November 23, 2024



देहरादून से नार्थ कार्वेट

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जयप्रकाश पंवार ‘जेपी’


मेरे मित्र भरत पटवाल पिछले एक साल से विश्व प्रसिद्व कार्बेट नेशनल पार्क के निकट उत्तराखण्ड सरकार के सहयोग से एक पर्यटन कैम्प तैयार कर रहे हैं। भरत ने कई बार मुझे कैम्प में आमंत्रित कर लिया पर समय नहीं निकल पा रहा था।


लेकिन इस बार प्रभु ने कृपा कर ली। और मैं आज जा रहा हुॅ। नार्थ कार्बेट इस छोर को मैं इसी नाम से पुकारना चाहता हुॅ व भरत को कह रहा हॅु कि इस कैम्प का नाम ‘नार्थ कार्बेट कैम्प‘ रखा जाये पर उन्हें अभी यह नाम पसन्द नहीं आया। मेरा तर्क है कि च्यॅूकि यह कैम्प कार्बेट नेशनल पार्क के उत्तरी छोर पर स्थित है व उत्तराखण्ड सरकार ने पहली बार उत्तरी छोर से भी कार्बेट नेशनल पार्क घूमने की अनुमति शुरू कर दी है। इससे भी इस इलाके में भी पर्यटक गतिविधियों में तेजी आने लगी है। नार्थ कार्बेट किस छोर पर है, कहॉ है? इस रहस्य को अभी बने रहने दो इससे पहले मैं देहरादून से नार्थ कार्बेट पहॅुचने का विवरण सुनाता हॅु। आज सुबह 6 बजे मैं अपने ऑफिस कारगी चौक में यात्रा में जाने के लिए तैयार बैठा हॅु, तभी भरत भाई का फोन आ जाता है। दोनें अब मोनी भाई के घर पहॅुचते हैं। तभी मोनी स्कूटर से कहीं निकलने की जल्दी में हैं। पूछा तो बताया कि बूढाकोटी जी के स्कूटर का तेल खत्म हो गया है, वे आधे रास्ते में कहीं हैं।


खेर सामने साइकिल पर अखबार लेकर हॉकर पहॅुचता है। चार अखबार खरीद लिए। सबसे प्रमुख खबर यह है कि प्रसिद्व लेखक, पत्रकार श्री खुशवंत सिंह जी 99 साल की उम्र में र्स्वग सिधार गये हैं। मैंने खुशवंत जी को खूब पढा है। मैं उनकी बेबाकी व लेखकीय क्षमता का बड़ा फैन हुॅ। दूसरी खबर और नजदीकी है। ब्रेल विशेषज्ञ, पद्म भूषण सरदार कुवंर सिंह नेगी जी लम्बी बीमारी के बाद चल बसे। मैं उन्हें एक बार ही मिल पाया था। जबकि वे मेरे काफी करीबी रिश्तेदार भी थे। मैंने जब उन्हें अपनी गैरसैंण पुस्तक दी तो वे बड़े भावुक हो गये थे। नेगी जी ने कहा कि गैरसैंण तो मेरा जन्म स्थान है। फिर काफी संस्मरण सुनाये थे। मैं उन पर एक डाक्युमैंन्ट्री फिल्म बनाना चाहता था, बात भी हुयी पर मेरी लापरवाही की वजह से यह सम्भव नहीं हो पाया। फिर भी मैं एक प्रयास और करूॅगा। आखिरकार हमारी यात्रा देहरादून से शुरू हो गई। हरिद्वार की ओर बढते हुए छिद्दरवाला में चाय पीने का विचार बना। सड़क किनारे एक माता जी की चाय की दुकान थी। इतनी सुन्दर चाय बनायी कि मजा आ गया। हरिद्वार पहुॅचते ही विशाल शिव मूर्ति की ओर बढ गये। मौसम सुहावना था।

