों की दृष्टि से यह बंद कहा जाने वाला इलाका अब बाकी दुनिया के लिए खुल गया है. हो सकता है यहाँ के लोग जल्द ही हैडाखान और चोरगलियाँ के रास्ते शार्टकट से हल्द्वानी पहुँचने लगें.
विकास का दूसरा पैमाना स्कूल मानें तो अब पतलोट इंटर कॉलेज के अलावा यहाँ दर्जनों और इंटर कॉलेज और हाई स्कूल स्थापित हो चुके हैं. पतलोट में पिछले बरस डिग्री कॉलेज भी घोषित हुआ था और इस बरस वहां एक प्राचार्य और कुछ प्राध्यापक तैनात हो चुके हैं. यह अभी इंटर कॉलेज से ही संचालित हो रहा है और यहाँ करीब 120 छात्र-छात्राओं के नामांकन भी हुए हैं. नामांकनों में बड़ी तादात युवतियों और नव-ब्याहताओं की है. यह वो बच्चे हैं जो उच्च शिक्षा के लिए हल्द्वानी या नैनीताल नहीं जा पाते थे. संचार व्यवस्था की दृष्टि थोड़ी अभी शुरू-शुरू होती सी है. फिलहाल लोगों की सबसे बड़ी मांग भी यही है. टावर्स तो सभी कंपनियों के लग चुके हैं, मगर नेटवर्क उड़-उड़कर और कभी-कभार ही आता है. मोबाइल जरूर सब ने खरीद लिए हैं. नजदीकी अस्पताल अभी ओखलकांडा ब्लॉक में स्थापित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ही है, जहाँ कभी डॉक्टर आ जाते हैं, कभी नहीं भी आते. दुःख-बीमारी में अब भी उचैण ही एक रास्ता है. पेयजल योजना वही है 60 के दशक में बनी चंपावत के पाटी ब्लॉक के कलियाधुरा से आने वाली पाइपलाइन, जिसमें अंदर जंक लग गयी है. ऊंचे पहाड़ से पानी पहले डेफ्ता के गंधेरे में गिरता है और फिर अपनी कूबत से जितना हो सके ऊपर चढ़ता है. गर्मियों में पानी के लिए मारामारी हो जाती है. खासकर पतलोट से सटे मटेला, मल्ला डालकंनिया और मल्ली पोखरी गाँव में काफी संकट हो जाता है. मगर यहाँ के लोगों के अपनी सुध से खूब सारे वर्षाजल संग्रहण टैंक बनाए हैं, जो गाड़-भंगाड़ में साग-पात लगाने और मवेशियों को स्नान कराने के काम आ रहा है. हैंड पंप जहाँ-तहां खुदे हैं, मगर सब काम नहीं कर रहे.
जंगली सुवरों, शाही (पोर्क्युपाइन), गुण-बानरों की वजह से खेती-बाड़ी बर्बाद हो चुकी है. सुवरों का प्रकोप काफी बड़ा है, वे फसल को खाते कम हैं, रौंद अधिक जाते हैं. काश्तकार बोई-जुताई-छंटाई कर तो रहे हैं लेकिन लगभग नहीं होने के लिए. बहुत हताश हैं. कुछ लोगों ने अदरक और तेजपात की ओर रुख कर लिया है लेकिन वह तो ब्याँव-लगवा बात हुई. पशुपालन खूब है, पशु भी खूब हैं, मगर घास-पात खाने और महिलाओं के आंग पीड़ाने के लिए ही अधिक. मगर, फिर भी कई हिम्मती काश्तकार यह काम बड़ी आशा के साथ कर ही रहे हैं. जीवन का अस्तित्व बचाने और आजीविका की जद्दोजहद में कुछेक लोगडेरी वालों को दूध बेच भी रहे हैं. उद्यान विभाग की योजनाओं से जिन कुछ लोगों ने टमाटर, गोभी आदि की जो खेती शुरू की थी वह कीड़ा-खरपतवार लगने की वजह से छोड़ दिया है. बिजली लगभग हर जगह पहुँच चुकी है, लेकिन कलियाधुरा के एक गाँव वाले चंपावत-नैनीताल की सीमा पर होने से दो जिलों के बिजली महकमों के चक्कर काट रहे हैं. पहले की तरह माल-भावर प्रवास को अब कम ही लोग जाते हैं. जंगलात वालों की एक-आध नर्सरी भी देखने को मिलीं. वहां अच्छी बात ये थी कि चीड़ की पौध नहीं दिखी, अब बांज-बुरांश-फल्यांट-देवदार आदि ने उनकी ठौर पायी है.
