लौकडाउन में फंसे पशु व पशुचारक

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जयप्रकाश पंवार 'जेपी'

किसी दौर में घुमंतू पशुचारक गुज्जर अफगानिस्तान व गुजरांवाला पाकिस्तान से होते हुए पहले कश्मीर व बाद में हिमांचल से होते हुए उत्तराखंड पहुंचे थे.

इन गुज्जरों में एक वर्ग भेड़पालन करता था जो मुख्यतः कश्मीर व हिमांचल तक सिमित रहे. इन इलाकों में पर्याप्त बुग्याल व चारागाह थे जिन्होंने इनको और जगह भटकने से बचाया. दुसरे वर्ग ने खेती, ब्यापार व डेरी –दुग्ध का कार्य करना शुरू किया जो उत्तर प्रदेश, पंजाब व हरियाणा जैसे इलाकों में बस गए. तीसरे वर्ग के गुज्जरों ने घुमंतू पशुचारण जैसे भैंस, गाय पालन ब्यवसाय अपनाया. जो उत्तराखंड के तराई वाले इलाके जैसे राजाजी नेशनल पार्क को स्वतंत्रता से पूर्व काफी पहले ठिकाना बना बैठे. कहा जाता है की प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने इन्हें सौ साल की लीज पर इनको बसाया था. इन गुज्जरों को देश का नागरिक तक नहीं माना गया था. बाद में कई सामाजिक संस्थाओं व लोगों ने इनके नागरिक अधिकारों की लडाई लड़ी व इनको मूलभूत अधिकार दिए गये. इन गुज्जरों की जीवन शैली ऐसी है कि ये कभी भी एक जगह गावं की तरह नहीं रह सकते थे, लिहाजा इनको जंगलों में अलग-अलग अपने डेरे बनाने पड़ते थे, जो आज भी देखा जा सकता है. उत्तराखंड के वन गुज्जर गर्मियां शुरु होते ही पूर्व में बद्री – केदार, भिलंगना, भागीरथी, यमुना व टोंस घाटी की ओर चल पड़ते थे व सर्दियों में फिर गर्म इलाकों यानि तराई आ जाते थे. यह सिलसिला पिछले दो दसक पूर्व तक देखा गया. अब गुज्जर केवल भिलंगना, गंगा, यमुना व टोंस घाटी के निश्चित इलाकों तक ही जाते है. लेकिन इस साल इनके विचरण पर एक बार फिर प्रश्न खड़ा हो गया है. सरकार ने कोरोना समस्या को देखते हुए इनके पहाड़ जाने पर रोक लगाने की बात कह दी है. वैसे ही पूर्व में वन कानूनों के शख्त होने, रास्ट्रीय पार्कों के निर्माण से इन घुमंतू वन गुज्जरों के सामने समस्या खड़ी हो गयी थी. इन प्रतिबंधों के कारण वन गुज्जरों की पूरी जीवन शैली पर फर्क पड़ा. सरकारों ने इनको हरिद्वार की पथरी इलाके में बसाने का काम शुरू किया, कुछ बस पाए कुछ नहीं. इनको आबंटित भूमि, भवन, जमीन भू माफिया खा पचा गये. फिर दूसरी बार इनको कोटद्वार के निकट लाल ढाग में भूमि आबंटित की गयी. यहाँ तो और बड़ा कमाल हुआ. नाम गुज्जरों का, भूमि पचा गये कई शूरमा, कुछ दिन बड़ा बबाला मचा फिर वक़्त के हाथों मुद्दे की हत्या हो गयी.

उत्तराखंड के मुख्य सचिव के हवाले से यह निर्देश दिया गया है कि गुज्जरों के ग्रीष्मकालीन प्रवास पर पुर्णतः प्रतिबंध लगाया जाए. सचिव ने कहा है की इनके राशन पशुओं के चारे की व्यवस्था की जाए व आँचल के माध्यम से इनके दुग्ध उत्पादों को बेचने का प्रबंध किया जाये. मुख्य सचिव ने यह भी निर्देशित किया है कि गुज्जरों के परिवार, पशुओं की संख्या का डाटा भी तैयार किया जाये. यानि कि सरकार के पास इनका डाटा उपलब्ध नहीं है या वो अपडेट नहीं है. अब सवाल ये है कि वन गुज्जरों के लिए सरकार ने फरमान तो निकाल दिया, लेकिन भेड़पालकों जो आजकल अपने ग्रीष्मकालीन इलाकों से पहाड़ों की ओर जा रहे होंगे, ऐसे ही स्थानीय गावों के पशुचारक भी अपने – अपने इलाकों में छानों, बुग्यालों में जाने की तैयारी कर रहे होंगे, उधाहरण हेतु  जैसे चमोली के गैरसैण, अल्मोड़ा व पौड़ी जनपदों के भैंस पालक धुधातोली की ओर बढ़ रहे होंगे, उनके लिये सरकार ने क्या सोचा है? दोनों की प्रकृति व समस्या एक ही जैसे है. क्या भेड़ पालकों व स्थानीय पशुचारकों के लिये भी सरकार राशन व चारे की व्यवस्था करने जा रही है? यदि नहीं तो फिर यह भेदभाव सिर्फ वन गुज्जरों के साथ ही क्यों? घुमंतू पशुचारक प्रकृति व मौसम के अनुरूप समायोजन कर अपना व अपने पशुओं का जीवन निर्वाह करते आये है. जब एक स्थान विशेष में चारे की कमी हो जाती है तो वे अपना स्थान बदलते रहते हें. ऐसा करने से जंगल व पारिस्तिथिकी पर अनावश्यक दबाब नहीं पड़ता व चारे को दुबारा पनपने का एक चक्र मिल जाता है. सरकार को चाहिये था कि स्थानीय पशुचारकों, घुमन्तु भेड़ पालकों, वन गुज्जरों व उनके पशुओं के स्वास्थ्य की जांच परख की जाती, पशु चिकित्सकों का दल उनके साथ – साथ उनको उनके ग्रीष्मकालीन इलाकों तक छोड़ आता व बीच-बीच में देखरेख करता रहता तो यह एक सरल उपाय होता. चारे की व्यस्था करना एक बड़ी समस्या है इसका अहसास सरकार को हो जाना चाहिये. सिर्फ प्रतिबंधित करना कोई हल नहीं है. सरकार को इस पर पुनर्विचार करना चाहिये.