गैण्डीखाता पहॅुचकर कुछ खाने की इच्छा हुई। यह छोटे-छोटे ढाबा होटलों का सुन्दर स्थान था। यहॉ तीन-चार किसम की पकोड़ियॉ, जलेबी व खाने की उचित व्यवस्था थी। बजाय कोटद्वार पहॅुचने के पहले नजीवावाद गये। यहॉ भरत अपने कैम्प के लिए कुछ बेंत का फर्नीचर खरीदना चाहते थे। घुम्मकड़ जाल में फंस गया था। नजीवावाद में कई जगह घूमने पर भी बेंत का फर्नीचर नहीं मिला। तय हुआ कि 30 किमी0 आगे बिजनौर जाना पड़ेगा। गरमी का प्रकोप बढता जा रहा था। बिजनौर नाम सुनकर कुछ पुराने संस्मरण ताजा हो गये। बिजनौर टाईम्स के सम्पादक बाबू सिंह चौहान जी बड़े प्रसिद्व पत्रकार, सम्पादक व समाज सेवी थे। उनकी मित्रता केरल के एक छरहरे, तेज तर्रार, विचारोत्तेजक केरल निवासी स्वामी मनमंथन से हुई। स्वामी मनमंथन जी ने चौहान जी की मद्द से बच्चों का स्कूल खोला, जिसे अब लोग कहते हैं कि इण्टरमीडिएट कालेज बन गया है। ये वही स्वामी मनमंथन थे जिन्होंने उत्तराखण्ड के गढ़वाल मंडल में अनेक प्रसिद्व आन्दोलनों की अगुवाई कि जो इस पर्वतीय राज्य के विकास के लिए मील के पत्थर साबित हुई। हिण्डोलाखाल पेयजल योजना का निर्माण, सिलकोट चाय बागान आन्दोलन स्थानीय लोगों के हकहमूक की लड़ाई, बलि प्रथा आन्दोलन में सफलता, गढ़वाल विश्वविद्यालय का आन्दोलन व फिर सफलता व अन्तिम समय में श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम की स्थापना। जिसका उत्तराखण्ड के विकाश में एक अति महत्वपूर्ण स्थान है। बिजनौर शहर में 3 घंटे कार के अन्दर बैठकर यही कहानी याद करने की कोशिश करता रहा। भरत ने बेंत के फर्नीचर का आर्डर दे दिया। हम फिर अब कोटद्वार की ओर बढ़े। कोटद्वार शहर से बमुश्किल 2-3किमी पहले ही उत्तर प्रदेश की सीमा समाप्त होती है। कोटद्वार पहॅुचकर बहुत कुछ याद आ गया। हिन्दु पॅचायती धर्मशाला में छात्रों के कई सम्मेलनों में मैं 1988 से 92 के मध्य कई बार भाग लिया। पहली बार मैं कोटद्वार 1989 में भूगर्व विज्ञान के छात्र के रूप में आया था। तब मैंने कोटद्वार सिद्वबली, दुगड्डा से सिन्धीखाल तक पैदल भ्रमण कर भूवैज्ञानिक अध्ययन किया था। इस शिवालिक पर्वत श्रृंखला में जीवायम का भंडार है। यह एक जिओ फॉमिल पार्क भी है, इसलिए कार्बेट नेशनल पार्क का महत्व कई माइनों में बढ़ जाता है। रामीसेरा की ओर बढते हुए मैं दुगड्डा में नरेश होटल में भी गया। 25 साल पहले बनें होटल का मुखड़ा जस का तस था लेकिन पीछे रहने का लकड़ी के कमरे अब सीमेण्ट के बने यही कई दिखा काफी बदलाव की दुगड्डा में गुॅजाइश भी नहीं है। पहले कोटद्वार की बात पूरी कर लुॅ।