पलायन बहुत है मगर अब पलायन से लोगों का मोहभंग भी बहुत हुआ है. लोगों की अपेक्षा है कि यहीं पहाड़ पर दो रोटी का जुगाड़ हो जाता तो वही बेहतर रहता. शिक्षा से लोगों को बहुत उम्मीद है. किसी तरह बच्चे पढ़-लिख जाते, कहीं परदेश में खप जाते तो बेहतर होता. इसके लिए कई बच्चे अभ भी मीलों चलकर स्कूल आते हैं. मगर, बेरोजगारी की स्थिति बहुत डराती भी है. बहुत बड़े सपने नहीं हैं, मगर वो भी पूरे नहीं हो दे रहे. ग्राम पंचायतें दिशा-दृष्टि के अभाव में महज मंदिरों-खडंजों में पैसा खपाऊ ही बनी हुई हैं. शौंचालय बनवाना नया शिगूफा है. शौंचालय बन भी रहे हैं मगर अपने जैसे. बार हज़ार में जितना हो सकता है वैसे आदिम ज़माने से चली आ रही जो एक विरासत यहाँ अब भी कायम है, वह है मेल-मिलाप. बंधुत्व. साझीदारी. कोई अप्छायाँणा सा मनिख आता-जाता दिखे तो लोग पानी और चहा के लिए जरूर पूछते हैं. बखत-विबखत हो तो रात में रहने के लिए कहते हैं. दही खिलाकर यह बताते हैं कि तुम हमें पसंद आ गए महिराज. आज यही रुको, बातें करेंगे, और है भी क्या जिंदगी में. यदि लोगों को लगे कि अंजाना मैस आगे दुराहे से रास्ता भटक सकता है तो मील-दो मील बिना सोचे साथ चलकर सही रास्ता बताने आ ही जाता है. आपकी जात-पात और मुलुक तो पूछ ही लिया जाता है लेकिन उससे बहुत कुछ तय नहीं किया जाता. हम लोग दो टीमों में यहाँ के करीब दर्जन भर गाँवों-तोकों में फिरे होंगे, लोगों का अपनत्व-भाव गजब का था. कोडार, मल्ली पोखरी, भनपोखरा, डेफ्ता, कलियाधुरा, मटेला, देवनगर, हरीशताल तमाम गांवों में वहीं एक साझा ममत्व देखा. यहाँ तक कि अब क़स्बा हो चुके पतलोट में भी लोग वैसे ही बने हुए हैं. प्रताप राम जी तुम्हारा स्थानीय ज्ञान, कमल राम जी तुम्हारा लोहे जैसा हाथ, रुबाली जी की खिदमत, रमेश भट्ट जी आपका संघियों से जुड़े होने के बावजूद उनके विष से बचा रहना, गिरीश पोखरिया जी आपका चौकन्नापन..कितने जो भले-भले नाम..चेहरे..सुरेश भट्ट जी, दिनेश-मुकेश भाई- रमेश भाई- निर्मल भाई के तो खैर कहने ही क्या. यह यात्रा गांवों को नगरों के ऊपर मानने के लिए कम नहीं!
(बहुत सारे अनुभव हैं बताने को..वो धारावाहिक क्रम में बाद में..फिलहाल तात्तो-तात ही.) फोटो – भास्कर उप्रेती