1994 में उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान पुलिस ने धर पकड़ शुरू हुई तो हम एक रात व एक दिन कण्व आश्रम नियत गढ़वाल मण्डल विकास निगम में रूके व अगले दिन पूरे गढवाल मण्डल के छात्र नेताओं के महा सम्मेलन में भाग लिया। काफी उठापटक का माहौल था। पचास सदस्यीय उत्तराखण्ड संयुक्त छात्र संघर्ष समीति का सदस्य मण्डल में भी मैं उसका एक सदस्य चुना गया। इसके बाद हम अगले दिन उत्तराखण्ड के समस्त छात्र नेताओं के महासम्मेलन के लिए चल पड़े थे। कुछ समय बाद कोटद्वार में फिर सामना हुआ। मुजफ्फरनगर कांड में किसी तरह बचते बचाते मैं डॉ0 नन्द किशोर हटवाल, मदन मोहन चमोली के साथ कर्फ्यू के दौरान 3 दिन राज होटल के एक एक कमरे में पैक रहे। हमारे लिए भोजन पानी रात को जुझारू कामरेज नेता के घर से आता रहा। 3 दिन बाद जब उकता गये तो पैदल ही चल पड़े। शॉय तक दुगड्डा पहॅुचे तो उन्होंने हमें शानदार अंग्रेजों के जमाने में बने गेस्ट हाउस में टिका दिया। यहॉ तो मजा आ रहा था। फाईव स्टार में भी यह आनन्द नहीं मिलता, यह बंगला तो सेवन स्टार है। दो दिन इस खूबसूरत बंगले में बिताये, अगले दिन हमने ढूॅढ खोज कर प्रसिद्व इतिहास कार डॉ0 शिव प्रसाद डबराल जी के कुछ उॅचाई पर स्थित घर पर पहॅुच गये। डबराल जी दुबले पतले चश्में लगाये हुऐ थे। दाड़ी सफेद झक थी। माताजी भी थी। दोंनों काफी बुर्जुग हो गये थे। चरण स्पर्श प्रणाम कर एक महान इतिहासकार के समर्पण, त्याग, तपस्या, अध्ययन और प्रकाशन की बड़ी जिम्मेवारी अपले कन्धों पर लेने वाले शख्स के सम्मुख हम नत मस्तक थे। घर के अन्दर घुसते ही चारों ओर उपर-नीचे, इधर-उधर, अगल-बगल पुस्तकें ही पुस्तकें थी। हम एक विशाल पुस्तक लाईब्रेरी के मध्य में एक बेंच पर उनके साथ बैठे थे। बहुत बातें की फोटो भी खींचे उन्होंने कहा कि मैं कई बार हेमवत्ती नन्दन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के कुलपतियों को लिख चुका हुॅ कि ये पुस्तकें यहॅा खराब हो रही हैं। इन्हें यहॉ से ले जाओ व विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में इन्हें संरक्षित कर लो लेकिन दुर्भाग्य से यह कार्य नहीं हो पाया है। जिस राज्य के इतिहास को संजोने में डबराल जी ने अपना जीवन लगा दिया, उनकी ऐतिहासिक सामग्री को हम संजो नहीं पाये। अगर यह बात अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप की होती तो हजारों विश्वविद्यालयों में इस हेतु होड़ मची जाती। इसलिए अन्तराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में अपनी विशाल ज्ञान के भण्डार को संरक्षित करने के कारण ही वे प्रसिद्व विश्वविद्यालय हैं। और हम यहॉ फ्री में दान में मिल रही अमूल्य सम्पदा को लेने में भी गरीब ही रह गये हैं, तो यह उत्तराखण्ड के तथा कथित बुद्विजीवियों के मुॅह पे तमाचा ही है। डॉ0 डबराल जी से इस अविस्मरणीय मुलाकात ने मुझे दुगड्डा व कोटद्वार से ऐसे जोड़ दिया कि मेरा एक घर भी इस ओर बनता चला गया। कई सालों बाद फिर इस ओर आना हुआ था। सिन्धीखाल की ओर बढ़ते हुए महान स्वाधीनता आन्दोलनकारी चन्द्रशेखर जी की यादें भी जुड़ी हुई हैं। यहॉ पहले एक पीपल का पेड़ हुआ करता था जो पिछले साल टूट गया था। इस इलाके के भूवैज्ञानिक अध्ययन के दौरान हमने फोटो भी खिंचवाई थी। अब यहॉ पर सुन्दर पार्क भी बन गया है। ऐतिहासिक रूप से दुगड्डा का अति महत्वपूर्ण स्थान था। पहाड़ में पहले सड़कें नहीं थी तो लोग कई-कई दिनों की पैदल यात्रा कर दुगड्डा पहॅुचते थे। उन दिनों उन्हें ढाकरी कहा जाता था। यहॉ गुड़, चना, नमक आदि सीमित सामाग्री को लेने लोग पहुॅचते थे। वे फिर कई परिवारों के लिए भोजन सामाग्री लेकर अपने गॉवों की ओर जाते थे। तिब्बत से भोटिया जाति के लोग सेंन्धी नमक, पत्थर, ऊन का सामान, जड़ी-बूटियॉ, बकरियों की थैठ, घोड़े, खच्चर, याक, बैल जैसे भी सम्भव हो दुगड्डा की मण्डियों तक पहॅुचते थे। इसके साथ-साथ सर्दियों व ऊॅचे इलाकों में बर्फबारी हो जाने के कारण हजारों भेड़ बकरियों के खेडे़ भी उनके साथ होते थे। वापसी में इन्हीं भेड़ बकरियों के पीठ पर बने थैलों (फान्ची) में नमक भरकर फिर पहाड़ों की ओर ले जाते व सारे रास्ते भर बेचकर कुछ और अनाज इकट्ठा कर ले जाते। यह घुमतु व्यवस्था थी। एक गुज्जर डेरे पर गये।

गुलाम मुस्तफा की कई पीढ़ीयॉ जंगलों में घूम कर पशुपालन कर अपना जीवन यापन कर रहे हैं। लेकिन ये आज तक भी भारत के नागरिक नहीं बन पाये हैं। किसी जमाने में गुज्जर लोग सुदूर पाकिस्तान- अफगानिस्तान से घुमते-घुमते हिमालय की इन पहाड़ियों की ओर आ गये व कई वर्षों से यहीं के होकर रह गये। मस्तू उर्फ गुलाम मुस्तफा कह रहे थे कि वे भी चाहते हैं कि सरकार उनको कुछ जमीन देकर अस्थाई रूप से अपना जीवन शुरू कर सकें। ये गुज्जर भी चाहते हैं कि उनके बच्चे पढें-लिखें। राष्ट्रीय पार्क के कारण इनको अब देर सबेर जंगलों से बेदखल होना ही पड़ेगा। गुज्जरों के एक-दो साल पहले राशन कार्ड भी बनें पर फिर निरस्त हो गये। अभी इनके वोटर कार्ड भी बने हुए हैं लेकिन ये केवल विद्यायक व सांसद को ही वोट देते हैं। ये स्थानीय ग्रामसभा गाड़ीपोत, सिल्वाड़ गॉव में प्रधानों के चुनाव में भाग भी ले चुके हैं। इस पर राजेन्द्र रावत जी रोचक किस्सा सुनाते हैं, शुरूआत में सौ सवा सौ गुज्जर परिवारों को ग्राम पंचायत से जोड़ा गया व उन्हें वोट देने का अधिकार भी मिल गया। अब चुनाव हुए तो प्रधानों की दावेदारों की संख्या अधिक होने से गुज्जर प्रधान बन गया इससे स्थानीय ग्रामिणों को समझ आयी की इनको गॉव से जोड़ना खतरनाक है अतः इनको ग्रामपंचायत की वोटर लिस्ट से हटवा दो। गॉव वाले चाहते हैं कि सरकार गुज्जरों का अलग गॉव बनाये। पार्क के अन्दर अगर सीमित गुज्जर झोपड़ियों को भी सीमित पशुओं के साथ रहने की अनुमति हो तो पार्क की विविधता में चार चॉद लग जायेंगे। पर्यटक न सिर्फ वन्य जीवों व प्रकृति का आनन्द ले सकेंगे बल्कि गुज्जरों का जन जीवन व उनके समाज को भी समझ पायेंगे। हमारे समाज व्यवस्था के इस रंग पे हम पार्क से बाहर कर तो लेंगे लेकिन गुज्जरों के इतिहास को नहीं मिटा पायेंगे। कल हमनें अंग्रेजों के जमाने के बने भवनों, फारेछट चौकियों का भ्रमण किया। सॉय होते-होते सड़क के दोंनो ओर दर्जनों वन्य जीव विचरण करते हुए दिखे लेकिन अंधेरा होने से केमरे ने काम करना बन्द कर दिया। लेकिन मजा आ गया। स्पाडेड डियर, मोर, जंगली मुर्गे-मुर्गियॉ, दर्जनों रंग-बिरंगी पक्षियॉ, घूरल, बारहसिंघा खूब दिखे। बरसात में इस पार्क से निकली पलैन नदी में खूब मछलियॉ पायी जाती हैं। वर्ड वाचिंग के लिए नार्थ कार्बेट पार्क सबसे आर्दश स्थान है। यहॉ जीप सफारी से हल्दुखाता आदि इलाकों से पार्क के कोर जोन में पहुॅचा जा सकता है। रामीसेरा में बने कैम्प के उपरी सड़क से आगे धुमाकेट व रामनगर पहॅुचा जा सकता है। यह बहुत सुन्दर इलाका है। आखिरकार भरत ने कॉर्बेट के इस कैम्प का नाम इस इलाके में पाये जाने वाली एक सुन्दर पक्षी रेड स्टार्ट के नाम पर “कॉर्बेट रेड स्टार्ट कैम्प” रख दिया है. इससे इस पक्षी के संरक्षण पर भी कुछ सार्थक पहल होगी.